आदित्य चौधरी
चौधरी रामेश्वर सिंह का रुतबा पूरी तहसील में छाया रहता है। एक ही गोत्र के साठ गाँव और उन गाँवों में एक ही कुनबे में सत्तर एकड़ की जोत चौधरी के अलावा किसी के कुनबे की नहीं है। खेत तीन चकों में बँटा है और उसके तीनों बेटों के ज़िम्मे आया है। तीनों बेटे जब शाम के वक़्त अपने घोड़ों पर खेतों की तरफ़ जाते हैं तो रास्ते चलते लोग जुहार और राम-राम की रट लगाते हैं। रास्ते में सुम्मा की कोठरी भी पड़ती है। सुम्मा को घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ सुनाई देती है तो कोठरी से निकल कर ज़ोर से कहता
“जुहारेंऽऽऽ ठाकुस्सा! जुहारेंऽऽऽ…!”। उस समय के चलन के हिसाब से ज़्यादातर लोग चौधरी साब न कहकर ठाकुर साब ही कहते हैं।
सुम्मा जुहार करके वापस कोठरी में आया तो देखा कि उसका बेटा अपनी माँ से चीख़-चीख़ लड़ रहा है और दीवार से सिर मार रहा है।
“खीर खाऊँगोऽऽऽ… खीर खाऊँगोऽऽऽ”
सुम्मा को बहुत ग़ुस्सा आया।
“उल्लू के पट्ठा… खीर कहाँ ते सुन आयौ?… तेरे बाप नेऊ कबऊ खीर खाई है सो सारे तू खाबैगो?”
खीर जैसी बेशक़ीमती और नापैद चीज़ का नाम सुम्मा ने जब अपने बेटे से सुना तो उसका भेजा फिर गया… बताओ अब ये खीर कहाँ से आएगी… सुम्मा के परिवार को कई साल पहले भरपेट खीर हाथ लगी थी। जब चौधरी ने ‘हनुमान का रोट’ किया था और उसमें खीर बनवाई थी। सुम्मा और उसके बेटे नथोली ने इतनी खीर खा ली थी कि पूरे दिन सोते रहे थे।… लेकिन उस बात को तो तीन साल हो गए…।
जूठन खाने वालों में सुम्मा का परिवार काफ़ी सीनियर माना जाता है। दूसरों को जूठन ज़मीन से उठानी पड़ती लेकिन सुम्मा को सीधे अपने कतना (टोकरी) में ही मिल जाती। ज़मीन वाली जूठन में कुत्तों का भी हिस्सा होता है। कभी-कभी सूअर भी आ जाते हैं। कुत्तों, सूअरों और इंसानों में एक स्पर्धा होती है जिसे देखकर हँसने वालों की भी कमी नहीं। जूठन खाने के आयोजन में सुम्मा का घमंड देखते ही बनता है। जब सुम्मा को दूसरों से बेहतर सुविधा मिलती तो उस दिन सुम्मा टोंटे बाबा की बग़ीची पर सुल्फियाई (चिलम) लगा आता और घर आकर अपनी बीवी में एक-आध झापड़ भी रसीद कर देता। आख़िरकार वी.आई.पी ट्रीटमेंट की भी अपनी एक अदा और गर्मी होती है।
सुम्मा की बीवी का नाम कोई नहीं जानता… सुम्मा भी नहीं… बस कोई उसे सुम्मी कहता है और कोई सुम्मा की बहू या फिर नत्थो की अम्मा। सुम्मी गोरी तो नहीं पर तीखे नाक-नक़्श होने से सुन्दर लगती है और इस वजह से उसे अपने आप को ‘बचा’ कर रखने का बड़ा भारी पराक्रम करना पड़ता है। इस चक्कर में दो बार सुम्मी की पिटाई भी हो चुकी है। कुछ साल पहले सुम्मा का मामा सुम्मा के लिए सुम्मी को ख़रीद के लाया था।
“तीन सौ रुपैया की ?… अरे मामा! छ: सौ रुपैया में खुन्नी भैंस आइ रइऐ… तुम तौ महंगी लुगाई लाए औ! मैं जा दायरी कौ कहा करुँगो?… ” सुम्मी बड़े ग़ौर से अपने दूल्हे सुम्मा को देख रही थी और मुस्करा रही थी।
“अबे तौ सादी करके बन्स तौ चलाएगा कि नईं? तेरा भाई तौ रड़ुआ हैई… तू भी रड़ुआ ही रहेगा क्या?”
