दिलीप घोष
चन्द्रमा पर पानी की खोज का श्रेय हाल तक भारत के अंतरिक्ष यान-चन्द्रयान पर ले जाए गए नासा के एक ऐसे खनिज विज्ञानी यंत्र को दिया जाता है, जिसे मून मिनरलॉजी मैपर यानी एम-3 कहा जाता है । यह दावा किया गया था कि 14 नवम्बर, 2008 को इस यंत्र ने चन्द्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में पानी की खोज उस समय की थी, जब अंतरिक्ष यान पृथ्वी के प्राकृतिक उपग्रह का 100 किलोमीटर की गोलाकार परिधि में चक्कर लगा रहा था । एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम में इस गलती को अमेरिका की खगोलशास्त्रीय संस्था–अमेरिकन ऐस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी ने 12 फरवरी, 2011 को दुरूस्त कर दिया है । सोसायटी के अनुसार नासा के हब्बल स्पेस टेलिस्कोप (हब्बल अंतरिक्ष दूरबीन एचएसटी) ने इस बात की पुष्टि कर दी है कि चन्द्रमा पर पानी की खोज चन्द्रयान पर ले जाए गए भारत निर्मित यंत्र मून इम्पैक्ट प्रोब (एमआईपी) ने की थी । बॉक्स के आकार के 34 किलोभार के एमआईपी में चन्द्रा ऐल्टिट्यूडनल कम्पोजीशन एक्सप्लोरर को ले जाया गया था जिसमें तीन उपकरण वीडियो इमेजिंग उपकरण, रडार आल्टीमीटर और एक मास स्पेक्ट्रोमीटर लगे हुए थे । वीडियो इमेजिंग उपकरण को एमआईपी के चन्द्रमा के निकट पहुंचते ही उसकी सतह का चित्र लेने के लिये ले जाया गया था जबकि रडार आल्टीमीटर का उपयोग चन्द्रमा की सतह पर प्रोब के उतरने की दर को मापने के लिये किया जाना था । मास स्पेक्ट्रोमीटर चन्द्रमा के अत्यधिक झीने वातावरण के अध्ययन के लिये रखा गया था । चक्कर लगाते हुए अंतरिक्षयान से अलग किये जाने के बाद एमआईपी को चन्द्रमा की सतह पर पहुंचने में 25 मिनट लगे । चन्द्रमा की सतह पर पक्के से उतरने से पूर्व की उस अवधि में एमआईपी ने सभी सूचनायें चन्द्रयान को रेडियो तरंगों के माध्यम से भेज दी थी , जिसे उसने अपनी ऑन बोर्ड मेमोरी में तत्काल रिकार्ड कर लिया था ताकि इन सूचनाओं को बाद में आवश्यकतानुसार पढ़ा जा सके । एमआईपी द्वारा चन्द्रयान को संदेश भेजे जाने के साथ ही, चन्द्रमा के अध्ययन का भारत का प्रथम प्रयास सफलतापूर्वक पूरा हो गया था ।
नासा ने जैसे ही एमआईपी द्वारा चन्द्रमा पर पानी की खोज की पुष्टि की, इसरो के साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र, जहां चांस का निर्माण हुआ था, खुशी की लहर दौड़ गई। चांस परियोजना के प्रबंधक श्री सैयद मकबूल अहमद ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि यह पहली बार है कि पश्चिम के वैज्ञानिकों ने चन्द्रमा पर पानी की खोज संबंधित भारत के प्रकाशित शोधकार्य को मान्यता प्रदान की है। चांस परियोजना में काम करने वाले वैज्ञानिक तीर्थ प्रतिमदास ने विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र की आंतरिक पत्रिका वॉएज में लिखा था, एमआईपी में लगे उपकरणों से 14 नवम्बर, 2008 को दिन के वातावरण में चन्द्रमा की सतह पर कुछ परीक्षण किया गया जो सफल रहा । उनके अनुसार आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि चन्द्रमा पर पानी की मात्रा अच्छी खासी है । परन्तु चन्द्रमा पर पानी की खोज का श्रेय केवल एमआईपी को नहीं जाता । नासा के दो और परीक्षणों में भी पानी का पता चला है । 1999 में प्रक्षेपित कैसिनी अंतरिक्ष यान पर भेजे गए विजुअल एंड इन्फ्रारेड मैपिंग स्पेक्अ्रोमीटर ने भी चन्द्रमा की सतह पर पानी के अणुओं की खोज की थी । पिछले वर्ष चन्द्रमा के पास से गुजर रहे इपॉक्सी अंतरिक्ष यान पर लगे हाई रिजोल्यूशन इन्फ्रारेड इमेजिंग स्पेक्ट्रोमीटर ने भी पानी का पता लगाया था, साथ ही चन्द्रमा के ध्रुवीय क्षेत्र में हाइड्रॉक्सेल अणु भी पाए गए थे । इन खोजों के निष्कर्ष अभी हाल तक अप्रकाशित ही रहे थे ।
