हृदयनारायण दीक्षित
शिव सत्य हैं, सुन्दरतम् हैं। वे देवाधिदेव महादेव हैं, वे रुद्र हैं। वे परम हैं, लेकिन भोलेशंकर भी हैं। शिव हिन्दू दर्शन की निराली अनुभूति है। शिव अधिकांश विश्व के उपास्य हैं और समूची हिन्दूभूमि की आस्था हैं। विश्व के प्राचीनतम् ज्ञान अभिलेख ऋग्वेद में उनका उल्लेख 75 बार हुआ है। ऋषि वशिष्ठ के देखे मन्त्र (ऋ0 7.59.12) में वे त्रयम्बक – तीन मुख वाले देव हैं। यही पूरा मंत्र-त्रयम्बक यजामहे सुगंधिं पुष्टिवर्ध्दनम्, उर्वारुकमिव बंधनानर््मृत्योमुक्षीय मामृतात् महामृत्युञजय मंत्र के नाम से दुनिया में चर्चित है। प्रार्थना है कि हम तीन मुख वाले सुरभित, कीर्तिवर्ध्दक जगत् पोषक, संरक्षणकर्ता की उपासना करते हैं, वे देव हमें ककड़ी-खरबूजा की तरह मृत्यु बंधन से मुक्ति दें, अमरत्व दें। रुद्र ही शिव हैं, शिव ही रुद्र भी हैं- स्तोमं वो अद्य रुद्राय येमि शिवः स्ववां।(ऋ010.92.9) वे जब कर्म फल के कारण रुलाते हैं तो रुद्र जब अनुकम्पा करते हैं तो शिव लोक मंगल के दाता हैं। वशिष्ठ की प्रार्थना है कि हे भरतजनो! शस्त्रधारी क्षिप्रवाण संधानक, अजेय रुद्र की स्तुतियाँ करें। (7.46.1) मार्क्सवादी चिन्तक डॉ. रामविलास शर्मा ने पश्चिम एशिया और ऋग्वेद (पृ0 181-82) में रुद्र उपासना को समूची पश्चिम एशिया में व्यापक बताया है। पिचार्ड के चित्रग्रन्थ में लगभग दूसरी सहस्त्राब्दि ईसापूर्व की एक सीरियायी मुद्रा में वे हाथ में परशु लिए मौसम के देवता हैं। 11वीं सदी ई0 पूर्व के एक भग्न ईराकी स्तम्भ में वे सूर्य बिम्ब के नीचे परशु लिए अंकित हैं। वे हित्तियों के विशेष देवता थे ही। डॉ. शर्मा का निष्कर्ष है कि भारतीय देव प्रतीक ही दुनिया के अन्य देशों तक पहुंचा है।
भारत का लोक जीवन शिव अभीप्सु है। शिव और लोकमंगल पर्यायवाची हैं। हिन्दू अनुभूति में ब्रह्म, विष्णु और महेश की त्रयी है। लेकिन ब्रह्म और विष्णु भी शिव उपासक थे। वायु पुराण 55वें अध्याय के अनुसार राजा बलि को जीतने के बाद विष्णु ने देवों से कहा, जो स्रष्टा है, काल के भी काल हैं जिसने ब्रह्म के साथ मिलकर संसार रचा है, उन्हीं के प्रसाद से यह विजय मिली है। विष्णु ने एक वृत्तांत सुनाया, पहले सब तरफ महा अंधकार था। सब कुछ विष्णु में समाहित था। दूर एक दिव्य पुरुष सहस्रों सूर्यों की आभा से चमक रहे थे। वे ब्रह्म जी थे। दोनों में र्वात्ता चली कि उत्तर दिशा में एक महाज्योति उगी। ब्रह्म उस ज्योति का छोर देखने ऊपर और विष्णु नीचे चले। वे एक हजार वर्ष तक चले किन्तु अन्त नहीं मिला। न ब्रह्म को न विष्णु को। उन्होनें आराधना की, शिव प्रकट हुए। महाभारत के कर्ण पर्व में एक मजेदार कथा है। तारकासुर के पुत्रों ने तपस्या करके ब्रह्म से अति सुरक्षित देवो दानवों से अबध्य नगराकार विमान पाया। इन्द्र भी उस पुर को नहीं वेध सके। श्रीकृष्ण ने इन्द्र को बताया महादेव ही इन पुरों को वेध सकते हैं। ब्रह्मा सहित सभी देव शिव के पास पहुचें। शिव ने असुरों को मारने का वचन दिया पर शस्त्र देवों से मांगे। विष्णु, चन्द्रमा और अग्नि को वाण बनाया, पृथ्वी रथ बनी, मन्दराचल धुरी बना। आदि। ऋग्वेद आदि वेद व पुराण आगे-आगे चलने वाले सैनिक बने। अथर्वा अंगिरा पहियों के रक्षक बने। शिव ने असुरों का पुर मार गिराया।
