फ़िरदौस ख़ान
देश और समाज में आज महिला सशक्तीकरण की ख़ूब बातें हो रही हैं. आख़िर क्या है महिला सशक्तिकरण. दरअसल, महिला को सशक्त बनाने को ही महिला सशक्तीकरण कहा जाता है. महिलाओं का जीवन के हर क्षेत्र में सशक्त होना ही महिला सशक्तीकरण है. महिलाओं को धन के मामले में आत्मनिर्भर होना होगा. इससे उनमें आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास पैदा होगा. इसके लिए उन्हें शिक्षित करना होगा. शिक्षित महिलाएं ही आने वाली पीढ़ी की बच्चियों और महिलाओं को बेहतर परिवेश दे पाएंगी. यह शिक्षा का ही असर है कि जिस देश में, जिस समाज में लोग बेटियों की बजाय बेटों को ज़्यादा तरजीह देते रहे हैं, वहां अब लोग बेटियों को परिवार में ज़रूरी मानने लगे हैं, उनकी चाहत करने लगे हैं. एक सर्वे के मुताबिक़ बेटियों को लेकर समाज का नज़रिया बदलने लगा है.   

नेशनल फ़ैमिली एंड हेल्थ सर्वे की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ 15 से 49 साल की 79 फ़ीसद महिलाएं और 15 से 54 साल के 78 फ़ीसद पुरुष चाहते हैं कि उनके परिवार में कम से कम एक बेटी ज़रूर होनी चाहिए. बेटी चाहने वालों में मुस्लिम, दलित और आदिवासी सबसे आगे हैं. राज्यों की बात करें, तो इसमें उत्तर प्रदेश और बिहार आगे हैं. रिपोर्ट में कहा गया है कि ग़रीबी रेखा से नीचे आने वाले तबक़े और निम्न मध्वर्गीय परिवारों की 86 फ़ीसद महिलाएं और 85 फ़ीसद पुरुष बेटी के जन्म पर ख़ुशी मनाते हैं. मुस्लिम, दलित और आदिवासी तबक़ों के लोगों का मानना है कि परिवार में बेटी का होना बहुत ज़रूरी है. 

इस सर्वे की ख़ास बात यह भी है कि साल 2005-06 के सर्वे के मुक़ाबले इस बार गांवों की महिलाओं ने परिवार में बेटियों को ख़ासी तरजीह दी है. पुराने सर्वे में 74 फ़ीसद शहरी महिलाओं ने बेटियों को तरजीह दी थी, जबकि 65 फ़ीसद ग्रामीण महिलाओं ने बेटी की ख़्वाहिश ज़ाहिर की थी. लेकिन इस बार ग्रामीण इलाक़ों की 81 फ़ीसद महिलाओं ने बेटी को तरजीह दी है, जबकि शहरी इलाक़ों की 75 फ़ीसद महिलाओं ने बेटी की चाहत जताई है. ग्रामीण इलाक़ों के 80 फ़ीसद पुरुष परिवार में बेटी चाहते हैं, जबकि शहरी इलाक़ों के 75 फ़ीसद पुरुषों ने ही घर में बेटी को ज़रूरी माना है.

परिवार में बेटी को तरजीह देने के मामले में शिक्षा का असर देखने को मिला है, यानी बारहवीं पास 85 फ़ीसद महिलाएं बेटी को ज़रूरी मानती हैं, जबकि इससे कम शिक्षित 72 फ़ीसद महिलाओं ने परिवार में बेटी की पैदाइश को ज़रूरी माना है. इस मामले में पुरुषों की सोच महिलाओं से एकदम विपरीत है यानी सिर्फ़ 74 फ़ीसद शिक्षित पुरुष ही बेटियों की चाहत रखते हैं, जबकि 83 फ़ीसद कम शिक्षित पुरुषों ने बेटियों को अपनी पहली पसंद क़रार दिया है.

रिपोर्ट के मुताबिक़ 79 फ़ीसद बौद्ध और 79 फ़ीसद हिन्दू महिलाओं का मानना है कि घर में कम से कम एक बेटी तो होनी ही चाहिए. जातीय समुदाय का ज़िक्र करें, तो 81 फ़ीसद दलित और 81 फ़ीसद आदिवासी और 80 अन्य पिछड़ा वर्ग के परिवारों की महिलाओं ने बेटी को ज़रूरी माना है. इसी तरह 84 फ़ीसद आदिवासी पुरुष और 79 फ़ीसद दलित पुरुष भी बेटी चाहते हैं.

