के.आर.
सुदामन
विकसित
देशों में,
समय-समय पर
जो मौद्रिक नीति
उनके केंद्रीय बैंकों
द्वारा घोषित की
जाती है,
उसका लक्ष्य मुद्रास्फीति
की दर को
निम्न स्तर पर
बनाए रखना होता
है। भारत और
अन्य अनेक विकासशील
अर्थव्यवस्थाओं
में केंद्रीय बैंकों
के दो लक्ष्य
होते हैं-मुद्रास्फीति
को नियंत्रित करना
और विकास को
गति देना।
अत:
भारतीय रिजर्व बैंक
को हमेशा संतुलन
का काम करना
होता है। तीन-तीन
महीने पर होने
वाली मौद्रिक नीति
की समीक्षा में
विकास की गति
में कोई बाधा
पहुंचाएं बिना मुद्रास्फीति
को नियंत्रित करना
होता है। यदि
ऐसी कोई असामान्य
स्थिति सामने आती
है, जिसमें
नीतिगत कार्रवाई की
आवश्यकता होती है
तो निश्चय ही, केंद्रीय बैंक
हस्तक्षेप कर सकता
है।
वर्ष 2008
में उभर कर
सामने आया विश्वव्यापी
मुद्रा संकट देखते-देखते
ऐसी अप्रत्याशित आर्थिक
मंदी में बदल
गया, जिसका
अनुभव 1928 की भीषण
मंदी के बाद
पहले कभी नहीं
हुआ। इसके मद्देनजर
भारत सहित पूरे
विश्व के केंद्रीय
बैंकों को इस
भयावह संकट से
उबरने के लिए
तेजी से मौद्रिक
कार्रवाई करनी पड़ी।
बैंकिंग
प्रणाली में आई
तरलता#नकदी
की भीषण कमी
और डूबने वाले
कर्जों की बढ़ती
संख्या के कारण
अनेक प्रमुख अंतराष्ट्रीय
बैंकों के लड़खड़ा
जाने से प्रणाली
में पैसा डालने
के लिए नीतिगत
कार्रवाई की जरूरत
थी ताकि मांग
में तेजी आए
और अर्थव्यवस्था के
स्वास्थ्य के लिए
निर्णायक विकास की
विपरीत गति को
रोका जा सके।
मुद्रा
की आपूर्ति और
ब्याज दरों पर
कठोर नियंत्रण करने
के स्थान पर
केंद्रीय बैंक ने
सरल मौद्रिक नीति
अपना कर बैंकिंग
प्रणाली में धन
लगाने और ब्याज
दरों में कमी
करने की नीति
अपनाई। कुछ विकसित
देशों में तो
ब्याज दर लगभग
शून्य तक पहुंच
गई थी। ऐसा
इसलिए किया गया
ताकि नकारात्मक (ऋणात्मक)
विकास की दिशा को
पलट कर उसे
फिर से सकारात्मक
(धनात्मक) मोड़ दिया
जा सके। आरबीआई
का रूढ़िवादी दृष्टिकोण
अन्य
अनेक देशों के
विपरीत भारतीय रिजर्व
बैंक का रवैया
अपनी मौद्रिक नीति
के प्रति अभी
भी रूढ़िवादी बना
हुआ है और
सरकार रुपए की
पूर्ण परिवर्तनशीलता के बारे
में बहुत सतर्क
है। भारत के
इस दृष्टिकोण से
भारी संकट को
टालने में मदद
मिली है और
अंतर्राष्ट्रीय
आर्थिक मंदी से
हम ज्यादा तेजी
से उबर सके
हैं, तथा
अर्थव्यवस्था
वापस पटरी पर
आ गई है।
संकट के दौरान
सरकार और रिजर्व
बैंक राजकोषीय और
मौद्रिक प्रोत्साहन पैकेज
लेकर आए ताकि
अर्थव्यवस्था
को पुनर्जीवित किया
जा सके। बढ़े
हुए व्यय के
कारण सरकार का
