फ़िरदौस ख़ान
सर्दियों के मौसम में किसानों को सबसे ज्यादा जिस चीज़ का डर सताता है, वह है पाला. हर साल पाले से उत्तर भारत में फलों और सब्जियों की फसलें प्रभावित होती हैं. इससे पैदावार घट जाती है. अमूमन पाला दिसंबर और जनवरी में पड़ता है, लेकिन कभी-कभार यह फ़रवरी के पहले पखवाड़े तक भी क़हर बरपाता है.
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़ तापमान गिरने से जब भूमि की ऊष्मा बाहर निकलती है और भूमि के समीप वायुमंडल का तापमान एक डिग्री से नीचे हो तो ऐसे में ओस की बूंदे जम जाती हैं, जिसे पाला कहा जाता है. जब आसमान साफ हो, हवा न चल रही हो और तापमान गिरकर 0.5 डिग्री से. तक पहुंच जाए तो पाला गिरने की संभावना बढ़ जाती है. पाला दो प्रकार का होता है, काला पाला और सफेद पाला. जब भूमि के समीप तापमान 0.5 डिग्री से कम हो जाए और पानी की बूंदे न जमें तो इसे काला पाला कहते हैं. इस अवस्था में हवा बेहद शुष्क हो जाती है और पानी की बूंदे नहीं बन पातीं. जब पाला ओस की बूंदों के रूप में होता है तो उसे सफेद पाला कहते हैं. सफ़ेद पाला ही फ़सलों को सबसे ज्यादा नुक़सान पहुंचाता है. सफेद पाला ज्यादा देर तक रहने से पौधे नष्ट हो जाते हैं. पाले के कारण पौधों की कोशिकाओं व ऊतकों में मौजूद कोशिका द्रव्य जमकर बर्फ़ बन जाता है. इससे कोशिका का द्रव्य आयतन बढ़ने से कोशिका भित्ति फट जाती है. कोशिकाओं में निर्जलीकरण होने लगता है, जिससे पौधों की जैविक क्रियाएं प्रभावित होती हैं और पौधा मर जाता है. पाला फलों में आम, पपीते व केले और सब्जियों में आलू, मटर, सरसों व अन्य कोमल पत्तियों वाली सब्ज़ियों को ज्यादा प्रभावित करता है.
फलों को पाले से बचाने के लिए कई तरीक़े अपनाए जा सकते हैं. जिस रात पाला पड़ने की संभावना हो, उस वक्त सूखी पत्तियां या उपले या पुआल आदि जलाकर बाग में धुंआ कर दें. इससे आसपास के वातावरण का तापमान बढ़ जाएगा और पाले से नुकसान नहीं होगा. धुंआ पाले को नीचे आने से भी रोकता है. फसल को पाले से बचान के लिए 10 से 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए. सिंचाई करने से भूमि के तापमान के साथ पौधों के तापमान में भी बढ़ोतरी होती है, जो पाले के असर को कम कर देती है. बाग में सूखी पत्तियां और घास-फूंस फैलाना देने और पेड़ों के तनों पर गोबर का लेप कर देने से भी पाले से बचाव किया जा सकता है. छोटे पौधों और नर्सरियों को पाले से बचाने उन्हें प्लास्टिक शीट से ढक देना चाहिए. इससे तापमान बढ़ जाता है. इसके अलावा सरकंडों और धान की पुआल की टाटियां बनाकर भी पौधों की पाले से रक्षा की जा सकती है. वायुरोधी टाटियां उत्तर-पश्चिम की तरफ़ बांधें. छोटे फलदार पौधों के थांवलों के चारों तरफ़ पूर्वी भाग छोड़कर टाटियां लगाकर सुरक्षा करें.
सभी प्रकार के पौधों पर गंधक के तेज़ाब का 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए. इससे न केवल पाले से बचाव होता है, बल्कि पौधों में लौह तत्व की जैविक व रासायनिक सक्रियता भी बढ़ जाती है. यह पौधों को रोगों से बचान व फसल को जल्दी पकाने का भी काम करता है. इस छिड़काव का असर एक पखवाड़े तक रहता है. इसी तरह सब्जियों की फसल को पाले से बचाने के लिए भी कई तरीके अपनाए जा सकते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात, बिजाई के वक्त ऐसे किस्मों को चुना जाना चाहिए, जो पालारोधी हों. फसल की सिंचाई करते रहना चाहिए. खेत में घासफूंस बिछाकर भी तापमान को कम होने से रोका जा सकता है.
