एम.के. धर्मराजा
कृतज्ञ राष्ट्र पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के जन्म दिवस की
वर्षगांठ पर 19 नवंबर को उन्हें श्रद्धांजलि देता है। जन्म के समय उनका नाम
प्रियदर्शनी रखा गया क्योंकि उनका स्वभाव बहुत खुशमिजाज था। श्रीमती गांधी ने
अपने नाम के अनुरूप ही काम किया और जहां भी उनके कदम पड़े उनका दुर्लभ करिश्मा
माहौल में अपनी चमक फैलाता गया।
अत्यधिक समृद्ध परिवार में जन्मीं
इंदिरा का पालन-पोषण आज़ादी के संघर्ष की पृष्ठभूमि में हुआ। वे वन्देमातरम
जैसे देशभक्ति के गीत सुनकर बड़ी हुईं।
श्रीमती इंदिरा गांधी बहुमुखी और
बहुआयामी प्रकृति की धनी थी। 1982 में एशियाई खेलों के आयोजन के समय इसका पता
चला। वक्त ने कुछ ऐसी करवट बदली कि इनके आयोजन की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ
गई। उन्होंने यह चुनौती स्वीकार की और अपनी टीम की मदद से खेल जगत के समक्ष यह
सिद्ध कर दिया कि भारत एशियाई खेलों का आयोजन कर सकता है। काम शुरू होने के समय
खजाने में एक नया पैसा उपलब्ध नहीं था लेकिन इंदिराजी ने तो जैसे जादू कर दिया
और खेलों के लिए जादुई कालीन बिछा दी तथा स्टेडियम तैयार कर दिए गए। यह खेल
शानदार ढंग से कामयाब रहे।
एशियाई खेलों से भारत को खूब शौहरत मिली।
प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश की राजधानी को अत्याधुनिक स्टेडियम प्रदान
किए। अंतर्राष्ट्रीय ओलिम्पिक परिषद के अध्यक्ष समारांच सर्वोच्च सम्मान
गोल्ड ऑर्डर देने के लिए स्वयं दिल्ली आए। वे विशेषरूप से भारत की
प्रधानमंत्री को विश्व खेलों का ब्लू रिबन प्रदान करने आए थे। श्रीमती गांधी को
भारतीय खेलों की संरक्षक संत की संज्ञा दी गई।
मुझे विभिन्न
स्टेडियमों का दौरा करने और दिन के आखिर में समाचारों के जरिए खेलों की
विश्व छवि प्रस्तुत करने का काम सौंपा गया था। राष्ट्र के खेलों के प्रति
इंदिराजी का प्रेम और अच्छे खेल का प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों के कल्याण
की फिक्र के कारण मुझे अत्यंत उत्कृष्ट नेता से बात करने का सौभाग्य मिला।
इंदिराजी की शासनकला के करिश्माई रूप को विश्व नेताओं के साथ उनके
संबंधों से भी देखा गया। उनकी शांत करने वाली स्पष्टवादिता से गलतफहमी की सारी
धुंध छंट गई।
अमरीकी राष्ट्रपति श्री रीगन उनके वाशिंगटन दौरे से ही
इंदिरा गांधी के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध रखते थे। अंतर्राष्ट्रीय संकट के दौरान
उन्होंने शान से अपना परामर्श दिया। ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ और
प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर उनकी शासनकला का बखान करती थी। उन्होंने किसी भी गुट
का पक्ष लिए बिना वैश्विक मसलों पर भारत का स्वतंत्र दृष्टिकोण पेश किया।
भारत न तो पूर्व के खिलाफ है और न ही पूर्व का समर्थक है, हम सिर्फ भारत समर्थक
हैं, यही उनका मूल मंत्र था।
विदेश नीति इंदिरा गांधी की महानतम
संपत्ति थी। उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में अपना महत्वपूर्ण मुकाम बनाए
रखा। वर्ष 1983 में उन्होंने इतिहास के सबसे बड़े अर्थात एक सौ एक देशों के
निर्गुट आंदोलन का नेतृत्व किया। भारत ने उस समय निर्गुट आंदोलन के सम्मेलन का
आयोजन किया जो शांति, निरस्त्रीकरण और विकास में देश की भूमिका की कूटनीतिक
विजय का प्रतीक है।
मुझे महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रधानमंत्री से निसंकोच
मिलने का मौका मिला। मुझे 1967 में उनकी श्रीलंका यात्रा याद आती है। उस समय
