फ़िरदौस ख़ान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने अपने हिन्दू राष्ट्र के सपने को साकार करने के लिए अपने सियासी संगठन भारतीय जनता पार्टी को देश की सियासत में स्थापित किया, लेकिन सत्ता की लालसा में इसी भाजपा ने संघ की विचारधारा को किनारे कर दिया, भले ही इसकी वजह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का दबाव ही क्यों न हो। राम जन्मभूमि आंदोलन के लिए देशभर में रथयात्रा निकालने वाले लालकृष्ण आडवाणी को भी यह बात समझ आ गई थी कि अगर उन्हें प्रधानमंत्री बनने के अपने ख्वाब को पूरा करना है तो इसके लिए उन्हें मुस्लिम 'वोट बैंक' की ज़रूरत होगी, जिस पर अभी सेकुलर सियासी दलों का ही क़ब्ज़ा है। इसीलिए मई-जून 2005 की अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान प्रखर हिन्दुत्ववादी आडवाणी ने पाकिस्तान के क़ायदे-आज़म मोहम्म्द अली जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष क़रार देकर 'सेकुलरिज्म' का चोला धारण करने की कोशिश की। मगर यह दांव उल्टा पड़ गया, क्योंकि बाबरी मस्जिद की शहादत के मुख्य आरोपी आडवाणी पर मुसलमानों ने तो भरोसा नहीं किया, लेकिन हिन्दुत्व समर्थक ज़रूर उनसे क्रोधित हो गए। इस मुद्दे पर संघ ने आडवाणी से पार्टी का अध्यक्ष पद छीन लिया।

हाल ही में भारतीय जनगणना को लेकर संघ और भाजपा में मतभेद उभरकर सामने आए। संघ ने जहां जाति आधारित जनगणना की आलोचना की, वहीं भाजपा ने इसे सही ठहराया। इसी तरह समान नागरिक संहिता, हिन्दुत्व, राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण, धारा-370 और मुसलमानों से संबंधित मुद्दों पर संघ और भाजपा के अलग-अलग विचार हैं। संघ जहां हिन्दुत्व की विचारधारा के ज़रिये देश में हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना चाहता है, वहीं भाजपा केवल सत्ता सुख चाहती है, भले ही उसके लिए उसे कोई भी नीति क्यों न अपनानी पड़े। भाजपा को मालूम है कि वे अकेले दम पर केंद्र की सत्ता हासिल नहीं कर सकती। इसके लिए उसने अन्य दलों को साथ लेकर राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन क़ायम किया। मगर राजग के कई घटक दल भाजपा के संघ निर्देशित एजेंडे को स्वीकार नहीं कर पाए, इसलिए भाजपा को लोकसभा चुनाव में अपने हिन्दुत्व के एजेंडे को छोड़ना पड़ा। इसके बावजूद भाजपा चुनाव में बुरी तरह पराजित हुई। इस पर संघ ने नाराज़गी जताते हुए कहा कि हिन्दुत्व की मूल विचारधारा से भटकने की वजह से ही पार्टी की यह दुर्दशा हुई है।