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ पुरुष की बेटों की चाहत रखते हैं. समाज में ऐसी महिलाओं की कोई कमी नहीं है, जो ख़ुद महिला होने के बावजूद बेटी को पसंद नहीं करतीं और बेटियों को बोझ समझती हैं. सर्वे के मुताबिक़ 19 फ़ीसद महिलाएं ऐसी भी हैं, जो बेटा चाहती हैं. इसके विपरीत 3.5 फ़ीसद ऐसी महिलाएं भी सामने आईं, जिन्हें सिर्फ़ बेटियां चाहिए. हालांकि बिहार की 37 फ़ीसद महिलाएं और उत्तर प्रदेश की 31 फ़ीसद महिलाएं बेटों को बेटियों से ज़्यादा अच्छा समझती हैं. 

साल 2011 की जनगणना के आंकड़े भी यह साबित करते हैं कि मुसलमानों में बेटियों का लिंगानुपात अन्य समुदायों के मुक़ाबले में बेहतर है. मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात 950:1000 है, जबकि हिन्दू समुदाय में लिंगानुपात 925:1000 है. हालांकि इस मामले में ईसाई समुदाय सबसे आगे है. ईसाइयों में लिंगानुपात 1009 :1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंग अनुपात 933:1000 है.  

इस्लाम ने बेटियों को दिया इज्ज़त का मुक़ाम
तक़रीबन 81 फ़ीसद मुसलमान परिवारों ने घर में बेटियों का होना बेहद ज़रूरी माना है. दरअसल, मुस्लिम समाज में बेटियों को चाहने की मज़हबी वजह भी है. क़ाबिले-ग़ौर है कि अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को पैदा होते ही ज़िन्दा दफ़ना दिया करते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद ने इस घृणित और क्रूर प्रथा को ख़त्म करवाकर बेटियों को इज़्ज़त का मुक़ाम दिया. उन्होंने मुसलमानों से अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने को कहा. एक हदीस के मुताबिक़ अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- "जिसकी तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उसने अच्छी तरह रखा और उनके बारे में अल्लाह से डरता रहा, तो वह जन्नत में दाख़िल होगा." (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या 446)

इस्लाम में वंश चलाने के लिए बेटों को ज़रूरी नहीं माना जाता. अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का वंश उनकी प्यारी बेटी सैयदना फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा से चला. जब तमाम लोग अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बारगाह में आते, तो सबसे पहले यह कहते- “या रसूल अल्लाह ! मेरे मां-बाप आप पर क़ुर्बान.” फिर उसके बाद ही वे अपनी कोई फ़रियाद करते. लेकिन जब अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम अपनी बेटी से कोई बात करते, तो सबसे पहले यह इरशाद फ़रमाते- “फ़ातिमा ! तुझ पर मेरे मां-बाप क़ुर्बान.” रसूल अल्लाह ने अपनी बेटी को इतना बुलंद मर्तबा दिया. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुनिया की हर बेटी को आदर-सम्मान दिया. इस्लाम के मुताबिक़ रोज़े-महशर में हर शख़्स अपनी मां के नाम के साथ पुकारा जाएगा. उस वक़्त उसे उसकी मां के नाम से ही पहचाना जाएगा. ऐसा इसलिए है कि इस दुनिया में उन औरतों की कमी नहीं है, जिनके साथ ज़बरदस्ती की गई या जिन्हें जिस्म फ़रोशी के ग़लीज़ धंधे में धकेल दिया गया. रोज़े महशर में ऐसी मांओं के बच्चों को शर्मिंदगी से बचा लिया गया है.             

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि बेटियां हर घर की रौनक़ होती हैं. बेटियां अपने माता-पिता के दिल के क़रीब होती हैं. बेटियां दूर होकर भी अपने माबाप से दूर नहीं होतीं. बहरहाल, यह एक अच्छी ख़बर है कि बेटियों के प्रति समाज का नज़रिया बदलने लगा है.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
साभार : आवाज़ 
तस्वीर साभार : गूगल 


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