फ़िरदौस ख़ान
भारत विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश है. प्राचीन संस्कृति के
इन्हीं रंगों को देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में बिखेरने में सपेरा जाति की
अहम भूमिका रही है,
लेकिन सांस्कृतिक दूत ये सपेरे सरकार, प्रशासन और समाज के उपेक्षित रवैये की वजह से दो जून की रोटी तक को
मोहताज हैं.
देश के सभी हिस्सों में सपेरा जाति के लोग रहते हैं. सपेरों के नाम से
पहचाने जाने वाले इस वर्ग में अनेक जातियां शामिल हैं. भुवनेश्वर के समीपवर्ती गांव
पद्मकेश्वरपुर एशिया का सबसे बड़ा सपेरों का गांव माना जाता है. इस गांव में सपेरों
के क़रीब साढ़े पांच सौ परिवार रहते हैं और हर परिवार के पास कम से कम दस सांप तो
होते ही हैं. सपेरों ने लोक संस्कृति को न केवल पूरे देश में फैलाया,
बल्कि विदेशों में भी इनकी मधुर धुनों के आगे लोगों को नाचने के
लिए मजबूर कर दिया. सपेरों द्वारा बजाई जाने वाली मधुर तान किसी को भी अपने मोहपाश
में बांधने की क्षमता रखती है.
डफली,
तुंबा और बीन जैसे पारंगत वाद्य यंत्रों के जरिये ये किसी को भी
सम्मोहित कर देते हैं. प्राचीन कथनानुसार भारतवर्ष के उत्तरी भाग पर नागवंश के राजा
वासुकी का शासन था. उसके शत्रु राजा जन्मेजय ने उसे मिटाने का प्रण ले रखा था. दोनों राजाओं के बीच युध्द शुरू हुआ, लेकिन ऋषि आस्तिक की
सूझबूझ पूर्ण नीति से दोनों के बीच समझौता हो गया और नागवंशज भारत छोड़कर भागवती
(वर्तमान में दक्षिण अमेरिका) जाने पर राजी हो गए. गौरतलब है कि यहां आज भी पुरातन
नागवंशजों के मंदिरों के दुर्लभ प्रमाण मौजूद हैं.
स्पेरा परिवार की कस्तूरी कहती हैं कि इनके बच्चे बचपन से ही सांप और
बीन से खेलकर निडर हो जाते हैं. आम बच्चों की तरह इनके बच्चों को खिलौने तो नहीं
मिल पाते,
इसलिए उनके प्रिय खिलौने सांप और बीन ही होते हैं. बचपन से ही
सांपों के सानिंध्य में रहने वाले इन बच्चों के लिए सांप से खेलना और उन्हें क़ाबू कर लेना ख़ास शग़ल बन जाता है.
सिर पर पगड़ी,
देह पर भगवा कुर्ता, साथ में गोल
तहमद, कानों में मोटे कुंडल, पैरों में लंबी नुकीली जूतियां और गले में ढेरों मनकों की माला और ताबीज़ पहने ये लोग कंधे पर दुर्लभ सांप और तुंबे को डाल कर्णप्रिय धुन के साथ गली-कूचों
में घूमते रहते हैं. ये नागपंचमी, होली, दशहरा और दिवाली के
मौक़ों पर अपने घरों को लौटते हैं. इन दिनों इनके
अपने मेले आयोजित होते हैं.
मंगतराव कहते हैं कि सभी सपेरे इकट्ठे होकर सामूहिक भोज 'रोटड़ा' का आयोजन करते हैं. ये आपसी झगड़ों का
निपटारा कचहरी में न करके अपनी पंचायत में करते हैं, जो
सर्वमान्य होता है. सपेरे नेपाल, असम, कश्मीर, मणिपुर, नागालैंड और महाराष्ट्र के दुर्गम इलाकों से बिछुड़िया, कटैल, धामन, डोमनी, दूधनाग, तक्षकए
पदम, दो मुंहा, घोड़ा पछाड़,
चित्तकोडिया, जलेबिया, किंग कोबरा और अजगर जैसे भयानक विषधरों को अपनी जान की बाजी लगाकर पकड़ते
हैं. बरसात के दिन सांप पकड़ने के लिए सबसे अच्छे माने जाते हैं, क्योंकि इस मौसम में सांप बिलों से बाहर कम ही निकलते
हैं.