राजकोषीय घाटा बढ़कर
सकल घरेलू उत्पाद
(जीडीपी) का 6.7% (2009-10) तक पहुंच
गया। इसलिए अधिक
ऋण लेना पड़ा।
रिजर्व
बैंक की मौद्रिक
नीति काफी उदार
हो गई और
प्रणाली में और
अधिक नकदी डाली
गई; नीतिगत
दरों को नीचे
लाया गया ताकि
ब्याज दरों में
कमी लायी जा
सके और यह
सुनिश्चित किया जा
सके कि कर्ज
लेने की लागत
कम बनी रहे।
इस
उद्देश्य के लिए
केंद्रीय बैंक ने
जो मौद्रिक साधन
अपनाए, वे
हैं नकद आरक्षी
अनुपात (कैश रिजर्व
रेशियो-सी आर
आर), धनराशि का
प्रतिशत, जमा
राशि का वह
अंश जो बैंकों
को केंद्रीय बैंक
के पास रखना
होता है और
महत्वपूर्ण
लघु अवधि नीतिगत
दरें-रेपो और
रिवर्स रेपो दरें
(रेपो वह दर
होती है,
जिस पर बैंक
रिजर्व बैंक से
रात भर के
लिए अथवा लघु
अवधि के लिए
कर्ज लेते हैं।
रिवर्स रेपो दर
उस दर को
कहते हैं जिस
पर बैंक अपनी
अति शेष राशि
केंद्रीय बैंक के
पास जमा करते
हैं)।
विदेशों
से भारी मात्रा
में आने वाली
पूंजी तथा निवेश
के लिए देश
में बढ़ती मांग
के कारण,
वैश्विक संकट से
पूर्व, बड़ी
तादाद में ऋण
उठाए जा रहे
थे। केंद्रीय बैंक
ने नकद आरक्षी
अनुपात धीरे-धीरे
बढ़ाते हुए 9% तक
पहुंचा दिया था
ताकि बैंकिंग प्रणाली
में पड़ी हुई
अतिशेष नकदी को
सोख लिया जाए
और अर्थव्यवस्था में
आवश्यकता से अधिक
गर्मी न आ
सके, विशेष
कर रियल एस्टेट
(जमीन-जायदाद) क्षेत्र
में, जहां
बुलबुले उठने लगे
थे अर्थात् खतरा
नजर आने लगा
था। इसी तरह, रिजर्व बैंक
ने कई चरणों
में रेपो और
रिवर्स रेपो दरों
में वृध्दि की।
रेपो दर तो
बढ़ कर 6% तक
पहुंच गई थी।
ऐसा इसलिए कि
यह सुनिश्चित किया
जा सके कि
उधार देना बैंकों
के लिए महंगे
का सौदा बन
जाए।
वैश्विक
संकट के दौरान
सरल मौद्रिक नीति
जब
वैश्विक मंदी शुरू
हुई, केंद्रीय
बैंक ने उदार
मौद्रिक नीति अपनाना
शुरू कर दिया।
विभिन्न चरणों में
लिए गए फैसलों
से और अधिक
नकदी उपलब्ध करायी
गयी तथा उधार
की लागत को
कम कर दिया
गया। सी आर
आर घटकर तीन
प्रतिशत तक आ
गया तथा रेपो
दर करीब 4 प्रतिशत
पर लायी गयी।
इससे बैंकिंग प्रणाली
में 3 लाख करोड़ (30
खरब) रुपए से
भी अधिक की
राशि छोड़ी गई
और विकास को
बढ़ावा देने के
लिए बाजार में
पर्याप्त नकदी उपलब्ध
हो सकी।
अर्थव्यवस्था
के वापस पटरी
पर आने तथा
मुद्रास्फीति
में तेजी से
हुई वृध्दि को
देखते हुए पिछले
कुछ महीनों से
राजकोषीय प्रोत्साहन देने
के लिए फूंक-फूंक
कर कदम उठाए
जा रहे हैं।
जनवरी में ही
मौद्रिक संकुचन शुरू
हो गया था
ताकि बाजार में
पड़ी अतिशेष नकदी
को धीरे-धीरे
