फ़िरदौस ख़ान
मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग करके इस मुद्दे को एक बार फिर सुर्ख़ियों में ला दिया है. उन्होंने प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में कहा है कि अगर अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों की हालत सुधारनी है तो यह ज़रूरी है कि शिक्षा, रोज़गार और दूसरे क्षेत्रों में उनके लिए विकल्प बढ़ाए जाएं. आज़ादी के 64 सालों बाद भी मुसलमान पिछड़े हुए हैं, सच्चर समिति की रिपोर्ट ने भी इसकी तस्दीक की है. सियासी हलक़े में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती की इस मांग को विधानसभा चुनाव में मुस्लिम वोट बैंक अपने पक्ष में करने के लिए उठाए गए क़दम के तौर पर देखा जा रहा है. इतना ही नहीं, विपक्षी दलों ने भी मायावती के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है.

भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता हृदय नारायण दीक्षित ने मायावती की इस मांग को तुष्टिकरण क़रार देते हुए कहा है कि बसपा सरकार ने ही 2002 में उत्तर प्रदेश लोक सेवा संशोधन अधिनियम पारित कराकर मुस्लिम समुदाय की 35 पिछड़ी जातियों को आरक्षण के अधिकार से वंचित कर दिया था, जबकि भाजपा सरकार ने 2000 में अधिनियम पारित कराकर पिछड़े वर्गों की तीन सूचियां जारी की थीं, जिसमें 14 फ़ीसद आरक्षण मुस्लिम समुदाय की जातियों को दिया गया था. उनका कहना है कि बसपा अति पिछड़ों और अति पिछड़े मुसलमानों को वास्तविक आरक्षण देने की पक्षधर कभी नहीं रही. उसने अति पिछड़ी जातियों और पिछड़े मुसलमानों के हितों पर डाका डाला है. उन्होंने मांग की कि मायावती प्रधानमंत्री को पत्र लिखने के बजाय अति पिछड़ों एवं अति पिछड़े मुसलमानों को वास्तविक आरक्षण दें.

इसी तरह समाजवादी पार्टी के महासचिव आज़म खां ने मुसलमानों को प्रतिनिधित्व देने का दावा करने वाली मायावती की इस मांग को मुसलमानों के साथ छलावा क़रार दिया है. उनका कहना है कि जिस सच्चर समिति का हवाला देते हुए मायावती ने मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग की है, उसी समिति ने यह भी कहा है कि राज्य सरकारें भी आरक्षण दे सकती हैं और इसे देने का तरीक़ा भी बताया गया है. फिर क्यों मायावती गेंद केंद्र सरकार के पाले में डालकर मुसलमानों को बेवक़ू़फ बना रही हैं, इसे आसानी से समझा जा सकता है. उन्होंने आरोप लगाया कि बसपा सरकार मुसलमानों को अशिक्षित और ग़रीब ही बनाए रखना चाहती है, तभी तो वह मोहम्मद अली जौहर विश्वविद्यालय में दा़खिले की अनुमति नहीं दे रही है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव का कहना है कि बसपा सरकार के क़रीब साढ़े चार सालों में मायावती को न तो मुसलमानों की याद आई और न ही सच्चर समिति की. उन्होंने दावा किया कि हाल में 33 हज़ार सिपाहियों की भर्ती में बसपा सरकार ने सिर्फ़ 650 मुस्लिम सिपाही भर्ती किए, जो कुल भर्ती का दो फ़ीसद से भी कम है. हाल में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री सलमान ख़ुर्शीद ने ख़ुलासा किया है कि केंद्र सरकार पिछड़े वर्गों के 27 फ़ीसद आरक्षण में पिछड़े वर्ग में आने वाले मुसलमानों का कोटा तय करने के लिए क़ानून बना रही है. यह कोटा कितना होगा, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है, लेकिन इस बात के संकेत दिए हैं कि यह कोटा आंध्र प्रदेश, केरल और कर्नाटक की तर्ज़ पर तय होगा. ग़ौरतलब है कि कांग्रेस सरकार ने आंध्र प्रदेश में मुसलमानों को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थाओं में आरक्षण देने का प्रावधान किया है. अभी यह मामला सुप्रीम कोर्ट में है.

उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं और कांग्रेस की चुनावी मुहिम की बागडोर राहुल गांधी के हाथ में है. जिस तरह राहुल गांधी ने भट्टा-पारसौल में सक्रियता दिखाते हुए किसान आंदोलन में शिरकत की, भूमि अधिग्रहण के ख़िलाफ़ पदयात्रा कर किसानों की समस्याएं सुनीं और उनसे किया वादा निभाते हुए लोकसभा में संशोधित भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करा दिया. यह विधेयक सिर्फ़ 55 दिनों में तैयार कर लिया गया था. इस सबको देखते हुए इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस मुसलमानों को आरक्षण देने की दिशा में कोई क़दम उठा सकती है. हालांकि यह बात दीगर है कि आज़ादी के बाद से अब तक कांग्रेस ने मुसलमानों की भलाई के लिए कुछ ख़ास नहीं किया है. हालांकि योजनाएं तो वक़्त-दर-वक़्त अनेक बनती रही हैं, लेकिन मुसलमानों को उनका कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ. प्रधानमंत्री के 15 सूत्रीय कार्यक्रम की ही हालत देख लीजिए. इसके तहत केंद्र सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं. इनमें एक मुसलमानों के बहुआयामी विकास कार्यक्रम नामक योजना है. इसकी मद में केंद्र सरकार की तरफ़ से मुसलमानों के विकास के लिए आर्थिक पैकेज की व्यवस्था की गई है. यह कार्यक्रम केंद्र सरकार द्वारा चुने गए 90 ज़िलों में शुरू किया गया है. इसे लागू करने के लिए ज़रूरी है कि संबंधित ज़िले में कम से कम 15 फ़ीसद मुस्लिम आबादी हो. इसके लिए ख़ासतौर से उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के ज़िलों को चुना गया है. इनके लिए क़रीब 25 हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा की सहायता राशि का प्रावधान है, लेकिन अब तक सिर्फ़ 20 फ़ीसद रक़म का ही इस्तेमाल हुआ है. यूपीए सरकार को इस बात की फ़िक्र है कि उसके कार्यक्रमों को सही तरीक़े से लागू नहीं किया जा रहा है, जिससे कांग्रेस को नुक़सान हो सकता है. पिछले दिनों एक बैठक में राहुल गांधी ने भी इस बात पर ज़ोर दिया था कि विभिन्न राज्यों में केंद्र सरकार की योजनाओं को सही ढंग से क्रियान्वित कराया जाए. दरअसल, मुसलमानों से संबंधित इस योजना के लिए केंद्र ने जिन ज़िलों को चुना है, उनमें से अनेक ज़िले ऐसे राज्यों में आते हैं, जहां ग़ैर कांग्रेसी सरकारें हैं. इन राज्यों की सरकारें नहीं चाहतीं कि यूपीए अल्पसंख्यकों, ख़ासकर मुसलमानों में लोकप्रिय हो. इस बात को लेकर राहुल गांधी अपने ग़ुस्से का भी इज़हार कर चुके हैं. उनका कहना था कि राज्य में कांग्रेस की सरकार न होने की वजह से जनता को इन योजनाओं का समुचित लाभ नहीं मिल पा रहा है.

मुसलमानों को आरक्षण देने के मुद्दे पर राहुल गांधी क्या रु़ख अपनाते हैं, यह तो अभी तक साफ़ नहीं हो पाया है, मगर इतना ज़रूर है कि इस मुद्दे पर सियासत ख़ूब होगी. संविधान के मुताबिक़, धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं दिया जा सकता. आरक्षण का आधार केवल सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ापन है. संविधान में तीन प्रकार के आरक्षण का प्रावधान है. केंद्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के लिए 15 फ़ीसद, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5 फ़ीसद और पिछड़े वर्गों के लिए 27 फ़ीसद आरक्षण है. अनुसूचित जातियों के आरक्षण के दायरे में केवल हिंदू, सिख और बौद्ध धर्म के लोग आते हैं, जबकि दलित मुसलमान और दलित ईसाई इससे बाहर हैं. कई राज्यों में पिछड़े वर्गों के आरक्षण को आबादी के हिसाब से बांटा गया है. आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, केरल और कर्नाटक में मुस्लिम समुदाय की कई जातियों की एक अलग श्रेणी बनाकर 27 फ़ीसद में से उनका कोटा तय कर दिया गया है. हालांकि इन राज्यों में यह बंटवारा धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि जातियों की सामाजिक और शैक्षिक स्थिति के आधार पर है. बहरहाल, मायावती ने मुसलमानों को आरक्षण देने की मांग उठाकर सवर्ण कार्ड खेलने की कोशिश ज़रूर की है.


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