श्रीलंका के प्रधानमंत्री एस. डब्ल्यू. आर. भंडारनायके की हत्या की गई थी। शाही
मेहमान की टीम के सदस्य के रूप में मुझे टेपरिकार्डर के बिना उनसे बात करने का
मौका मिला। रतमालना अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर उन्होंने कहा, “ श्रीलंका की
यह मेरी दूसरी यात्रा है जहां मैं पहली बार बचपन में अपने पिता के साथ आई थी। यह
बहुत आश्चर्यजनक अहसास है।"
भारतीय प्रधानमंत्री की एक सप्ताह की यात्रा
के दौरान मैं प्राय: हमेशा उनके साथ रहा। उनकी खूबसूरत कैंडी यात्रा तो आंखें खोलने
वाली थी । विशाल जनसमूह के समक्ष एक घंटे तक इंदिरा गांधी के संबोधन की प्रशंसा
में बार-बार करतल ध्वनि गूंजी। “मनोहर द्वीप, मनोहर लोग” जैसे उनके जादुई शब्द
सिंहलियों को प्रेरित कर रहे थे।
कैंडी से लौटते हुए, होरागोल्ला में
श्रीमती गांधी श्रीलंका की संसद में विपक्षी नेता श्रीमती सिरिमाओ भंडारनायके की
मेहमान थी। उनकी बड़ी बेटी सुनेत्रा इस अवसर पर ऑक्सफोर्ड से आई थी। युवा
चन्द्रिका मिनि स्कर्ट में खड़ी थी। उस समय किसने सोचा होगा कि ओसबोर्ने में
पढ़ी चन्द्रिका कुमारतुंगे भाग्य की मेहरबानी से एक दिन श्रीलंका की
शक्तिशाली कार्यकारी राष्ट्रपति बनेंगी।
श्रीमती इंदिरा गांधी के
नेतृत्व में घटनाप्रधान वर्षों के दौरान भारत ने अर्थव्यवस्था की नई बुलंदी
हासिल की, हमारा समाज आर्थिक और प्रौद्योगिकीय तरक्की की ओर तेजी से अग्रसर हुआ।
राष्ट्र एक महीने से भी कम समय में विशेषरूप से स्मरण करता है। उनकी
बलिदान तिथि 31 अक्तूबर को मनाई जाती है तथा जन्म की वर्षगांठ 19 नवंबर को
होती है।
श्रीमती गांधी की मृत्यु का दुखद समाचार जैसे ही फैला दुनिया ने
आदर से अपना सर झुका दिया। दुनिया के मीडिया में शोक संदेशों की तो जैसे बाढ़ सी
आ गई थी। युग की असाधारण राजनीतिज्ञ के रूप में उनकी सर्वश्रेष्ठता का
श्रद्धांजलि के रूप में स्तुतिगान किया गया।
इंदिरा गांधी के
महत्वपूर्ण कार्यों और भाषणों का करीबी साक्षी के रूप में यह लेखक उस ऐतिहासिक
दिन से बहुत प्रभावित हुआ था जब सुदूर पश्चिमी भूभाग से शासित होने वाले
बांग्लादेश को आजाद कराया गया। लोक सभा प्रेस गैलरी से प्रधानमंत्री को बयान देते
देखना बहुत सुखद था। उन्होंने सदन को सूचित किया, “ पश्चिमी पाकिस्तान की
सेना ने बांग्लादेश में बिना शर्त समर्पण कर दिया है। समर्पण के दस्तावेज पर
ढाका में आज भारतीय समय 1631 पर पाकिस्तान की पूर्वी कमान की ओर से लेफ्टिनेंट
जनरल ए.ए. नियाज़ी ने हस्ताक्षर किए। पूर्वी थियेटर में भारतीय और बांग्लादेश
की सेना के जीओसी-इन-सी लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने समर्पण स्वीकार
किया। ढाका अब आजाद देश की आजाद राजधानी है।“ प्रत्येक वाक्य जय-जयकार से गूंज
रहा था। “ सभी राष्ट्र जो मानव भावना की कद्र करते हैं वे इस बात को मानेंगे कि
यह स्वतंत्रता के लिए मनुष्य की इच्छा की दिशा में मील का पत्थर है। ”
इंदिरा गांधी ने खुशी से कहा कि बांग्लादेश को आजाद कराने वाले सैनिकों
से भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि झलकती है। एसएचएफजे मानेकशा पारसी, जनरल अरोड़ा
सिक्ख और ढाका में प्रवेश करने वाले कमांडर जैको यहूदी हैं। इन सब ने पारसी के
साथ शादी करने वाली इंदिरा गांधी के साथ काम किया। उनसे विभिन्न आस्थाओं के
सह-अस्तित्व के जीवन के हिंदू तरीके की झलक मिलती है।
यही इंदिरा
गांधी का करिश्माई आकर्षण था जिसने समय की रेत पर अमिट छाप छोड़ी।