महाभारत की इस कथा में आधुनिक समाज के लिए खूबसूरत प्रबोधन है। शिव महाकाल हैं वे किसी को भी मार सकते थे। फिर ब्रह्म इन्द्र आदि शक्तिशाली देवता भी हैं लेकिन शिव सबको साथ लेकर चलते हैं वे प्रकृति की तमाम शक्तियों, पृथ्वी आदि को उपकरण बनाते हैं। रथ के आगे-आगे वेदों का चलना ध्यान देने योग्य है। राष्ट्र जीवन के संचालन में आदर्श और सिध्दांत की महत्ता है। वेद यहां आदर्श का प्रतीक हैं। अथर्वा अंगिरा द्वारा शिव के रथ चक्र की देखभाल करने का मूल अर्थ है कि हम आचार्यों के मार्गदर्शन में ही अपना जीवन चक्र चलाए। वेद, पुराण और महाभारत कपोल कल्पित कविता नहीं हैं। इनमें इतिहास और विज्ञान के तथ्य हैं। उपनिषद् दर्शन ग्रन्थ है। रुद्र शिव श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी हैं – एको रुद्र द्वितीयो नास्ति। यजुर्वेद का 16वां अध्याय रूद्र उपासना पर है। ऋषि, रुद्र का निवास पर्वत की गुहा मे बताते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं। चौथे मंत्र में वे रुद्र ‘शिवेन वचसा’ है, शिव हैं। पांचवें में वे प्रमुख प्रवक्ता, प्रथम पूज्य हैं। वे नीलकण्ठ ‘नमस्ते अस्तु नीलग्रीवाय’ हैं। (मंत्र फिर वे सभारूप हैं, सभापति भी हैं। (मंत्र 24) सेना और सेनापति भी (मंत्र 25) वे सृष्टि रचना के आदि मे प्रथम पूर्वज हैं और वर्तमान में भी विद्यमान हैं। वे ग्राम गली में विद्यमान हैं, राजमार्ग में भी। वे पोखर, कूप और नदी मे भी उपस्थित हैं। वायु प्रवाह, प्रलय, वास्तु, सूर्य, चन्द्र मे भी वे उपस्थित हैं। (मंत्र 37-39) मंत्र 49 में वे रुद्र फिर शिव ‘या ते रुद्रशिवा’ हैं। मंत्र 51 में वे इष्टफल दायक ‘शिवतम शिवोः’ हैं। वे ऋग्वेद में हैं, वे यजुर्वेद में हैं। एक जैसे हैं। रूद्र शिव हैं, शिव रूद्र हैं। ‘श्यम्वकं यजामहे’ ऋग्वेद में है, यजुर्वेद में भी (3.58) हैं। रामायण और महाभारत काल में है। उनके नाम पर ‘शिव पुराण’ अलग से उपलब्ध है। रुद्र शिव ऋग्वैदिक काल की और भारत की ही देव प्रतीति हैं। वे सम्पूर्ण अस्तित्व की विराट ऊर्जा का प्रतीक हैं। ठीक वैसे ही जैसे अदिति, अज, पुरुष आदि वैदिक देव प्रतीक हैं। पुराण कथाओं और भारत के लोकजीवन में वे शिव, रुद्र भोले शंकर भी हैं। वे ब्रह्म विष्णु और महेश की देवत्रयी में एक विशिष्ट देव हैं।
प्राचीन भारतीय वाड्.मय शिव उपासना से भरापूरा है। रामेश्वरम् श्रीराम की शिव उपासना का तीर्थ है। श्रीकृष्ण की शिव उपासना की कथायें महाभारत में हैं। अनुशासन पर्व में भीष्म पितामह ने अर्जुन को बताया कि रुद्र भक्ति के कारण ही श्रीकृष्ण विश्वव्यापी हैं। श्रीकृष्ण की एक पत्नी जामवंती पुत्रहीन थी। उन्होंने पुत्र प्राप्ति की इच्छा से शिव आराधना की थी। एक शिव भक्त उपमन्यु ने उन्हें बताया कि हिरण्यकश्यप और उसके पुत्र ने शिव कृपा