भाजपा में संघ के अत्यधिक हस्तक्षेप की वजह से भाजपा न तो अपने (राजग के) एजेंडे पर चल पा रही है और न ही संघ के। संघ भाजपा को मनचाहे तरीक़े से हांकना चाहता है, लेकिन भाजपा नेता इसके लिए तैयार नहीं है। संघ की अपनी विचारधारा, अपना लक्ष्य और अपनी संस्कृति है। संघ के कार्यकर्ता आज भी कच्छे और डंडे वाले हैं, जबकि भाजपा नेता 'एयरकंडीशन कल्चर' के आदी हैं, जो ज़रा-सी तेज़ धूप में बेहोश होकर गिर जाते हैं।
कहने को तो संघ एक सामाजिक संगठन है, लेकिन इसकी महत्वकांक्षाएं किसी सियासी दल से कम नहीं। संघ भाजपा का मुखौटा लगाकर शासन करना चाहता है। हालत यह है कि भाजपा अपने मुख्यालय 11, अशोक रोड की बजाय नागपुर या झंडेवालान से संचालित होती है। संघ की मर्ज़ी के बिना भाजपा में एक पत्ता तक नहीं हिलता। संघ एक राष्ट्रव्यापी संगठन है और इसकी शाखाएं देशभर में फैली हैं, जिनमें विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिन्दू स्वयंसेवक संघ, स्वदेशी जागरण मंच, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, इंडियन मेडिकोज ऑॅरगेनाइजेशन, भारत विकास परिषद, सेवा भारती, विद्या-भारती, संस्कृत भारती, विज्ञान भारती, भारत विकास परिषद, अंतर्राष्ट्रीय सहयोग परिषद, विश्व संवाद केंद्र, सहकार भारती, अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत परिषद, राष्ट्रीय सिख संगत, वनवासी कल्याण आश्रम, लघु उद्योग भारती, दीनदयाल शोध संस्थान, विवेकानंद केंद्र, बालगोकुलम, राष्ट्रीय सेविका समिति और दुर्गा वाहिनी आदि शामिल हैं। संघ के आदेश पर इन संगठनों के कार्यकर्ता भाजपा के लिए दिन-रात एक किए रहते हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संघ ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए भाजपा को पैदल सिपाहियों की फ़ौज मुहैया कराई। भाजपा आज देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और भाजपा की इस कामयाबी में संघ के क़रीब साढ़े पांच करोड़ स्वयंसेवकों का महत्वपूर्ण योगदान भी शामिल है।

दरअसल, जवाहरलाल नेहरू पर पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव था। मुखर्जी भारतीय विचार से जुड़ा राजनीतिक दल बनाना चाहते थे। उन्होंने संघ के दूसरे सरसंघचालक श्रीगुरुजी से इस बारे में बात की। इस पर श्रीगुरुजी ने दीनदयाल उपाध्याय, सुंदरसिंह भंडारी, कुशाभाऊ ठाकरे और भाई महावीर जैसे स्वयंसेवक जनसंघ को दिए। इस तरह 11 अक्टूबर 1951 को भारतीय जनसंघ का जन्म हुआ और बाद में 6 अप्रैल 1980 को इसे भारतीय जनता पार्टी का नाम मिला। संघ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, अटल बिहारी वाजपेयी, कुशाभाऊ ठाकरे, कैलाशपति मिश्र, सुंदरसिंह भंडारी और जेपी माथुर भाजपा के लिए मील का पत्थर साबित हुए। ये सभी संघ की पाठशाला से राष्ट्रवाद का विचार लेकर सियासत में आए थे। मगर भारतीय राजनीति में आदर्श और सिध्दांत की बात करने वाली भाजपा का चाल, चरित्र और चेहरा भी वक्त क़े साथ बदलता गया। पहले जहां भाजपा में समाजसेवी और निष्ठावान राजनेता थे, वहीं अब ऐसे नेताओं की बड़ी फ़ौज है जो पार्टी हित के बजाय स्वयं हित को प्राथमिकता देते हैैं। इसके चलते पार्टी में गुटबाज़ी, आंतरिक कलह और एक-दूसरे के ख़िलाफ़ षडयंत्र रचे जाने लगे। नतीजतन, पार्टी को जहां पिछले लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा, वहीं राजस्थान की सत्ता भी हाथ से निकल गई।

वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और महासचिव अरुण जेटली की महत्वकांक्षा के चलते पार्टी की ख़ासी किरकिरी हुई। सुधांशु मित्तल को पूर्वोत्तर राज्यों का सहप्रभारी बनाए जाने को लेकर पार्टी के इन दोनों नेताओं के बीच विवाद इतना गहरा गया था कि जेटली ने केंद्रीय चुनाव समिति तक का बहिष्कार कर दिया था। इस विवाद को सुलझाने के लिए भाजपा के वयोवृध्द नेता लालकृष्ण आडवाण्ाी और संघ को भी हस्तक्षेप करना पड़ा।

