फ़िरदौस ख़ान
आज़ादी के छह दशक बाद भी देश में बंधुआ मज़दूरी जारी
है। हालांकि सरकार
ने 1975 में राष्ट्रपति
के एक अध्यादेश
के ज़रिए बंधुआ
मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया
था,मगर इसके बावजूद सिलसिला
आज भी जारी
है। यह कहना ग़लत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते
इसमें इज़ाफ़ा ही हुआ है। सरकार
भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ मज़दूरी जारी
है।
माह श्रम
एवं रोज़गार राज्यमंत्री
हरीश रावत के मुताबिक़ 31 मार्च
तक दो लाख 88 हज़ार 462 बंधुआ मज़दूरों
को मुक्त कराया
जा चुका है और इनके पुनर्वास
के लिए 7015.46 लाख
रुपए मुहैया कराए
गए हैं। इसके अलावा
राज्यों में ज़िलावार
सर्वेक्षण कराने के लिए विभिन्न राज्य
सरकारों को 676 लाख
रुपए भी दिए जा चुके हैं।
उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देशों के अनुरूप
बंधुआ मजदूर प्रणाली
उन्मूलन क़ानून 1976 के क्रियान्वयन की निगरानी के लिए श्रम एवं रोज़गार
सचिव की अध्यक्षता
में एक विशेष
दल भी गठित
किया गया है, जिसकी अब तक क्षेत्रवार 18 बैठकें
भी हो चुकी
हैं। सरकार ने 1980 में ऐलान किया
था कि अब तक एक लाख 20 हज़ार 500 बंधुआ मज़दूरों
को आज़ाद किया
जा चुका है।
श्रम व रोजगार मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में 19 प्रदेशों से 31 मार्च
तक देशभर में दो लाख 86 हज़ार
612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें
मुक्त कराया गया।
नवंबर तक एकमात्र
राज्य उत्तर प्रदेश
के 28 हज़ार 385 में
से केवल 58 बंधुआ
मज़दूरों को पुनर्वासित
किया गया, जबकि 18 राज्यों में से एक भी बंधुआ
मज़दूर को पुनर्वासित
नहीं किया गया।
इस रिपोर्ट
के मुताबिक़ देश में सबसे ज्यादा
तमिलनाडु में 65 हज़ार
573 बंधुआ मज़दूरों की पहचान कर उन्हें
मुक्त कराया गया।
कनार्टक में 63 हज़ार
437 और उड़ीसा में 50 हज़ार 29 बंधुआ मज़दूरों
को मुक्त कराया
गया। रिपोर्ट में यह भी बताया
गया कि 19 राज्यों
को 68 करोड़ 68 लाख
42 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता मुहैया
कराई गई, जिसमें सबसे ज्यादा सहायता
16 करोड़ 61 लाख 66 हज़ार
94 रुपए राजस्थान को दिए गए। इसके
बाद 15 करोड़ 78 लाख
18 हज़ार रुपए कर्नाटक
और नौ कराड़
तीन लाख 34 हज़ार
रुपए उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड
को मुहैया कराई
गई। उत्तर प्रदेश
को पांच लाख 80 हज़ार रुपए की केंद्रीय सहायता दी गई। इसके अलावा
अरुणाचल प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड
को 31 मार्च 2006 तक
बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों
के लिए चार करोड़ 20 लाख रुपए
की राशि दी गई।
श्रम कल्याण, श्रम व रोजगार मंत्रालय
के महानिदेशक अनिल
स्वरूप के मुताबिक़
बंधुआ मजदूरों के पुर्नवास के लिए मुक्त कराने के तुरंत बाद हर श्रमिक को एक हज़ार रुपए की तात्कालिक सहायता और 19 हजार रुपए की पुनर्वास सहायता एवं आवास सुविधाए कृषि
भूमि रोज़गार के साधन उपलब्ध कराने
का प्रावधान है।
राजस्थान के प्रमुख शासन सचिव
श्रम एवं नियोजन
मनोहर कांत के मुताबिक़ प्रदेश में 1976 से 11 हजार 319 बंधुआ
मजदूरों की पहचान
की गई है। इसमें से नौ हजार 112 मुक्त कराए
गए बंधक मजदूरों
का पुनर्वास किया
गया, जबकि 1467 को अन्य दूसरे
राज्य में पुर्नवास
हेतु भिजवाया गया।
कांत ने बताया
कि राज्य में बंधक श्रमिक रखने
वाले नियोजकों के खिलाफ़ 370 चालान पेश किए गए, जिनमें 137 प्रकरण निरस्त, 75 में
जुर्माना, 56 प्रकरणों मे सजा दी गई और 102 प्रकरणों
में दोष मुक्त
किया गया है। उन्होंने बताया कि राजस्थान में भवन एवं अन्य निर्माण
कर्मकार कल्याण अधिनियम
के तहत 50 लाख
रुपए उपकर के रुप में प्राप्त