ख़ैर… सुम्मी ने वंश चला दिया। चार साल में तीन बच्चे पैदा हुए। दो मर गए एक बचा। जो आज खीर के लिए सिर ठोक रहा है।
ज़मींदार रामेश्वर के यहाँ हर साल सनूनों (रक्षाबंधन) के आस-पास जब सभी रिश्तेदार इकट्ठे होते हैं तो लगता है जैसे गाँव में कोई बारात आयी हुई है। चौधरी की चार बेटियाँ हैं और सभी बच्चों की शादी ब्याह हो चुके हैं। रोज़ाना शाम को भाँग ठन्डाई घोंटी जाती है। एक-दो दिन छोड़ कर माजून (भाँग और क़िवाम से बनती है) भी बँटती है। आज दावत भी रखी गई है जिसमें खीर बनना पक्का है क्योंकि चार भैंसों का दूध तो हरिओम पटवारी के साले के यहाँ से ही गया है और ये सुम्मी ने अपनी बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत आँखों से देखा है।
“काका राम-राम!”
“राम-राम लाली! राम-राम… कैसेंऽऽऽ … ? सब ठीक-ठाक है?” राधेलाल लाइनमॅन अपनी खाट पर लेटे-लेटे ही बोला। राधेलाल बिजली विभाग में लाइनमॅन था और अब बूढ़ा हो चुका था लेकिन अभी रिटायर नहीं हुआ था। बिजली के लट्ठों पर चढ़ने काम अब वो नहीं बल्कि उसका भतीजा करता था। राधेलाल ने अपनी जवानी के दिन पास के क़स्बे में लट्ठों पर चढ़ते हुए और रातें ‘कलारी’ (शराबख़ाना) में गुज़ारी थीं। जब पाँच साल पहले गाँव में बिजली आयी तो राधेलाल को यहाँ का लाइनमॅन बना दिया गया।
“एक बात बताऔ काका?… ठाकुर सा के तौ आज पांत है रई ऐ और बत्ती तौ आरई नाँय? तौ फिर कैसें काम चलैगौ?” सुम्मी ने कुछ बनावट के साथ पूछा।
“अब का बताऊँ… सुन्दर तौ अपनी नानी कें यां भाजिगौ… मैं लट्ठा पै चढ़ूगो कैसें… मेरे पाम में चोट लग रई ऐ… आज तो मेरी कुगत है कैं रहैगी। ठाकुर सा के यां दावत है रई ऐ, छोटे ठाकुर तो मोए मारिंगेई मारिंगे।” राधेलाल ने ठंडी साँस लेते हुए दुखड़ा रोया।
“कौनसौ लट्ठा?” सुम्मी ने बनावटी भोलेपन से पूछा।
“अरे बुई… नहर की पुलिया बारौ… लाइन तौ मैंने बिजली घर ते बंद करबाई… बारै बजे तक बंद रहैगी…पर अब करूँ कहा…?”
“अपनौ पिलास मोए दै देओ… और पाईसा दै देओ… मैं बिसना ते ठीक करबाऐ दूंगी, तुम चिन्ता मत करौ।”
राधेलाल को तो जैसे जीवन दान मिल गया। लट्ठे पर चढ़ने का सुन्दर तो तीन रुपये लेता है लेकिन यहाँ मामला पेचीदा था और पिटाई का ख़तरा भी था। सुम्मी को राधेलाल ने पाँच रुपये पकड़ा दिए और प्लायर भी दे दिया। बिजली घर से बिजली की लाइन बारह बजे तक बंद थी और अब ग्यारह बज रहे हैं। सिर्फ़ एक घंटे में बिजली सही करनी थी वरना तारों में बिजली आ जायेगी और फिर लट्ठे पर चढ़ना ख़तरनाक था।
सब गड़बड़ हो गयी। बिसना तो जूड़ी-बुख़ार में पड़ा है… ‘अब… अब क्या करूँ’…सोचने की बजाय सुम्मी भागकर भगबन्ता सेठ के ट्यूबवॅल पर पहुँच गयी। ट्यूबवैल पर गूँगा ऊँघ रहा था।
“गूँगाऽऽऽ ओरे गूँगा… उठ…उठ…”
गूँगा उठा और उससे सुम्मी ‘बहरोजा’ लेकर लट्ठे के पास पहुँच गयी।
(बहरोजा एक तरह का गोंद होता है जो पुराने वक़्त में मोटर की पुली पर लगाया जाता था जिससे पुली पर चलने वाला पटा चिपक कर चले और फिसल न जाये।)।