ग़ौरतलब है कि 1971 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ बुरी तरह पराजित हुई। पार्टी के दिग्गज नेता बलराज मधोक को भी हार का मुंह देखना पड़ा। इसी समय जनसंघ में आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया। अटल और मधोक आमने-सामने हो गए और आख़िरकार बलराज मधोक को जनसंघ से निकाल दिया गया। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी का क़द लगातार बढ़ता गया। जिस किसी ने भी अटल की मुख़ालफ़त की, उसे पार्टी छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। चाहे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह हों या फिर भाजपा के थिंक टैंक रहे गोविन्दाचार्य, जिन्होंने 1999 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में कहा था, ''अटलजी तो भाजपा में मुखौटा भर हैं।'' गोविन्दाचार्य को इस बयान की भारी क़ीमत चुकानी पड़ी थी और उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। अटल और आडवाणी ने बड़ी चालाकी से पार्टी पर वर्चस्व स्थापित कर लिया। अपने-अपने वर्चस्व की यह लड़ाई भाजपा में निरंतर जारी है।

गुजरात में मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और केशुभाई पटेल की आपसी वर्चस्व की लड़ाई ने प्रदेश भाजपा को दो खेमों में बांट दिया था। नरेंद्र मोदी गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल के हटाए जाने के बाद 7 अक्टूबर 2001 में सत्ता पर क़ाबिज़ हुए थे। केशुभाई पटेल 26 जनवरी 2001 में आए भूकंप के बाद क्षेत्र में पुनर्निर्माण और पुनर्वास के कुप्रबंध के आरोप में हटाए गए थे। मोदी ने गुजरात में मुख्यमंत्री पद की कुर्सी संभालते ही प्रदेश की सियासत में ख़ुद को स्थापित कर लिया और 2002 व 2007 के विधानसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल कर अपनी सत्ता बरक़रार रखी। हालांकि गुजरात में लोकसभा चुनाव 2004 व 2009 में भाजपा को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ। नरेंद्र मोदी पहली बार 1989 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के दौरान अपने ज़ोरदार भाषणों के कारण चर्चा में आए थे। वे भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व महासचिव भी रह चुके हैं। मोदी की अपनी एक अलग कार्यशैली है, राज्य में किए गए विकास कार्यों के लिए चर्चित व गुजरात दंगों के लिए कुख्यात नरेंद्र मोदी को वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के दौरान एनडीए के प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवार के तौर पर भी देखा जाने लगा था।
शंकर सिंह वाघेला मामले में भी गुजरात भाजपा की काफ़ी किरकिरी हुई थी। गुजरात भाजपा से विद्रोह के बाद निकाले गए शंकर सिंह वाघेला ने भी पार्टी के लिए मुश्किलें पैदा की थीं। यह संघ का ही कमाल था कि उसने केशुभाई पटेल को शंकर सिंह वाघेला पर भारी साबित कर दिया था। बाद में वाघेला ने कांग्रेस में अपनी सियासी ज़मीन तलाश ली।
उत्तर प्रदेश में कभी राष्ट्रवाद के प्रतीक रहे कल्याण सिंह को आपसी गुटबाज़ी के कारण ही भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी का दामन थामना पड़ा। मगर जब सपा में उनकी दाल नहीं गली तो उन्होंने दूसरी बार इसी साल पांच जनवरी को 'जन क्रांति दल' नाम से अपना अलग संगठन बना लिया। वर्ष 1992 में उनके मुख्यमंत्री काल में ही छह दिसंबर को बाबरी मस्जिद को शहीद कर वहां राम मंदिर बनाने का संकल्प लिया गया था। प्रखर हिन्दुत्ववादी नेता कल्याण सिंह ने पार्टी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी से झगड़ाकर अपनी अलग पार्टी बना ली थी। साथ ही उन्होंने मंदिर मुद्दे से भी ख़ुद को अलग कर लिया था। बाद में सपा में आने पर उन्होंने मस्जिद की शहादत के लिए मुस्लिम समुदाय से माफ़ी भी मांगी थी। हालांकि कल्याण सिंह ने सपा में आकर सेकुलर बनने की भरसक कोशिश की, लेकिन अपनी फ़ितरत के विपरीत की विचारधारा उन्हें रास नहीं आई और शायद इसलिए कल्याण सिंह ने अपने पुराने तेवर अपनाने का फ़ैसला कर लिया। उनके नए दल की विचारधारा प्रखर हिन्दुत्ववाद और प्रखर राष्ट्रवाद रखी गई है।