प्राप्त की। विष्णु और इन्द्र भी उसके पुत्र को नहीं हरा पाये। श्रीकृष्ण ने शिव आराधना की। श्रीकृष्ण ने उपमन्यु को बताया कि शिव प्रकट हुए मुझे सहस्रों सूर्यों का तेज और तेज के भीतर शिवदर्शन हुए। मैंने देखा कि 12 आदित्य 8 वसु विष्णु और अश्विनी कुमार आदि देवता भी शिव आराधनरत हैं। पृथ्वी, अंतरिक्ष, नक्षत्र, ग्रह, मास, ऋतु, रात्रि, सम्वत्सर और सभी विद्याएं शिव उपासना कर रही थीं। दरअसल ब्रह्माण्ड तेज रूप ऊर्जा रूप है। प्रकृति की बाकी शक्तियां उसी की परिक्रमा करती हैं। विज्ञान उन्हें भिन्न नाम देता है। पूर्वजों ने उन्हें आदित्य, वसु वगैरह कहा है। पृथ्वी, अंतरिक्ष और काल भी इसी का हिस्सा हैं। इसे कोई भी नाम दें, लेकिन शिव कहना आह्लादकारी है। शिव हमारी कल्याण अभीप्सा हैं।
शिव उपासना भारत की सनातन प्रीति है। धर्मशास्त्र में शिवो भूत्वा शिवं यजेत्-शिवमय होकर शिव की आराधना की बात है। ओ3म् शिव की ध्वनि हर समय अमंगलहारी है। लेकिन सावन माह शिव उपासना की प्रीतिकर मुहूर्त है। कृषि प्रधान देश में सावन झमाझम वर्षा की पुलक है। धरती उमंग में होती है, हरीतिम परिधान धारण करती है। कीट, पतिंग, पशु, पक्षी, वन, उपवन और घास के तिनके भी नृत्यमगन होते हैं। आनंद का अमृत घट उफनाता है। शिव नृत्य और आनंद के भी देवता हैं। त्रिनेत्रधारी हैं। काम विजेता हैं। आनंद, उमंग और नृत्य के इस माह में बोल बम, हर हर महादेव और ओम् नमः शिवाय की अनुगूंज अवनि अंबर तक पहुंचती है। जैसे श्रीकृष्ण को मार्गशीर्ष-अगहन का महीना प्रिय है, वैसे ही शिव को सावन। शिवार्चन-नीराजन और उपासन परिपूर्ण आश्वस्तिदायी है। भारत का मन शिव और माता पार्वती में रमता है। शिव प्राचीन गणों के देवता हैं। यहां कोई आरक्षण नहीं है। शिव सबके हैं। सब शिव के हैं। भारत का मन समरस शिव अनुभूति से ही सर्वसमावेशी बना है। शिव उपासना में लिंग पूजा को नासमझ लोग प्रजनन अंग बताते हैं। संस्कृत में प्रजनन अंग के लिए शिश्न शब्द आया है लेकिन लिंग का अर्थ प्रतीक है। वायु संहिता में कहते हैं अव्यक्त से तीन गुण वाली प्रकृति व्यक्त होती है। फिर उसी में लीन हो जाती है। सृष्टि के इस कारण को लिंग कहते हैं – अव्यक्तं लिंगामख्यातं। शिव प्रलयंकर हैं। सारी सृष्टि उन्हीं में समाती है। स्कन्दपुराण में लिंग को सृष्टिलय का प्रतीक बताया है। संपूर्ण सृष्टि का रूप दर्शन कठिन है। लिंग मूर्ति है, दृश्य है, प्रकट है इसीलिए उपासना में प्रतीक है। न्याय शास्त्र में लीनम् अर्थंगमयति – गूढ़ अर्थ बताने वाले को लिंग कहते हैं। पुनर्जन्म सिध्दांत में भी लिंग शरीर आया है। प्रत्यक्ष शरीर मृत्यु के बाद नष्ट होता है। सूक्ष्म शरीर लिंग है। यही आगे की यात्रा पर जाता है। शिवलिंग सम्पूर्ण दृश्य अदृश्य की मूर्ति है। मूर्ति का उपासना में प्रयोग है। वैसे कण-कण शिवशंकर प्रलयंकर है। उन्हें कोटि-कोटि नमस्कार है।
(लेखक उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रह चुके हैं)


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