चन्द्रमा की सतह पर पानी का पाया जाना और वह भी पूर्व के अनुमान से अधिक मात्रा में निश्चित ही एक बड़ी बात है । परन्तु चन्द्रमा पर सही सही कितना पानी है ? उन पर स्थित अमेरिका के भूगर्भीय सर्वेक्षण के डा0 रॉजर क्लार्क ने इसका अनुमान लगाया है । उन्होंने बताया कि यदि चन्द्रमा के सतह की मिट्टी की ऊपरी परत का एक टन हिस्सा खोदा जाए तो केवल 32 औंस पानी मिलेगा । मून मिनरलॉजी मैपर एम-3 परियोजना के प्रधान जांचकर्ता डा0 कार्ल पीटर्स ने सामान्य शब्दों में कहा कि जब हम चन्द्रमा पर पानी की बात करते हैं तो झीलों, समुद्रों और तालाबों की बात नहीं करते । चन्द्रमा पर पानी का अर्थ होता है पानी और हाइड्रोआक्सिल के अणु जो चन्द्रमा की सतह पर चट्टानों और धूल को प्रभावित करते हैं । परन्तु नासा के एक अन्य वैज्ञानिक पॉल स्पूडिस का कहना है कि चंद्रयान के राडार से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि चन्द्रमा के उत्तरी ध्रुव के पास छायादार गड्ढे में जमी हुई बर्फ में पर्याप्त पानी है, जो कि कम से कम 60 करोड़ मीट्रिक टन तक हो सकता है । उन्होंने कहा कि चन्द्रयान के मून मिनरलॉजी मैपर उपकरण ने चन्द्रमा पर एक पतली परन्तु व्यापक पानी की चादर जैसी परत की उपस्थिति का पता लगाया है, जोकि हाइड्रॉक्सिल के रूप में है ।
यहां पर स्मरण योग्य है कि चन्द्रयान का सकल प्रक्षेपण 22 अक्तूबर, 2008 को इसरो के पीएसएलवी-सी-11 राकेट से किया गया था । श्री हरिकोटा के सतीशधवन अंतरिक्ष केन्द्र से पृथ्वी की अंडाकार कक्षा से यह अंतरिक्षयान 8 नवम्बर, 2008 को अपने लक्ष्य अर्थात चन्द्रमा की कक्षा में प्रविष्ठ हो गया था । तब इसकी चक्रीय ऊँचाई को धीरे-धीरे कम कर चन्द्रमा की सतह के पास 100 कि.मी. की लक्षित दूरी पर ले आया गया । प्रक्षेपण के बाद से ही चन्द्रयान की स्थिति पर बंगलूरू स्थित इसरो अंतरिक्षयान नियंत्रण केन्द्र आईएसटीआरएसी से नज़र रखी जा रही थी । अंतरिक्ष यान का जीवन 2 वर्ष का था, परन्तु प्रक्षेपण के दिन से करीब 8 महीने के अंदर ही , 29 अगस्त , 2009 को इसका रेडियो संपर्क टूट गया । इसरो के लिये यह एक विफलता मानी जा सकती है, परन्तु यह कोई बहुत बड़ी हानि थी, ऐसा नहीं माना जाना चाहिए । वास्तव में, अंतरिक्ष के अनुसंधान में लगी अन्य एजेंसियों की तुलना में, इसरो का रिकार्ड काफी बेहतर है। यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि चन्द्रयान ने अपने आठ माह के जीवन में ही अपना 95 प्रतिशत लक्ष्य प्राप्त कर लिया था । इसने करीब 3400 चक्कर लगाए, जिसके दौरान उसने चन्द्रमा के 70 हजार चित्र भेजे ।
चन्द्रयान ने जो कार्य किये, उनमें चंद्रमा की सतह पर अनेकों सुरंगों की खेाज भी शामिल है । एक विज्ञान लेखक का तर्क है कि यह सुरंगें उस समय काम में आएंगी , जब मनुष्य इस ईश्वरीय निकाय पर अपना घर बनाएगा । ये उसे चन्द्रमा की सतह से निकलने वाली ब्रह्मांड की अन्य हानिकारक किरणों से शरण प्रदान कर सकेंगी । इसके अतिरिक्त चन्द्रयान द्वारा संकलित आंकड़े उस समय काम में आएंगे जब इसरो चंद्रयान का दूसरा मिशन छोड़ेगा । इसरो के पूर्व अध्यक्ष डा0 जी माधवन नायर का कहना है कि चन्द्रयान द्वितीय 2013 में छोड़ा जाएगा जिसमें एक मोटर युक्त रॉवर और चन्द्रमा की कक्षा में घूमने वाला यान लगा होगा । करीब 30
किलेाग्राम भार वाला मोटरयुक्त रॉवर सौर ऊर्जा से शक्ति प्राप्त करेगा और उसका जीवन 30 दिनों का होगा । रॉवर का काम होगा रासायनिक परीक्षण हेतु चट्टानों और मिट्टी के नमूने इकट्ठा करना और चंद्रयान द्वितीय को सूचनायें भेजना जिन्हें विश्लेषण के लिए पृथ्वी के नियंत्रण केन्द्र को भेजा जाएगा । परन्तु भारतीय अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी उपलब्धि यही रही कि वे 3 लाख 40 हजार किलोमीटर दूर चंद्रमा पर अंतरिक्ष यान भेजने में कामयाब रहे । यह सफलता भविष्य में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष अभियानों के लिये उन्हें पर्याप्त शक्ति प्रदान करेगी ।