राम जन्मभूमि आंदोलन की उपज संन्यासिन उमा भारती भाजपा के कद्दावर नेता प्रमोद महाजन, अरुण जेटली और अनंत कुमार की तिगड़ी की ऐसी शिकार बनीं कि पार्टी ने एक जनाधार वाली प्रखर राष्ट्रवादी महिला नेत्री को खो दिया। भाजपा ने अयोध्या के  राम जन्मभूमि आंदोलन के दौरान सांप्रदायिक भाषण देने और फ़ायर ब्रांड नेता के रूप में उमा भारती का ख़ूब इस्तेमाल किया। आंदोलन से प्रचार में आईं उमा भारती सत्ता सुख भोगने की अभिलाषा के चलते हमेशा सियासत में प्रयासरत रहीं। उमा भारती ने 1984 में खजुराहो से अपना पहला संसदीय चुनाव लड़ा, लेकिन कांग्रेस की लहर के चलते उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। मगर 1989 में वे इसी सीट से चुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गईं। इसके बाद 1991, 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी जीत को बरक़रार रखा। वर्ष 1999 के चुनाव में उन्होंने भोपाल से क़िस्मत आज़माई। उमा भारती का सियासी क़द उस वक्त अौर बढ़ गया जब अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में उन्हें जगह मिल गई। उन्हें राज्यमंत्री के तौर पर मानव संसाधन मंत्रालय, पर्यटन मंत्रालय, युवा एवं खेल मामलों की मंत्री और कोयला मंत्रालय में काम करने का मौक़ा मिला। भाजपा ने वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव उमा भारती के नेतृत्व में लड़ा और पार्टी 231 विस सीटों में से 116 सीटें जीतकर सत्ता में आई। उमा भारती दिसंबर 2003 में मध्य प्रदेश की 22वीं मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन कर्नाटक में सांप्रदायिक दंगे भड़काने के आरोप के चलते उन्हें 23 अगस्त 2004 को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। मात्र नौ माह तक ही सत्ता का सुख भोग पाई उमा भारती की सलाह पर भाजपा ने बाबू लाल गौड़ को मुख्यमंत्री बना दिया। बाद में 29 नवंबर 2005 को पार्टी ने बाबू लाल गौड़ से कुर्सी छीनकर शिवराज सिंह चौहान को सत्ता सौंप दी। हालांकि मुख्यमंत्री पद से हटने के कुछ वक्त बाद ही उमा भारती अपने ऊपर पर लगे आरोपों से बरी हो गईं, लेकिन उन्हें वापस उनकी कुर्सी नहीं मिली। इसके लिए उन्होंने 'साम-दाम-दंड-भेद' की नीति तक अपनाई, मगर नतीजा सिफ़र ही रहा। हालत यह हो गई कि उमा भारती ने पार्टी की बैठक के दौरान ही लालकृष्ण आडवाणी और पार्टी अध्यक्ष को खरी-खोटी सुना डाली और बाद में अनुशासनहीनता के चलते 5 दिसंबर 2005 को उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया। भाजपा से विदाई के बाद 30 अप्रैल 2006 को उमा भारती ने 'भारतीय जन शक्ति पार्टी' नाम ने अपना अलग सियासी दल बना लिया। मगर 15वीं लोकसभा के चुनाव में उमा भारती ने एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार लालकृष्ण आडवाणी का खुलकर समर्थन किया। इससे उमा भारती के भाजपा में वापसी के क़यास लगाए जाने लगे, लेकिन हमेशा ही उन्होंने इसे सिरे से ख़ारिज कर दिया।
दिल्ली के मुख्यमंत्री रहे मदनलाल खुराना को गुजरात दंगों के आरोपी मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को हटाने की मांग करना बेहद महंगा पड़ा था। उनका कहना था कि आडवाणी पार्टी 'एयरकंडीशन कल्चर' को बढ़ावा दे रही है। उन्होंने आडवाणी को पत्र लिखकर कहा था कि जिस तरह प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 1984 के सिख विरोधी दंगों के लिए माफ़ी मांग ली और जगदीश टाइटलर को मंत्रिमंडल से हटा दिया, उसी तरह नरेंद्र मोदी को हटाकर भाजपा को इस दाग़ को धो लेना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि गुजरात दंगों के दोषी अभी भी खुले घूम रहे हैं। मोदी ने दंगों को नियंत्रित करने के बजाय उन्हें बढ़ावा दिया। इससे पहले एक पत्र लिखकर खुराना ने आडवाणी के उस बयान की निंदा की थी, जिसमें जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष बताया गया था। खुराना से नाराज़ पार्टी नेतृत्व ने अनुशासनहीनता के आरोप में 20 अगस्त 2005 को उन्हें निलंबित कर दिया। हालांकि वाजपेयी ने इस निलंबन का विरोध किया था। बाद में खुराना ने बग़ावत कर भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी थीं।

