फ़िरदौस ख़ान
भक्त कवियों में सूरदास का नाम सर्वोपरि है. श्रीकृष्ण के अनन्य उपासक और ब्रजभाषा के श्रेष्ठ कवि सूरदास हिंदी साहित्य के सूरज माने जाते हैं, जिनकी भक्ति के लबरेज़ रचनाओं से हिंदी साहित्य जगमगा उठा है. हाल में राजकमल प्रकाशन ने सूर संचयिता नामक एक किताब प्रकाशित की है, जिसमें महान कवि सूरदास के जीवनकाल पर रोशनी डालने के साथ ही उनकी चुनिंदा रचनाओं को भी शामिल किया गया है. किताब के संपादक हैं मैनेजर पाण्डेय, जिनकी इससे पहले भी सूरदास पर आधारित किताब भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य प्रकाशित हो चुकी है. सूरदास के जन्म स्थान और जन्म तिथि को लेकर अनेक मतभेद हैं. उनकी जन्मभूमि के तौर पर अब गोपाचल (ग्वालियर), मथुरा प्रांत में कोई गांव, रुनकता (आगरा), सीही (दिल्ली) और साही (आगरा) का ज़िक्र आता है. साहित्य लहरी के एक पद में उनका निवास स्थान गोपाचल बताया गया है. इसी तरह अनेक आलोचकों ने उनके जन्म और मृत्यु के समय को लेकर साहित्य लहरी के मुनि पुनि रसन के रस लेख वाले पद को स्वीकार किया है, लेकिन इस पद के इतने विरोधी अर्थ दिए गए हैं कि उनके आधार पर सूरदास की जन्म तिथि का पता लगाना मुश्किल हो जाता है. वार्ता साहित्य और सांप्रदायिक मान्यता के आधार पर यही कहा जाता है कि सूरदास वल्लभाचार्य से उम्र में दस दिन छोटे थे. वल्लाभाचार्य का जन्म संवत 1535 विक्रम की वैशाख शुक्ल 5 मंगलवार को माना जा सकता है. इसलिए डॉ. ब्रजेश्‍वर वर्मा ने उनका जन्म संवत 1535 के आसपास माना है. सूरसागर के पदों में सूरदास के सूर, सूरदास, सूरज, सूरजदास और सूर श्याम, ये पांच नाम मिलते हैं. कहीं-कहीं सुरसुजान, सूरसरस, सूरजश्याम और सूरजश्यामसुजान भी मिल जाते हैं. इनमें से सुजान, सरस आदि विशेषण ही हैं. इसलिए उनके सूर या सूरज के साथ संयुक्त होने से स्वतंत्र नाम नहीं बन सकते.