प्लायर को उसने धोती के ठोंक में बांध लिया और चारों तरफ़ देखकर कि कोई आ-जा नहीं रहा हाथों में बहरोजा लगाकर लट्ठे पर चढ़ने लगी। धोती पहने थी सो दिक़्क़त हुई। तुरंत धोती की लांघ लगाई और चढ़ गई। बचपन से ही चिकने से चिकने पेड़ पर चढ़ जाना सुम्मी की विशेषता थी जो आज काम आ गयी। वैसे भी लट्ठा रेलगाड़ी की पुरानी पटरी वाला था जिसे पकड़ कर चढ़ना सुम्मी के लिए और आसान हो गया। ढीले तार को प्लायर से अच्छी तरह दबा दिया और उतर कर टेकचंन्द की दूक़ान पर जा कर बैठ गयी। टेकचन्द उन महान लोगों में से है जो घड़ी पहनते हैं और बड़े प्यार से लोगों को घड़ी देखकर ‘टैम’ भी बताते हैं।
समस्या ये थी कि सुम्मी तो टेकचन्द से सीधे समय पूछ नहीं सकती थी और घूँघट काढ़े खड़ी थी। उसे तो बारह बजने का इंतज़ार था जिससे पता तो चले कि मेहनत क़ामयाब हुई कि नहीं और उससे भी ज़्यादा ये कि पाँच रुपये अपने हुए कि नहीं। पाँच रुपये में तो एक सेर घी आ जाता है दूध तो ख़ूब आएगा… ढेर का ढेर… खीर तो मल्ला भरके बनेगी… बड़े मल्ला में बनाऊँगी… सुम्मी सोच रही थी।
“आ हा हा हा… बत्ती आय गई…” टेक चंद की दुकान का पंखा चल उठा। सुनते ही सुम्मी राधेलाल के घर भागी।
“अरी कहा लैबे आईऽऽऽ!” टेकचंद पुकारता ही रह गया।
“ये लो काका अपना पिलास।” ये कहकर सुम्मी पलट कर वापस चल दी।
“रुक… रुक जा” राधेलाल ने कड़क आवाज़ में कहा। सुम्मी सहम के रुक गई।
“बिसना की हालत तो जमीन पै चलबे की नायं तौ लट्ठा पै कैसें चढ़ेगौ… फिर बत्ती कौन नै सही करी?”
सुम्मी बिल्कुल चुप खड़ी रही।
“गूँगा मेरे पास आयौ… चार आना मांग कैं लैगौ… बानै मोय बताई तैने बहरोजा लयौ… नैक हाथ दिखा ?” राधेलाल ने बनावटी डाँट के साथ कहा।
सुम्मी ने अपनी हथेलियाँ दिखा दीं। हाथों पर अब भी बहरोजा लगा था।
“भई साबास ऐ री सुम्मा की बहू… तू तौ झांसी की रानी निकरी…ऐं!” राधेलाल आश्चर्य के साथ हँस के बोला।
“चल ठाकुर की दावत में आज फिर खीर बन रई ऐ… अपने छोरा ऐ खबा लइयो।”
“एक तो बात जे ऐ काका कि मेरो नाम गायत्री ऐ… और दूसरी बात जे ऐ कि हम ना जारए ठाकुर की पांत में… हम जूठौ नाय खामे"
(लेखक भारत कोश और ब्रज डिस्कवरी के संस्थापक व संपादक हैं)
चित्र गूगल से साभार
चौधरी रामेश्वर सिंह का रुतबा पूरी तहसील में छाया रहता है। एक ही गोत्र के साठ गाँव और उन गाँवों में एक ही कुनबे में सत्तर एकड़ की जोत चौधरी के अलावा किसी के कुनबे की नहीं है। खेत तीन चकों में बँटा है और उसके तीनों बेटों के ज़िम्मे आया है। तीनों बेटे जब शाम के वक़्त अपने घोड़ों पर खेतों की तरफ़ जाते हैं तो रास्ते चलते लोग जुहार और राम-राम की रट लगाते हैं। रास्ते में सुम्मा की कोठरी भी पड़ती है। सुम्मा को घोड़ों के हिनहिनाने की आवाज़ सुनाई देती है तो कोठरी से निकल कर ज़ोर से कहता
“जुहारेंऽऽऽ ठाकुस्सा! जुहारेंऽऽऽ…!”। उस समय के चलन के हिसाब से ज़्यादातर लोग चौधरी साब न कहकर ठाकुर साब ही कहते हैं।
सुम्मा जुहार करके वापस कोठरी में आया तो देखा कि उसका बेटा अपनी माँ से चीख़-चीख़ लड़ रहा है और दीवार से सिर मार रहा है।
“खीर खाऊँगोऽऽऽ… खीर खाऊँगोऽऽऽ”
सुम्मा को बहुत ग़ुस्सा आया।
“उल्लू के पट्ठा… खीर कहाँ ते सुन आयौ?… तेरे बाप नेऊ कबऊ खीर खाई है सो सारे तू खाबैगो?”