राजस्थान की पहली महिला मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया को सियासत विरासत में मिली। उन्होंने अपने बलबूते राजमहल से सियासी गलियारे का सफ़र तय किया। संघ की नीतियों की परवाह न करने वाली वसुंधरा राजे सिंधिया ने हमेशा अपने महारानी के अहं को बरक़रार रखा। इसके चलते वे कभी आम जनता के बीच नहीं गईं और नतीजन गुर्जर आंदोलन जैसे मुद्दों पर वे लगातार नाकाम साबित हुईं। अगर वे जन मानस के बीच रहतीं तो शायद भाजपा का कमल राजस्थान में इतनी बुरी तरह न मुरझाता। वसुंधरा राजे सिंधिया की अकर्मण्यता और एक महारानी के अहंकार का ख़ामियाज़ा भाजपा को सत्ता गंवाकर भुगतना पड़ा। सियासी गलियारों में तो यह भी चर्चा रही कि महारानी को कभी भी प्रदेश की जनता से कोई सरोकार नहीं रहा। यह तो अटल बिहारी वाजपेयी की इनायत की वजह से उन्हें मुख्यमंत्री का ताज मिल गया। पार्टी कार्यकर्ताओं को तो इस बात का मलाल रहा कि प्रदेश में उनकी पार्टी सत्ता की होने के बावजूद उन्हें अपने सरकारी कार्यों के लिए दर-दर भटकना पड़ा, जबकि कांग्रेसियों के काम बेरोक-टोक होते रहे। कहा तो यह भी गया कि कलराज मिश्र जैसे काग़ज़ी नेता को सिर्फ़ इसलिए ही राजस्थान का प्रभारी बनाया गया, ताकि महारानी की शान में कोई गुस्ताख़ी न हो। हालांकि पूर्व विदेश मंत्री व भाजपा के वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह ने महारानी के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया। इसी तरह राजस्थान में विपक्ष की नेता पद से इस्तीफ़ा दिए जाने के मुद्दे पर भी महारानी और भाजपा में जमकर घमासान हुआ। संघ के चहेते भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने वसुंधरा राजे सिंधिया से विपक्ष के नेता के पद से इस्तीफ़ा देने को कहा था, लेकिन उन्होंने इसे मानने से साफ़ इंकार कर दिया। इस मुद्दे पर भी भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व दो ख़ेमों में बंटा नज़र आया।