क़ाबिले-ग़ौर यह है कि क्या सूर, सूरदास, सूरज, सूरजदास और सूरश्याम ये पांचों नाम एक ही व्यक्ति के हैं या अलग-अलग पांच व्यक्तियों के नाम हैं. डॉ. ब्रजेश्‍वर शर्मा ने सूरज, सूरजदास आदि नामों को सूरदास के मूल नाम का परिवर्तित रूप न मानकर किसी दूसरे व्यक्ति का ही नाम माना है. उनके मुताबिक़, सूरदास ने विकल्प से सूरज या सूरजदास का व्यवहार नहीं किया, वरना किसी सूरजदास नामक कवि ने सूरदास के पदों में अपनी छाप लगा दी और कुछ स्वरचित पद सूरसागर में शामिल कर दिए. वह सूरदास को सूरदास ही मानते हैं. सूर निर्णय के लेखकों के मुताबिक़, सूरदास का नाम सूरज था. सूरज का लघु रूप सूर है, फिर वैष्णवता के कारण सूरजदास, सूरदास या सूरश्याम नाम पड़ गए. इसलिए सूर, सूरदास, सूरजदास और सूरश्याम, ये सभी नाम सूरदास के ही हैं. सूरदास की जाति और वंश को लेकर भी संशय बरक़रार है. दरअसल, भारत में व्यक्ति का कम और जाति का अधिक महत्व है. यहां उन भक्तों को भी जाति निर्णय के प्रपंच से गुज़रना पड़ता है, जो ख़ुद जाति भेद के विरोधी थे. भक्तों की एक ही जाति है. उनका एक ही परिचय है कि वे भक्त हैं और भगवान ही उनके सर्वस्व हैं. सूर की कविता में संप्रदाय और जाति का आग्रह नहीं है. वहां तो एक भावनात्मक धरातल पर समान अनुभूति में निमग्न संपूर्ण समाज या पूर्ण व्यक्ति है. चौरासी वैष्णव की वार्ता में ज़्यादातर भक्तों की जाति का ज़िक्र है, लेकिन सूरदास जैसे संप्रदाय के मशहूर भक्त की जाति का कोई संकेत ही नहीं है. सूरदास के पदों में भी जाति संबंधी कोई बात नहीं कही गई है, इसकी वजह से उनकी जाति या वंश का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. हालांकि आलोचकों ने अपने-अपने विचारों के मुताबिक़ उनकी जाति बताई है. ग़ौरतलब है कि सूरदास नेत्रहीन थे. वह जन्मांध थे या बाद में नेत्रहीन हुए, इस पर भी मतभेद हैं. आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने सूर संदर्भ में लिखा है कि यह कहने का साहस नहीं होता है कि सूरदास ने बिना अपनी आंखों से देखे केवल कल्पना से ये सब लिखा है, लेकिन महाकवि सूरदास में उन्होंने सूरदास को जन्मांध सिद्ध किया है, जबकि चंद्रबली पांडेय के मुताबिक़, सूरदास जन्मांध नहीं थे. हां, धीरे-धीरे अंधे ज़रूर हो गए. चौरासी वैष्णवन की वार्ता में सूरदास की जीवनी मथुरा और आगरा के मध्यवर्ती यमुना के किनारे गऊघाट नामक स्थान पर उनके निवास से शुरू होती है, जहां वल्लभाचार्य से उनकी मुलाक़ात होती है. वल्लभाचार्य ने उन्हें दीक्षा दी और श्रीमदभागवत के दशम स्कंध की लीला की ललित झांकी भी दिखाई. इसके बाद सूरदास एकतारे पर हरि लीला का गायन करने लगे. उनकी बादशाह अकबर और गोस्वामी तुलसीदास से मुलाक़ात के व़क्त और जगह को लेकर भी विद्वानों में मतभेद हैं. इसी तरह उनकी मौत के व़क्त को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं. सूरदास के जन्मकाल की तरह ही उनका देहावसान-काल भी विवादग्रस्त है. अब तक उपलब्ध सामग्री के आधार पर उनका देहावसान काल संवत 1640 विक्रम ही विश्वसनीय जान पड़ता है. पारसौली में उस वक़्त सूरदास को वल्लभाचार्य, श्रीनाथ जी और गोसाई विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की आरती करते समय सूरदास को मौजूद न पाकर जान लिया कि सूरदास का आख़िरी वक़्त क़रीब आ गया है. उन्होंने अपने सेवकों से कहा कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है, जिसे जो लेना हो ले ले. आरती के बाद गोसाई जी रामदास, कुंभनदास, गोविंदस्वामी और चतुर्भुजदास के साथ सूरदास के नज़दीक पहुंचे और अचेत पड़े सूरदास को चैतन्य होते हुए देखा. सूरदास ने गोसाई जी का साक्षात भगवान के रूप में अभिनंदन किया और उनकी भक्तवत्सलता की प्रशंसा की. चतुर्भुजदास ने उस व़क्त शंका की कि सूरदास ने भगवद्यश तो बहुत गाया, लेकिन वल्लभाचार्य का यशगान क्यों नहीं किया. इस पर सूरदास ने बताया कि उनके लिए आचार्य जी और भगवान में कोई फ़र्क़ नहीं है, क्योंकि जो भगवद्यश है, वही आचार्य जी का भी यश है. उन्होंने गुरु के प्रति अपनी आस्था भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो वाला पद गाकर ज़ाहिर की. इसी पद में सूरदास ने अपने को द्विविध आन्धरो भी बताया. इसके बाद सूरदास ने शरीर त्याग दिया. सूरदास ने अनेक ग्रंथों की रचना की. काशी नागरीप्रचारिणी सभा के खोज विवरण की रिपोर्ट के मुताबिक़, सूरदास के नाम से 25 ग्रंथों की सूची उपलब्ध है. इनमें सूरसारावली, सूर लहरी, सूरसागर, भगवत भाषा, दशम स्कंध भाषा, सूरसागर सार, सूर रामायण, मानलीला, राधा रसकेलि कौतूहल, गोवर्धनलीला (रास लीला), दानलीला, भंवर लीला, नाग लीला, व्याहलीला, प्राणप्यारी, दृष्टिकूट के पद, सूरशतक, सूरसाठी, सूरपचीसी, सेवाफल, सूरदास के विनय आदि के स्फुट पद, हरिवंश टीका (संस्कृत), एकादशी माहात्म्य, नल दमयंती और राम जन्म शामिल हैं. भक्त सूरदास की रचनाएं कृष्ण प्रेम से लबरेज़ हैं. उन्होंने अपनी रचनाओं में कृष्ण लीला का इतना मनोहारी वर्णन किया है कि पढ़ने वाला मंत्रमुग्ध हो जाता है.