वापस ले लिया
जाए, जिससे
विकास की गति
को अवरुध्द किये
बिना मुद्रास्फीति को
काबू में रखा
जा सके। ऐसा
करना इसलिए जरूरी
था कि अर्थव्यवस्था
अभी अधिक सुदृढ़
नहीं हो सकी
है।
अर्थव्यवस्था
में सुधार और
मुद्रास्फीति
में तेजी के
साथ सरल नीति
से निकासी की
शुरूआत
मुद्रास्फीति
में आ रही
तेजी की समस्या
से निपटने के
लिए केंद्रीय बैक
ने 20 अप्रैल को
घोषित 2010-11 की वार्षिक
मौद्रिक नीति में
कई नीतिगत दरों-रेपो
और रिवर्स रेपो
दरों में वृध्दि
कर दी। ऐसा
दो महीनों में
दो बार किया
गया। सी आर
आर में भी
बढ़ोत्तरी की गई
ताकि बैंकिंग प्रणाली
से अतिशेष नकदी
को खींचा जा
सके। रेपो और
रिवर्स रेपो दरों
में 0.25% और सी
आर आर में
भी 0.25% की वृध्दि
की गई है
ताकि बैंकिंग प्रणाली
से एक खरब 25
अरब रुपए निकाले
जा सकें। नीतिगत
दरों में वृध्दि
से ब्याज दरों
में बढ़ोतरी का
संकेत निहित है।
रेपो दर अब 5.25%
होगी, जबकि
रिवर्स रेपो दर 3.76%
रहेगी। अप्रैल 24 से
प्रभावित होने वाला
सीआरआर अब बढ़कर 6%
हो जाएगा। इससे
पूर्व जनवरी में
तिमाही समीक्षा में
केंद्रीय बैंक ने
सी आर आर
में 0.75% की वृध्दि
कर 5.75% कर दिया
था ताकि बैकिंग
प्रणाली से 3 खरब 75
अरब रूपए की
तरलता को सोखा
जा सके।
नीति
की घोषणा के
बाद रिजर्व बैंक
के गवर्नर डॉ.
डी. सुब्बाराव ने
उचित ही कहा
कि वे छोटे-छोटे
कदम उठाना अधिक
पसंद करेंगे। अर्थव्यवस्था
के लिए यहीं
बेहतर है,
क्योंकि नीतिगत दरों
और सी आर
आर में अधिक
वृध्दि से मुद्रास्फीति
में तो कमी
लाई जा सकती
थी, परन्तु
इससे विकास पर
नकारात्मक प्रभाव पड़ता, जबकि अब
इसमें गति पकड़ने
के लक्षण दिखाई
दे रहे हैं।
मुद्रास्फीति
अभी भी चिंता
का विषय
मुद्रास्फीति
निश्चय ही चिंता
का विषय है, क्योंकि खाद्य
पदार्थों की महंगाई
अब अन्य क्षेत्रों
में फैलती जा
रही है। परन्तु
थोड़ी मात्रा में
मुद्रास्फीति
अर्थव्यवस्था
के लिए अच्छी
होती है,
क्योंकि इसका प्रभाव
बहु-आयामी होता
है और एक
प्रकार से अर्थव्यवस्था
को वापस पटरी
पर लाने में
मदद करती है।
डॉ. सुब्बाराव ने
कहा है कि
''सामान्य स्थिति की
बहाली के लिए
अनेक प्रकार के
छोटे-छोटे कदम
उठाना बेहतर होता
है ताकि अर्थव्यवस्था
को संकटपूर्व की
स्थिति की विकास
दर से तालमेल
बिठाने में दिक्कत
न हो।''
इन छोटे-छोटे
कदमों से बैंकों
की ब्याज दरों
(उधार देने की)
पर तुरंत कोई
प्रभाव नहीं पड़ेगा, क्योंकि उनके
पास अभी भी
पर्याप्त नकदी उपलब्ध
है। कर्ज के
लिए मांग अब
धीरे-धीरे बढ़ने
लगी है। डॉ.