सर्दियों के मौसम में किसानों को सबसे ज्यादा जिस चीज़ का डर सताता है, वह है पाला. हर साल पाले से उत्तर भारत में फलों और सब्जियों की फसलें प्रभावित होती हैं. इससे पैदावार घट जाती है. अमूमन पाला दिसंबर और जनवरी में पड़ता है, लेकिन कभी-कभार यह फ़रवरी के पहले पखवाड़े तक भी क़हर बरपाता है.
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों के मुताबिक़ तापमान गिरने से जब भूमि की ऊष्मा बाहर निकलती है और भूमि के समीप वायुमंडल का तापमान एक डिग्री से नीचे हो तो ऐसे में ओस की बूंदे जम जाती हैं, जिसे पाला कहा जाता है. जब आसमान साफ हो, हवा न चल रही हो और तापमान गिरकर 0.5 डिग्री से. तक पहुंच जाए तो पाला गिरने की संभावना बढ़ जाती है. पाला दो प्रकार का होता है, काला पाला और सफेद पाला. जब भूमि के समीप तापमान 0.5 डिग्री से कम हो जाए और पानी की बूंदे न जमें तो इसे काला पाला कहते हैं. इस अवस्था में हवा बेहद शुष्क हो जाती है और पानी की बूंदे नहीं बन पातीं. जब पाला ओस की बूंदों के रूप में होता है तो उसे सफेद पाला कहते हैं. सफ़ेद पाला ही फ़सलों को सबसे ज्यादा नुक़सान पहुंचाता है. सफेद पाला ज्यादा देर तक रहने से पौधे नष्ट हो जाते हैं. पाले के कारण पौधों की कोशिकाओं व ऊतकों में मौजूद कोशिका द्रव्य जमकर बर्फ़ बन जाता है. इससे कोशिका का द्रव्य आयतन बढ़ने से कोशिका भित्ति फट जाती है. कोशिकाओं में निर्जलीकरण होने लगता है, जिससे पौधों की जैविक क्रियाएं प्रभावित होती हैं और पौधा मर जाता है. पाला फलों में आम, पपीते व केले और सब्जियों में आलू, मटर, सरसों व अन्य कोमल पत्तियों वाली सब्ज़ियों को ज्यादा प्रभावित करता है.
फलों को पाले से बचाने के लिए कई तरीक़े अपनाए जा सकते हैं. जिस रात पाला पड़ने की संभावना हो, उस वक्त सूखी पत्तियां या उपले या पुआल आदि जलाकर बाग में धुंआ कर दें. इससे आसपास के वातावरण का तापमान बढ़ जाएगा और पाले से नुकसान नहीं होगा. धुंआ पाले को नीचे आने से भी रोकता है. फसल को पाले से बचान के लिए 10 से 15 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करते रहना चाहिए. सिंचाई करने से भूमि के तापमान के साथ पौधों के तापमान में भी बढ़ोतरी होती है, जो पाले के असर को कम कर देती है. बाग में सूखी पत्तियां और घास-फूंस फैलाना देने और पेड़ों के तनों पर गोबर का लेप कर देने से भी पाले से बचाव किया जा सकता है. छोटे पौधों और नर्सरियों को पाले से बचाने उन्हें प्लास्टिक शीट से ढक देना चाहिए. इससे तापमान बढ़ जाता है. इसके अलावा सरकंडों और धान की पुआल की टाटियां बनाकर भी पौधों की पाले से रक्षा की जा सकती है. वायुरोधी टाटियां उत्तर-पश्चिम की तरफ़ बांधें. छोटे फलदार पौधों के थांवलों के चारों तरफ़ पूर्वी भाग छोड़कर टाटियां लगाकर सुरक्षा करें.
सभी प्रकार के पौधों पर गंधक के तेज़ाब का 0.1 प्रतिशत घोल का छिड़काव करना चाहिए. इससे न केवल पाले से बचाव होता है, बल्कि पौधों में लौह तत्व की जैविक व रासायनिक सक्रियता भी बढ़ जाती है. यह पौधों को रोगों से बचान व फसल को जल्दी पकाने का भी काम करता है. इस छिड़काव का असर एक पखवाड़े तक रहता है. इसी तरह सब्जियों की फसल को पाले से बचाने के लिए भी कई तरीके अपनाए जा सकते हैं. सबसे महत्वपूर्ण बात, बिजाई के वक्त ऐसे किस्मों को चुना जाना चाहिए, जो पालारोधी हों. फसल की सिंचाई करते रहना चाहिए. खेत में घासफूंस बिछाकर भी तापमान को कम होने से रोका जा सकता है.