अन्ना मैथ्यूज़
वर्ष 1847 से प्रारंभ होकर दो शताब्दियों तक भारत के स्वतंत्रता संग्राम ने लगातार अपने लक्ष्य के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ, अपनी विचारधारा एवं आमजन की भागीदारी और निस्वार्थ जोश जैसे शस्त्रों के साथ संघर्षरत कई शानदार नायक पैदा किये हैं. वे न केवल देशवासियों के लिये प्रेरणा हैं, बल्कि विश्व स्तर पर लब्धप्रतिष्ठित हस्तियां भी हैं.
इस संघर्ष की एक अमिट कहानी और व्यक्तित्व वी के कृष्ण मेनन भी हैं जिन्होंने भारत की स्वतंत्रता का संघर्ष अंग्रेज़ी राजसत्ता के केंद्र में बरतानवी राजनीतिक एवं मध्यवर्ग का, एवं भारत की आज़ादी के पक्ष में छात्रों का, समर्थन हासिल कर प्रारंभ किया. माना जाता है कि भारत को अंततः स्वतंत्रता दिलाने में ब्रिटिश लेबर पार्टी में उनका निजी प्रभाव एक बड़ा कारण है.
अकादमिक रूप से प्रतिभाशाली कोझीकोड के इस युवा निवासी ने बतौर मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज के छात्र कॉलेज के गुंबद पर लाल और हरा होम रूल झंडा फहराकर आरंभ में स्वतंत्रता के निमित्त एक झंझट खड़ा कर दिया था. इसके बाद कृष्ण मेनन को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया था, किंतु उनके लिये यह एक शुरुआत भर थी.
वर्ष 1917 में स्नातक के एक वर्ष पश्चात अपने वकील पिता की इच्छा के अनुरूप वो मद्रास लॉ कॉलेज से जुड़ गए, किंतु अधिक महत्वपूर्ण यह है कि तब तक वे डॉक्टर एनी बीसेंट की थियोसोफिकल सोसाइटी से जुड़ चुके थे. डॉक्टर एनी बीसेंट ने भारत में आयरलैण्ड के होम रूल आंदोलन जैसे होम रूल आंदोलन की शुरुआत की और थियोसोफिकल सोसाइटी को राजनीतिक महत्व प्रदान करते हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ गई.
डॉक्टर एनी बीसेंट से प्रभावित कृण्ण मेनन ने धोती और कुर्ता धारण कर लॉ कॉलेज के नियमों की खुलकर अवहेलना की, भारत में आयु पर्यन्त यही उनका पहनावा बना रहा. कॉलेज प्रशासन ने उनको निष्कासित करने की धमकी दी, किंतु उन्होंने झुकने से इनकार कर दिया.
यद्यपि कॉलेज के दिनों में भी कृष्ण मेनन जोशीले वक्ता थे, एक वक्ता के रूप में उनकी प्रतिभा को डॉक्टर बीसेंट ने निखारा था. यह उनके राजनीतिक जीवन के कई प्रतिष्ठित कौशल में से एक कौशल था. वर्ष 1957 में संयुक्त राष्ट्र में भारत के प्रतिनिधि के रूप में उन्होंने कश्मीर पर भारत के नज़रिये के समर्थन में आठ घंटे का रिकॉर्ड तोड़ भाषण दिया.
डॉक्टर बीसेंट ने महसूस किया कि अंग्रेज़ी का शैक्षणिक अनुभव मेनन के कौशल को और अधिक विकसित कर देगा और वर्ष 1924 में उन्होंने उनको इंग्लैण्ड भेज दिया. यहां उन्होंने अध्यापक की डिग्री प्राप्त की एवं 1916 में डॉक्टर बीसेंट द्वारा प्रारंभ कॉमनवेल्थ रूल फॉर इण्डिया लीग से जुड़ गए.
कॉमनवेल्थ रूल फॉर इण्डिया लीग ने बैठकें आयोजित कीं, न्यूज़लेटर जारी किये एवं भारतीय राष्ट्रवाद की मांगें प्रसारित करते हुए कई संस्थाओं, सम्पादकों, प्रतिष्ठित हस्तियों और संसद सदस्यों से सम्पर्क स्थापित किया.
आगामी दो दशकों तक कृष्ण मेनन ने दार्शनिक बरट्रैण्ड रसैल एवं हैरोल्ड लास्की, जो कि लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स में मेनन के अनुशिक्षक थे और बाद में लेबर पार्टी के अध्यक्ष बन गए थे, जैसी ब्रिटेन की अहम राजनीतिक हस्तियों के मध्य एवं ब्रिटेन में रहने वाले अन्य भारतीयों के बीच अथक अभियान चलाया. अधिकतर गतिविधियों का स्वयं वित्तपोषण कर उन्होंने बैठकें और कार्यक्रम आयोजित किये, समूहों को संबोधित किया, लेख एवं चौपन्ने लिखे एवं निरन्तर अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया.
