अफ़रोज़ आलम साहिल
अल्पसंख्यक छात्रों के ऊंची तालीम हासिल करने की उम्मीदों पर पलीता लगता नज़र आ रहा है. इसकी अहम वजह अल्पसंख्यक मंत्रालय और यूजीसी (जो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अंतर्गत है) की हीला-हवाली या यूं कह लें कि ज़बरदस्त लाल-फीताशाही है या फिर मोदी सरकार की सोची-समझी साज़िश...

देश के अलग-अलग विश्वविद्यालयों में एम.फिल व पीएचडी जैसी ऊंचे दर्जे की पढ़ाई कर रहे सैकड़ों छात्रों की शिकायत है कि यूजीसी ने अल्पसंख्यक छात्रों के लिए सबसे ज़रूरी यह फेलोशिप सितम्बर-अक्टूबर महीने से ही नहीं दी गई है, जिससे अल्पसंख्यक छात्रों की शोध-शिक्षा संकट में आ गई है. इस तरह से सरकार न सिर्फ़ अल्पसंख्यक छात्रों की उम्मीदों पर पानी फेर रही है, बल्कि उनकी ऊंची तालीम पाने की हसरत पर भी कुल्हाड़ी मार दी है.

अल्पसंख्यक मंत्रालय से मिले दस्तावेज़ बताते हैं कि सत्ता में आने के साथ ही मोदी सरकार की मंशा इस अहम फेलोशिप को बंद कर देने की रही. ये दीगर बात है कि इस बार इस फेलोशिप का बजट बढ़ाया ज़रूर गया है और सरकार इस फेलोशिप को मांग-प्रेरित बनाने की बात भी कर रही है.

स्पष्ट रहे कि इस फेलोशिप की शुरूआत यूपीए सरकार ने 2009 में किया था. शोध छात्रों का कहना है इस फेलोशिप के मिलने में कभी कोई समस्या नहीं हुई. लेकिन अब वही छात्र बताते हैं कि 2014 में केन्द्र में सत्ता बदलते ही फेलोशिप के मिलने में दिक्कतें आने लगीं हैं.

दस्तावेज़ बताते हैं कि साल 2009-10 में इस फेलोशिप के लिए सरकार ने 15 करोड़ का बजट रखा गया और 14.90 खर्च किया गया. साल 2010-11 में इस फेलोशिप का बजट बढ़ाकर डबल कर दिया गया. इस बार 30 करोड़ के बजट में 29.98 करोड़ रूपये छात्रों के फेलोशिप में बांट दी गई.

साल 2011-12 में बजट 52 करोड़ हुआ और 51.98 करोड़ खर्च किया गया. साल 2012-13 में बजट 70 करोड़ हो गया और 66 करोड़ की रक़म फेलोशिप में बांट भी दी गई.

साल 2013-14 की भी यही कहानी थोड़ी अलग रही. इस साल इस फेलोशिप के लिए बजट तो 90 करोड़ का रखा गया लेकिन रिलीज़ सिर्फ़ 50.11 करोड़ रखा गया और खर्च 50.02 करोड़ हुआ.

लेकिन साल 2014-15 में सरकार बदलते ही इस फेलोशिप का बजट घटा दिया गया. इस साल इस फेलोशिप की बजट फिर से 50 करोड़ कर दिया गया. लेकिन हैरानी की बात यह है कि रिलीज़ सिर्फ़ 1 करोड़ ही किया गया और उसमें भी खर्च महज़ 12 लाख रूपये ही हुए.

साल 2015-16 की कहानी तो और भी गंभीर है. इस साल इस फेलोशिप के लिए 49.83 करोड़ रखा गया, लेकिन जून 2015 तक के उपलब्ध आंकड़ें बताते हैं कि इस फेलोशिप पर सिर्फ़ 3 लाख रूपये ही खर्च किए गए हैं.

यह अलग बात है कि इस बार इस फेलोशिप पर मोदी सरकार थोड़ी मेहरबान नज़र आ रही है. साल 2016-17 के बजट में इस फेलोशिप का बजट बढ़ाकर 80 करोड़ किया है, लेकिन आगे इसका हश्र देखना दिलचस्प होगा.

आगे के आंकड़ें थोड़े और भी दिलचस्प हैं. अल्पसंख्यक मंत्रालय के आंकड़ें बताते हैं कि सिर्फ़ 756 शोध-छात्रों का चयन किया गया, जिसमें सिर्फ़ 494 मुस्लिम छात्रों को चयनित किया गया है. वहीं इस सूची में 90 क्रिश्चन, 65 सिक्ख, 25 बौद्ध, 20 जैन और 02 पारसी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले छात्र हैं.

हालांकि इसके पहले के दस्तावेज़ बताते हैं कि पहले इस फेलोशिप के लिए अधिक मुस्लिम छात्रों का चयन किया जाता था. उदाहरण के तौर पर साल 2011-12 में 533, साल 2010-11 में 532 और 2009-10 में 541 मुस्लिम शोध-छात्रों का चयन किया गया था.

सवाल यह है कि मुस्लिम छात्रों के साथ ही ये भेदभाव क्यों हो रहा है? ये इकलौती ऐसी स्कीम नहीं है. ऐसी कई स्कीमों में अल्पसंख्यक बिरादरी से ताल्लुक़ रखने वाले छात्रों ने यही अंजाम देखा है. क्या यह सोची-समझी रणनीत का हिस्सा है? अगर ये सच है तो अल्पसंख्यकों की पैरोकारी करने वाले नेता व पार्टियों को चाहिए कि वो जल्द से जल्द इस मुद्दे को संसद में उठाए ताकि अपने कैरियर की फ़िक्र कर रहे छात्रों के उम्मीदों को ख़त्म होने से बचाया जा सके.

हालांकि ऐसा नहीं है कि इस मुद्दे पर राजनीति नहीं हुई है. राज्यसभा में भी यह मुद्दा उठ चुका है, लेकिन वहां भी यह मुद्दा सिर्फ़ सवाल-जवाब में उलझा रहा.

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ‘सबका साथ –सबका विकास’ के नारे के साथ जो सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक सशक्तिकरण के लाख दावे कर रही है. अब वही सरकार अल्पसंख्यक छात्रों के भविष्य से खिलवाड़ क्यों कर रही है?

यह कितना अजीब है कि एक तरफ़ तो सरकार अल्पसंख्यकों के शैक्षिक उत्थान की बातें कर रही है, मेक इन इंडिया और स्टार्टअप इंडिया जैसे सपने दिखा रही है, दूसरी तरफ़ छात्रों को मिलने वाले इस महत्वपूर्ण फेलोशिप पर गलत नज़रिए के साथ बंद करने की तैयारी कर रही है.

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