हरदेव सिंह बताते हैं कि भारत में महज 15
से 20 फीसदी सांप ही विषैले होते हैं. कई
सांपों की लंबाई 10 से 30 फीट तक
होती है. सांप पूर्णतया मांसाहारी जीव है. इसका दूध से कुछ लेना-देना नहीं
है, लेकिन नागपंचमी पर कुछ सपेरे सांप को दूध पिलाने के
नाम पर लोगों को धोखा देकर दूध बटोरते हैं. सांप रोजाना भोजन नहीं करता. अगर वह एक
मेंढक निगल जाए तो चार-पांच महीने तक उसे भोजन की ज़रूरत नहीं होती. इससे एकत्रित
चर्बी से उसका काम चल जाता है. सांप निहायत ही संवेदनशील और डरपोक प्राणी है. वह ख़ुद कभी नहीं काटता. वह अपनी सुरक्षा और बचाव की प्रवृत्ति की वजह से फन उठाकर
फुंफारता और डराता है. किसी के पांव से अनायास दब जाने पर काट भी लेता है,
लेकिन बिना कारण वह ऐसा नहीं
करता.
सांप को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैं,
मसलन सांप के जोड़े द्वारा बदला लेना, इच्छाधारी सांप का होना, दुग्धपान करना,
धन संपत्ति की पहरेदारी करना, मणि
निकालकर उसकी रौशनी में नाचना, यह सब असत्य और काल्पनिक
हैं. सांप की उम्र के बारे में सपेरों का कहना है कि उनके पास बहुत से सांप ऐसे हैं
जो उनके पिता, दादा और पड़दादा के जमाने के हैं. कई सांप तो
ढाई सौ से तीन सौ साल तक भी ज़िन्दा रहते हैं. पौ फटते ही सपेरे अपने सिर पर सांप की
पिटारियां लादकर दूर-दराज के इलाक़ों में निकल पड़ते हैं. ये सांपों के करतब दिखाने
के साथ-साथ कुछ जड़ी-बूटियों और रत्न भी बेचते हैं. अतिरिक्त आमदनी के लिए सांप का
विष मेडिकल इंस्टीटयूट को बेच देते हैं. किंग कोबरा और कौंज के विष के दो सौ से पांच
सौ रुपये तक मिल जाते हैं, जबकि आम सांप का विष 25
से 30 रुपये में बिकता
है।
आधुनिक चकाचौंध में इनकी प्राचीन कला लुप्त होती जा रही है. बच्चे भी
सांप का तमाशा देखने की बजाय टीवी देख या वीडियो गेम खेलना पसंद करते हैं. ऐसे में
इनको दो जून की रोटी जुगाड़ कर पानी मुश्किल हो रहा है. मेहर सिंह और सुरजा ठाकुर को
सरकार और प्रशासन से शिकायत है कि इन्होंने कभी भी सपेरों की सुध नहीं ली. काम की
तलाश में इन्हें दर-ब-दर भटकना पड़ता है. इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है. बच्चों को
शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. सरकार की किसी भी योजना
का इन्हें कोई लाभ नहीं मिल सका,
जबकि क़बीले के मुखिया केशव इसके लिए सपेरा समाज में फैली अज्ञानता
को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं कि सरकार की योजनाओं का लाभ वही लोग उठा पाते
हैं, जो पढ़े-लिखे हैं और जिन्हें इनके बारे में जानकारी
है. मगर निरक्षर लोगों को इनकी जानकारी नहीं होती, इसलिए
वे पीछे रह जाते हैं. वह चाहते हैं कि बेशक वह नहीं पढ़ पाए, लेकिन उनकी भावी पीढ़ी को शिक्षा मिले. वह बताते हैं कि उनके परिवारों के
कई बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया है.
निहाल सिंह बताते हैं कि सपेरा जाति के अनेक लोगों ने यह काम छोड़ दिया
है. वे अब मज़दूरी या कोई और काम करने लगे हैं. इस काम में उन्हें दिन में 100-150 रुपये कमाना पहाड़ से दूध की नदी निकालने से कम नहीं है,
लेकिन अपने पुश्तैनी पेशे से लगाव होने की वजह से वह आज तक सांपों
को लेकर घूमते हैं.