इस बीच कृष्ण मेनन ने प्रोफेसर हैरोल्ड जे. लास्की के अंतर्गत, जो मेनन को अपना सबसे प्रतिभाशाली छात्र मानते थे, लंदन स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स से राजनीतिक विज्ञान में प्रथम श्रेणी में अपनी डिग्री प्राप्त कर ली, साथ ही विश्वविद्यालय के कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर डिग्री भी हासिल कर ली.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ‘पूर्ण स्वतंत्रता’ की मांग के साथ बीसेंट की कॉमनवेल्थ ऑफ इण्डिया लीग की इण्डिया लीग के जन्म के साथ ही समाप्ति हुई. यद्यपि पुराने सदस्य डोमिनियन स्टेटस से अधिक नहीं सोचना चाहते थे, जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस के लाहौर सत्र (1930) में रखे गए ‘पूर्ण स्वराज’ के प्रसिद्ध प्रस्ताव का कृष्ण मेनन ने हृदय की गहराई से समर्थन किया.
कामकाज के संदर्भ में मेनन के जवाहरलाल नेहरू से भी क़रीबी संबंध और मित्रता थी. उन्होंने ब्रिटेन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के दृष्टिकोण को रखने में नेहरू की मदद की, साथ ही 1935 में नेहरू की इंग्लैण्ड यात्रा एवं 1938 में यूरोप यात्रा का समन्वय किया जिसने नेहरू को भविष्य के प्रधानमंत्री एवं विश्व से समक्ष भारत का दृष्टिकोण रखने वाले अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नेता के रूप में विकसित किया.
नवगठित इण्डिया लीग, जिसके मानद सचिव कृष्ण मेनन थे, ने स्वशासन एवं भारतीयों द्वारा बने भारतीय संविधान की मांग रखी. लीग ने लाठीचार्ज, बगैर मुक़दमा कारावास, निर्वासन एवं संपत्ति का ज़ब्त कर लिया जाना जैसे अत्याचारों से ब्रिटेन के लोगों को अवगत कराया. हालांकि औपचारिक रूप से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से सम्बद्ध हुए बिना इण्डिया लीग इंग्लैण्ड में उसकी एक शाखा बन गई और कृष्ण मेनन इसके अनौपचारिक प्रतिनिधि बन गए.
मेनन ने भारत से संबंधित विषयों पर छाया नाटकों, व्यंग्यिकाओं एवं फिल्म शो का प्रबंध किया. भारत के नर्तकों एवं गायकों को प्रदर्शन के लिये बुलाया गया. जवाहरलाल नेहरू और रवींद्रनाथ टैगोर के आलेख पढ़े गए.  गांधीजी, नेहरू एवं टैगोर जैसे नेताओं के जन्मदिवस मनाए गए.
संभवतः एक प्रमुख आकर्षण 3 जनवरी, 1938 को ट्रैफल्गर स्क्वैयर पर भारत की स्थिति से हमदर्दी दर्शाता नेशनल इण्डिपेंडेंस डैमोन्स्ट्रेशन था. इस प्रदर्शन में विभिन्न देशों के लोगों ने भाग लिया. चीन, अफ्रीका एवं एबीसीनिया का प्रतिनिधित्व करती विभिन्न संस्थाओं ने भी अपने प्रकार के इस पहले प्रदर्शन में हिस्सा लिया था.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने जेनेवा में वर्ल्ड पीस कॉंफ्रेंस में अपने प्रतिनिधि के रूप में कृष्ण मेनन को भेजा और अगले वर्ष 1935 में भारत की सम्प्रभुता की मांग का संदेश देने के लिये ब्रसेल्स में इंटरनेशनल पीस कॉंफ्रेंस में भेजा.
युद्ध में भारत की भागीदारी को लेकर लेबर पार्टी के रवैये का परिणाम अंततोगत्वा कृष्ण मेनन के पार्टी छोड़ने के रूप में हुआ, यहां तक कि उन्होंने 1939 में डुण्डी (Dundee) की सुरक्षित संसदीय सीट का परित्याग भी कर दिया. किंतु मेनन निराश नहीं हुए और भारत के कार्य के लिये उन्होंने हर अवसर को भुनाना जारी रखा, यहां तक कि ब्रिटेन के सन्निबद्ध राष्ट्रों को प्रभावित करने का प्रयास भी किया कि वे उस पर भारत के संदर्भ में अनुकूल निर्णय लेने का दबाव डालें.
हैरोल्ड लास्की के लेबर पार्टी का अध्यक्ष बनने के साथ कृष्ण मेनन पार्टी को और अधिक प्रभावित कर पाए एवं 1945 में क्लीमेण्ट एटली की लेबर सरकार बनने के कुछ वर्षों बाद भारत को स्वतंत्रता मिल गई.
(अन्ना मैथ्यूज़ तिरुवनंतपुरम स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. वे नियमित रूप से प्रमुख समाचार पत्र और पत्रिकाओं में अपना योगदान देते रहे हैं)

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