सुष्मिता सेनगुप्त
पानी के अभाव ने उड़ीसा के एक गांव को पानी का प्रबंधन करना सिखाया। करीब 30 साल की गुलाब कुंजु उन दिनों को याद करती हैं जब अपनी प्यास बुझाने के लिए दूध पीना पड़ा, क्योंकि उनके यहां पानी का अभाव था। उनके गांव धौराड़ा के चार बस्तियों में बसे 120 से ज्यादा परिवारों की ज़रूरतों की पूर्ति के लिए सिर्फ तीन हैंडपंप थे। उनकी बस्ती के बाहरी इलाके में स्थित निकटतम हैंडपंप से पानी लाने के लिए दिन में कई बार चक्कर लगाना पड़ता था।
गर्मी के दिनों में पानी का रंग लाल हो जाता। कुंजु ने बताया कि, ‘‘उसका स्वाद नींबू की तरह हो जाता था। पानी भरने वाले बर्तनों के तल में लौह के कण देखे जा सकते थे।’’ गांव की ही एक अन्य निवासी मीनाक्षी लाकड़ा ने बताया कि उन्हें अपने कुछ बर्तनों को फेंकना पड़ा, क्योंकि उनमें लाल धब्बों के मोटे परत जम गए थे। जब हैंडपंप का पानी पूरा नहीं पड़ता था तो लोग तालाब से भरकर पानी पीते थे। गांव में डायरिया और पेट संबंधी अन्य बीमारी होना तो आम बात थी। 30 वर्षीय लाकड़ा ने अपनी आपबीती बताई कि, ‘‘जब हमारे बच्चे बीमार पड़े तो डाक्टर के पास जाने पर डाक्टर ने बताया कि उनके पेट बर्तनों की ही तरह क्षतिग्रस्त हो गये हैं।’’
धौराड़ा उड़ीसा के सुन्दरगढ़ जिले के राजगंगपुर ब्लॉक में स्थित है। यहां की थोड़ी नमी वाली सूखी जमीन जबरदस्त भूमि कटाव की समस्या से ग्रस्त है। गांव के ज्यादातर लोग पेयजल के लिए भूजल पर निर्भर हैं। धौराड़ा एक ग्रेनाइट वाले क्षेत्र में बसा है, जिसके नीचे डोलोमाइट, मैग्निशियम व कैल्शियम युक्त पत्थरों की कड़ी परत मौजूद है। गांव के हैंडपंप डोलोमाइट की पट्टी में स्थित भूजल भंडार से पानी निकालते हैं, लेकिन इन जलभंडारों की जल उत्पन्न क्षमता काफी कम है और पानी की गुणवत्ता ठीक नहीं है - इनमें लौह एवं कैल्शियम की अधिकता है। इसलिए जब ग्रामीण जल आपूर्ति एवं सैनिटेशन विभाग ने सन 2005 में गांव का दौरा किया तो लोगों ने पेयजल की समस्या को ठीक करने का अनुरोध किया।
इंजीनियरों ने पहले बोरिंग को और ज्यादा गहरा करने की कोशिश की लेकिन वे हैंड पंपों की जल उत्पन्न क्षमता बढ़ाने में असफल रहे, क्योंकि गहरे परत में पानी ही नहीं मिला। उन्होंने ध्यान दिया कि गांव में कुछ परिवारों के पास निजी कुएं हैं, जो कि नहीं सूखते। ये कुएं ग्रेनाइट के परत से पानी लेते हैं जो कि डोलोमाइट के परत के मुकाबले दोगुना पानी निकालते हैं। तब इंजीनियरों ने एक खुला कुआं खोदने का निर्णय किया। विभाग ने यह स्पष्ट किया कि वह कुआं समुदाय का होगा।
अगले साल धौराड़ा के निवासियों ने ग्रामीण जल एवं सैनिटेशन समिति का गठन किया। विभाग ने आकलन किया कि कुएं और आपूर्ति ढांचे की कुल लागत रुपये 9.3 लाख होगी और गांव को उसका 10 फीसदी वहन करने को कहा। समिति ने रुपये 50,000 नगद और शेष श्रम के तौर पर योगदान दिया। यह परियोजना राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम के हिस्से, स्वजलधारा योजना के अंतर्गत मंजूर की गई।
गांव के किसानों वाली उस समिति ने कुएं की साम्रगी की खरीददारी की और उसका रिकार्ड रखा। कुएं की खुदाई ग्रेनाइट के परत वाली गहराई तक की गई। कुएं से घरों तक पाइप बिछाए गए। समिति के अध्यक्ष सूरज बोरा ने बताया कि, आज, 76 फीसदी घरों को कुएं से जल आपूर्ति होती है। कुएं से दो घंटे सुबह एवं दो घंटे शाम को पानी निकाला जाता है। एक साल से गांव के लोग अपनी जल आपूर्ति की व्यस्था स्वयं कर रहे हैं। समिति के सचिव ने बताया कि, एक मशीन ऑपरेटर एवं एक गार्ड के वेतन और बिजली बिल सहित कुल मासिक खर्च रुपये 3,200 आता है। समिति हर घर से रुपये 30 प्रति माह लेकर यह खर्च निकाल लेती है।
पानी की गुणवत्ता अच्छी है। गांव के निवासी बताते हैं कि पिछले गर्मी में गांव में पानी के कारण कोई बीमारी की शिकायत नहीं आयी। सड़क और खेतों से बहकर आने वाले पानी से रक्षा के लिए कुएं को कंकड़ों के एक फिल्टर के परत से घेर दिया गया है।
आस पास के इलाके को साफ सुथरा रखने के लिए यह जरूरी था कि लोगों को खुले में शौच करने से रोका जाय। कार्यकारी इंजिनियर जन्मेजय सेठी ने इस पेयजल मिशन का उपयोग गांव के शैनिटेशन को सुधारने में किया। परिवारों को इस शर्त पर पानी का कनेक्शन दिया गया कि वे शौचालय का निर्माण करवाएंगे। श्री सेठी जो कि खुद जिला जल व सैनिटेशन विभाग के सदस्य सचिव हैं, उन्होंने बताया कि, शौचालय के लागत का 80 फीसदी ग्रामीण विकास कोष से दिया गया। संपूर्ण स्वच्छता अभियान के तहत, विभाग ने गांव में 96 शौचालय का निर्माण किया है।
समिति लोगों द्वारा पानी बरबाद किये जाने पर कड़ी नजर रखती है। गर्मी के मौसम में पानी निकालने की अवधि कम कर दी जाती है। लेकिन धौराड़ा से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर, खनन करने वाले डोलोमाइट के खदान से लगातार पानी उलीचते रहते हैं। सेठी ने बताया कि, इस इलाके में कुओं का स्तर सन 2006 से एक फुट (30 सेमी) घट चुका है। उन्होंने बताया कि उड़ीसा में भूजल संबंधी कोई कानून न होने के कारण खननकर्ता गैरकानूनी तरीके से भूजल उलीचते रहते हैं। धौराड़ा के निवासियों को डर है कि यदि पानी की बरबादी जारी रही तो गांव फिर से उसी स्थिति में पहुंच सकता है।