किए गए हैं तथा 7 हजार 497 श्रमिकों
को लाभांश के रुप में पंजीयन
किया गया है।
जयपुर के सांगानेर में मजदूरी
का काम कर रहे सत्य प्रकाश
ने बताया कि इससे पहले वह अलवर के सागर
ब्रिक्स ईंट भट्ठा
पर काम करता
था, जहां उससे परिवार सहित
बंधुआ मज़दूर के तौर जबरन रखा गया था। भट्ठे
के ठेकेदार उसे न तो पूरी
मज़दूरी देते थे और न ही उसे जाने देते थे। यहां मज़दूरों से 15 से 16 घंटे तक काम कराया जाता
है। इन मज़दूरों
में महिलाएं और बच्चे भी शामिल
हैं। पिछले मई माह में बंधुआ
मुक्ति मोर्चा की शिकायत पर एसडीएम, नायब तहसीलदार और श्रम
निरीक्षक ने राजस्व
स्टाफ के साथ भट्ठे पर छापा
मारकर मज़दूरों को मुक्त कराया। सत्य
प्रकाश के अलावा
कई अन्य मज़दूरों
को मुक्त करवाया
गया। प्रशासन ने उन्हें बकाया भुगतान
के अलावा किराया
भी दिलवाया।
देश में ऐसे ही कितने
भट्ठे व अन्य उद्योग
धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ
बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती
है और मज़दूरी
की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक्त
भी भरपेट रोटी
नसीब नहीं हो पाती। अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता
है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति
मोर्चा जैसे संगठन
मीडिया के ज़रिये
प्रशासन पर दबाव
बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद
टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं। श्रमिक
सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी
सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश
में ईंट भट्ठों
का रुख करते
हैं, मगर यहां भी उन्हें
अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता
है। अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया
जाता।
दरअसल, अंग्रेज़ी शासनकाल में लागू
की गई भूमि
बन्दोबस्त प्रथा ने भारत में बंधुआ
मज़दूर प्रणाली के लिए आधार प्रदान
किया था। इससे
पहले तक ज़मीन
को जोतने वाला
ज़मीन का मालिक
भी होता था। ज़मीन की मिल्कियत
पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं
था.
उन्हें वही मिलता
था जो उनका
वाजिब हक़ बनता
था और यह कुल उपज का एकफ़ीसदीहोता था. हिन्दू शासनकाल
मेंकिसान ही ज़मीन
के स्वामी थे। हालांकि ज़मीन का असली स्वामी राजा
था। फिर भी एक बार जोतने
के लिए तैयार
कर लेने के बाद वह मिल्कियत
किसान के हाथ में चली गई.राजा के आधिराज्य
और किसान के स्वामित्व के बीच किसी भी तरह का कोई विवाद
नहीं था। वक्त
क़े साथ राजा
और राजत्व में परिवर्तन होता रहा, लेकिन किसानों की ज़मीन
की मिल्कियत पर कभी असर नहीं
पड़ा, लेकिन किसानों की ज़मीन
की मिल्कियत पर कभी असर नहीं
पड़ा। राजा और किसान के बीच कोई बिचौलिया भी नहीं था। भूमि
प्रशासन ठीक से चलाने के लिए राजा गांवों में मुखिया नियुक्त करता
था, लेकिन वक्त क़े साथ इसमें बदलाव आता गया और भूमि
के मालिक का दर्जा रखने वाला
किसान महज़ खेतिहर
मज़दूर बनकर रह गया।
कहने को तो देश में बंधुआ
मज़दूरी पर पाबंदी
लग चुकी है, लेकिन हक़ीक़त
यह है कि आज भी यह अमानवीय प्रथा जारी
है। बढ़ते औद्योगिकरण
ने इसे बढ़ावा
दिया है। साथ ही श्रम कानूनों
के लचीलेपन के कारण मजदूरों के शोषण का सिलसिला जारी है। आज़ादी के इतने सालों
बाद भी हमारे
देश में मज़दूरों
की हालत बेहद
दयनीय है। शिक्षित
और जागरूक न होने के कारण
इस तबके की तरफ़ किसी का ध्यान
नहीं गया। सरकार
को चाहिए कि वह श्रम क़ानूनों
का सख्ती से पालन कराए, ताकि मजदूरों को शोषण
से निजात मिल सके। हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि मज़दूर भी इस देश की आबादी का एक अभिन्न अंग हैं और देश के विकास का प्रतीक
बनी गगन चुंबी
इमारतों में उनका
खून-पसीना शामिल होता
है।