सुब्बाराव ने कहा
कि जुलाई के
अंत के पूर्व
वे कोई नीतिगत
कार्रवाई नहीं करना
चाहेंगे। उस समय
तिमाही समीक्षा के
दौरान स्थिति के
अनुसार निर्णय लिया
जाएगा। उनका अनुमान
था कि वर्ष 2010-11
में मुद्रास्फीति 5.5% के
आस-पास रहेगी
और इस वित्त
वर्ष में विकास
दर बढ़कर 8% तक
पहुंच जाएगी। उन्होंने
कहा कि कर्ज
की मांग में
उठान के साथ-साथ
सरकार के कर्ज
लेने के व्यापक
कार्यक्रम को देखते
हुए सरल नीतिगत
स्थिति से बाहर
निकलने के लिए
सोच-समझ कर
धीरे-धीरे कदम
बढ़ाने होंगे। उन्होंने
आशा व्यक्त की
कि इस वर्ष
ऋण की मांग
में 20% की वृध्दि
होगी।
इस
उपाय का समर्थन
करते हुए वित्तमंत्री
श्री प्रणव मुखर्जी
ने इसे संतुलित
और परिपक्व बताया
और कहा कि
ऋण पर मामूली
सख्ती और इस
'सौम्य' नीति
से मुद्रास्फीति की
बढ़ती प्रवृत्ति में
कमी आएगी। उन्होंने
रिजर्व बैंक के
इस आकलन से
असहमति जताई कि
मुद्रास्फीति
इस वर्ष 5.5% के
लगभग रहेगी और
कहा कि समीक्षा
से पता चलता
है कि मुद्रास्फीति
में और भी
कमी आने के
संकेत हैं और
यह 4% के आस-पास
रहेगी।
मुद्रास्फीति में
और गिरावट की
संभावना
रबी तक
जा चुकी है
और अब इसके
नीचे आने का
सिलसिला शुरू होने
के संकेत दिखाई
दे रहे हैं।
मौसम के मोर्चे
पर इस वर्ष
कुछ अप्रिय घटने
की संभावना नहीं
दिखाई देती कि
खाद्यान्न की कीमतें
फिर ऊपर चढ़
सकें। श्री मुखर्जी
ने कहा कि
'अर्थव्यवस्था
में आ रहे
सुधार और स्थिरता
को देखते हुए
मुझे ऐसा प्रतीत
होता है कि
यह 'सामान्य दौर' की वापसी
की ओर इशारा
है। उन्होंने भरोसा
दिलाते हुए कहा
कि चिंता की
कोई बात नहीं
है और कर्ज
में कसावट लाने
से विकास पर
कोई असर नहीं
पड़ेगा। टिकाऊ वस्तुओं
(डयूरेबल गुड्स) के
क्षेत्र का विकास
विशेष रूप से
अप्रभावित रहेगा। वित्त
मंत्री ने रिजर्व
बैंक के मौद्रिक
उपायों पर अपने
विचार व्यक्त करते
हुए कहा कि
'औद्योगिक विकास और
ऋण की मांग
(उठान) की हमारी
समीक्षा से यह
संकेत मिलता है
कि विकास पर
विपरीत प्रभाव पड़ने
की कोई आशंका
नहीं है। वास्तव
में इन नीतियों
से स्थायी विकास
का मार्ग प्रशस्त
होगा।'