पार्टी की आंतरिक कलह किसी से छुपी नहीं है। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का पार्टी को छोड़कर जाना, पार्टी के ख़िलाफ़ जमकर बयानबाज़ी करना और फिर कुछ वक्त बाद वापस पार्टी में आ जाना कोई नई बात नहीं है। हाल ही में जसवंत सिंह ने भाजपा में वापसी की है। भारतीय सेना में अधिकारी रहे जसवंत सिंह की 19 अगस्त 2009 में भारत विभाजन पर आई किताब 'जिन्ना इंडिया, पार्टिशन, इंडेंपेंडेंस' में जवाहर लाल नेहरू व सरदार पटेल की आलोचना व जिन्ना की प्रशंसा से भाजपा में मचे बवाल की वजह से उन्हें पार्टी से निलंबित कर दिया गया। अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री काल में वित्त मंत्री व विदेश मंत्री रहे जसवंत सिंह संघ की विचारधारा के विपरीत ख़ुद को उदारवादी मानते रहे हैं। क़ाबिले-ग़ौर है कि संघ सरदार पटेल को सम्मान की नज़र से देखता है और जिन्ना प्रकरण पर पहले भी आडवाणी और संघ परिवार के रिश्तों में तल्ख़ियां उभरकर सामने आ चुकी हैं।
इसी तरह अरुण शौरी भी बाग़ी तेवर के नेता हैं। संघ अंबेडकर को सामाजिक समरसता का प्रतीक मानता है, जबकि शौरी अंबेडकर के ख़िलाफ़ मोर्चा खोले रहते हैं। भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता व राज्यसभा सदस्य राजीव प्रताप रूडी और लालकृष्ण आडवाणी के क़रीबी माने जाने वाले शाहनवाज़ हुसैन की भी संघ की विचारधारा से अलग अपनी कार्यशैली है। आडवाणी के आशीर्वाद से ही शाहनवाज़ को अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमंडल में केंद्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री का पद मिला था। वे भाजपा में मुस्लिम मुखौटा मात्र ही हैं। नितिन गडकरी की टीम में वे अपने लिए महासचिव पद चाहते थे, लेकिन उन्हें प्रवक्ता पद सौंपा गया। क़ाबिले-ग़ौर है कि गडकरी की टीम में संघ की ख़ूब चली थी। मामला चाहे विनय कटियार का हो या फिर उग्र हिन्दुत्व के पुरोधा बनकर उभरे वरुण गांधी का।

अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में विदेश मंत्री व वित्त मंत्री रहे यशवंत सिन्हा ने 2009 के लोकसभा चुनाव में एनडीए की पराजय के बाद पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह को एक पत्र लिखकर हार के लिए नेताओं की ज़िम्मेदारी तय करने की बात कही थी। साथ ही उन्होंने पार्टी के संगठनात्मक ढांचे में बदलाव की भी मांग की थी। उन्होंने पत्र में यह भी लिखा था कि पार्टी की हार के लिए ज़िम्मेदार नेताओं को इनाम दिया जा रहा है। उनका इशारा अरुण जेटली को राज्यसभा में विपक्ष का नेता और सुषमा स्वराज को लोकसभा में पार्टी की उपनेता बनाए जाने को लेकर था। इससे पहले वे पार्टी की हार के लिए मुरली मनोहर जोशी, अरुण शौरी और जसवंत सिंह को ज़िम्मेदार ठहराते रहे हैं।

इस पत्र के मीडिया में लीक हो जाने से पार्टी में काफ़ी बवाल मचा। राजनाथ सिंह ने कहा था कि लोकसभा चुनाव में हार की ज़िम्मेदारी सबकी है और किसी तरह की अनुशासनहीनता को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। बाद में यशवंत सिन्हा के राजनाथ को भेजे गए इस्तीफ़े की ख़बर भी मीडिया में आ जाने के बाद राजनाथ ने यशवंत को कड़ी चेतावनी देते हुए उनका त्याग-पत्र मंज़ूर कर लिया था। माना जाता है कि यशवंत सिन्हा संसदीय दल में हुई नियुक्तियों को लेकर पार्टी से नाराज़ चल रहे थे। ख़ास बात भी है कि ये सभी नियुक्तियां लोकसभा में पार्टी के संसदीय दल के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने की थीं।