खेलत हरि निकसे ब्रज खोरी
कटि कछनी पीतांबर बांधे, हाथ लए भौंरा, चक, डोरी
मोर मुकुट, कुंडल स्रवननि बर दसन-दमक दामिनि-छवि छोरी 
गए स्याम रवि-तनया कैं तट, अंग लसति चंदन की खोरी
औचक ही देखी तहं राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी
नील बसन फरिया कटि पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरी, अति छबि तन-गोरी
सूर स्याम देखती हीं रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी

किसी भी रचनाकार की रचनाओं में जीवन के यथार्थ और अनुभवों की अभिव्यक्ति होती है. हालांकि उन्हें भक्त कवि माना जाता है, लेकिन कृष्ण की भक्ति के अलावा उनकी रचनाओं में जीवन के विभिन्न रंगों को देखा जा सकता है. एक किसान के तौर पर वह अपने पद में खेतीबा़डी का ज़िक्र करते हैं-
प्रभु जू यौं कीन्हीं हम खेती
बंजर भूमि गाउं हर जोते, अरू जेती की तेती
काम क्रोध दोउ बैल बली मिलि, रज तामस सब कीन्हौं
अति कुबुद्धि मन हांकनहारे, माया जूआ दीन्हौं
इंद्रिय मूल किसान, महातृन अग्रज बीज बई
जन्म जन्म को विषय वासना, उपजत लाता नई
कीजै कृपादृष्टि की बरषा, जन की जाति लुनाई
सूरदास के प्रभु सो करियै, होई न कान कटाई

उन्होंने अपने पदों में किसानों की ग़रीबी, कर्मचारियों के अनाचार और सामंतों की लूट का भी ज़िक्र किया है.
अधिकारी जम लेखा मांगै, तातैं हौं आधीनौ
घर मैं गथ नहिं भजन तिहारो, जौन दिय मैं छूटौं
धर्म जमानत मिल्यों न चाहै, तातैं ठाकुर लूटौ
अहंकार पटवारी कपटी, झूठी लिखत बही
लागै धरम, बतावै अधरम, बाक़ी सबै रही
सोई करौ जु बसतै रहियै, अपनौ धरियै नाउं
अपने नाम की बैरख बांधौ, सुबस बसौं इहिं गाउं

उनकी रचनाओं में उर्दू फ़ारसी के शब्द भी ख़ूब मिलते हैं.
मोहरिल पांच साथ करि दीने, तिनकी बड़ी विपरीति
जिम्मैं उनके, मांगैं मोतैं, यह तौ बड़ी अनीति
पांच पचीस साथ अगवानी, सब मिलि काज बिगारे
सुनी तगीरी, बिसरि गई सुधि, मो तजि कीनौं है साफ़
सूरदास की यहै बीनती दस्तक कीजै माफ़

बहरहाल, यह किताब सूरदास के जीवनकाल और उनके जीवनकाल से संबंधित विवादों को बयान करती है. इसके साथ ही सूरदास के कई महत्वपूर्ण ग्रंथों के बारे में भी महत्वपूर्ण जानकारी मुहैया कराती है. पाठकों को, ख़ासकर हिंदी साहित्य के छात्रों के लिए यह किताब बेहद उपयोगी कही जा सकती है.

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