राजग कार्यकाल के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और संघ के बीच मतभेद उभरकर सामने आए। संघ नेतृत्व राजग के हिन्दुत्व एजेंडे की अनदेखी करने और उसके उदारवादी चेहरे से बौखलाया हुआ था। ऐसे में जब राजग सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण के अनुकूल इंडियन पेंटेंट एक्ट में संशोधन की कोशिश की तो संघ ने इसका विरोध करते हुए कड़ी चेतावनी दी कि अगर सरकार यह विधेयक लाई तो पार्टी के 60 सांसद इसका विरोध करेंगे। इस पर राजग सरकार ने कड़ा रुख़ अख्तियार करते हुए जवाब दिया कि विधेयक तो आएगा ही अगर संघ में दम हो तो वे सरकार गिराकर दिखाए। इस बात पर संघ इस मुद्दे से पीछे हट गया। सरकार के इस फ़ैसले में आडवाणी गुट ने अहम किरदार अदा किया। क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि संघ परिवार से मतभेद होने के बावजूद वाजपेयी ने कभी पार्टी से अपना अलग गुट नहीं बनाया। संघ ने जब भी किसी को पार्टी अध्यक्ष पद पर आसीन किया तो उन्होंने हमेशा उसको अपना पूरा सहयोग दिया। मगर आडवाणी ऐसा नहीं कर सके। आडवाणी ने पार्टी में अपनी पकड़ मज़बूत बनाए रखने के लिए गुटीय राजनीति को बढ़ावा दिया।

जब आडवाणी जिन्ना प्रकरण में उलझे तो संघ ने उन पर पलटवार किया। इस दौरान संघ और आडवाणी के रिश्तों में कुछ तल्ख़ी आ गई थी। तब आडवाणी ने अपना पद छोड़कर अपने विश्वस्त वेंकैया नायडू को अध्यक्ष पद पर आसीन कर संचालन अपने हाथ में रखने की कोशिश की, लेकिन संघ ने राजनाथ सिंह को पार्टी का अध्यक्ष मनोनीत कर आडवाणी के मंसूबों पर पानी फेर दिया। मगर आडवाणी की तिकड़ी वेंकैया नायडू, अनंत कुमार और अरुण जेटली ने कभी भी राजनाथ सिंह को अध्यक्ष स्वीकार नहीं किया। वर्ष 2004 और 2009 के लोकसभा चुनाव का संचालन लालकृष्ण आडवाणी के हाथ में था। 2004 में भाजपा का वार रूम प्रमोद महाजन के निवास पर बनाया गया था, लेकिन जब इस चुनाव में भाजपा की हार हुई तो प्रमोद महाजन ने इसकी ज़िम्मेदारी ली। वर्ष 2009 के आम चुनाव का संचालन भाजपा के मुख्यालय से न होकर अनंत कुमार के निवास पर बने आडवाणी के वार रूम से हुआ। इस वार रूम में संघ और भाजपा नेताओं के अलावा कार्यकर्ताओं के आने पर पाबंदी थी। इस चुनाव में भाजपा ने करारी शिकस्त का सामना किया। ख़ास बात यह रही कि चुनाव समिति का काम देख रहे अरुण जेटली को इनाम भी दिया गया। इतना ही नहीं वार रूम में महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी निभा रहे सुधींद्र कुलकर्णी ने हार का ठीकरा संघ के सिर फोड़ दिया। इसके बावजूद वे आडवाणी की टीम में बने रहे। आडवाणी का ही गुट था जिसने लोकसभा चुनाव में हार के बाद संघ पर आरोप लगाया कि चुनाव के दौरान संगठन का कोई सहयोग नहीं मिला और ऐसे में आडवाणी अकेले पड़ गए थे। इस मुद्दे पर संघ परिवार और आडवाणी में मतभेद उभरकर सामने आए थे। बाद में आडवाणी और संघ के बीच की तल्ख़ियों को दूर करने की कोशिश की गई।

बहरहाल, ऐसा लगता है कि दीनदयाल उपाध्याय और कुशाभाऊ ठाकरे की भाजपा अब लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और राजनाथ सिंह के ख़ेमों में बंट चुकी है। भाजपा के मातृ संगठन आरएसएस ने कभी कल्पना नहीं की होगी कि उनका राजनीतिक दल भी दूसरी सियासी पार्टियों जैसा हो जाएगा।

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