खीर जैसी बेशक़ीमती और नापैद चीज़ का नाम सुम्मा ने जब अपने बेटे से सुना तो उसका भेजा फिर गया… बताओ अब ये खीर कहाँ से आएगी… सुम्मा के परिवार को कई साल पहले भरपेट खीर हाथ लगी थी। जब चौधरी ने ‘हनुमान का रोट’ किया था और उसमें खीर बनवाई थी। सुम्मा और उसके बेटे नथोली ने इतनी खीर खा ली थी कि पूरे दिन सोते रहे थे।… लेकिन उस बात को तो तीन साल हो गए…।
जूठन खाने वालों में सुम्मा का परिवार काफ़ी सीनियर माना जाता है। दूसरों को जूठन ज़मीन से उठानी पड़ती लेकिन सुम्मा को सीधे अपने कतना (टोकरी) में ही मिल जाती। ज़मीन वाली जूठन में कुत्तों का भी हिस्सा होता है। कभी-कभी सूअर भी आ जाते हैं। कुत्तों, सूअरों और इंसानों में एक स्पर्धा होती है जिसे देखकर हँसने वालों की भी कमी नहीं। जूठन खाने के आयोजन में सुम्मा का घमंड देखते ही बनता है। जब सुम्मा को दूसरों से बेहतर सुविधा मिलती तो उस दिन सुम्मा टोंटे बाबा की बग़ीची पर सुल्फियाई (चिलम) लगा आता और घर आकर अपनी बीवी में एक-आध झापड़ भी रसीद कर देता। आख़िरकार वी.आई.पी ट्रीटमेंट की भी अपनी एक अदा और गर्मी होती है।
सुम्मा की बीवी का नाम कोई नहीं जानता… सुम्मा भी नहीं… बस कोई उसे सुम्मी कहता है और कोई सुम्मा की बहू या फिर नत्थो की अम्मा। सुम्मी गोरी तो नहीं पर तीखे नाक-नक़्श होने से सुन्दर लगती है और इस वजह से उसे अपने आप को ‘बचा’ कर रखने का बड़ा भारी पराक्रम करना पड़ता है। इस चक्कर में दो बार सुम्मी की पिटाई भी हो चुकी है। कुछ साल पहले सुम्मा का मामा सुम्मा के लिए सुम्मी को ख़रीद के लाया था।
“अबे तौ सादी करके बन्स तौ चलाएगा कि नईं? तेरा भाई तौ रड़ुआ हैई… तू भी रड़ुआ ही रहेगा क्या?”
ख़ैर… सुम्मी ने वंश चला दिया। चार साल में तीन बच्चे पैदा हुए। दो मर गए एक बचा। जो आज खीर के लिए सिर ठोक रहा है।
ज़मींदार रामेश्वर के यहाँ हर साल सनूनों (रक्षाबंधन) के आस-पास जब सभी रिश्तेदार इकट्ठे होते हैं तो लगता है जैसे गाँव में कोई बारात आयी हुई है। चौधरी की चार बेटियाँ हैं और सभी बच्चों की शादी ब्याह हो चुके हैं। रोज़ाना शाम को भाँग ठन्डाई घोंटी जाती है। एक-दो दिन छोड़ कर माजून (भाँग और क़िवाम से बनती है) भी बँटती है। आज दावत भी रखी गई है जिसमें खीर बनना पक्का है क्योंकि चार भैंसों का दूध तो हरिओम पटवारी के साले के यहाँ से ही गया है और ये सुम्मी ने अपनी बड़ी-बड़ी ख़ूबसूरत आँखों से देखा है।
“काका राम-राम!”
“राम-राम लाली! राम-राम… कैसेंऽऽऽ … ? सब ठीक-ठाक है?” राधेलाल लाइनमॅन अपनी खाट पर लेटे-लेटे ही बोला। राधेलाल बिजली विभाग में लाइनमॅन था और अब बूढ़ा हो चुका था लेकिन अभी रिटायर नहीं हुआ था। बिजली के लट्ठों पर चढ़ने काम अब वो नहीं बल्कि उसका भतीजा करता था। राधेलाल ने अपनी जवानी के दिन पास के क़स्बे में लट्ठों पर चढ़ते हुए और रातें ‘कलारी’ (शराबख़ाना) में गुज़ारी थीं। जब पाँच साल पहले गाँव में बिजली आयी तो राधेलाल को यहाँ का लाइनमॅन बना दिया गया।
“एक बात बताऔ काका?… ठाकुर सा के तौ आज पांत है रई ऐ और बत्ती तौ आरई नाँय? तौ फिर कैसें काम चलैगौ?” सुम्मी ने कुछ बनावट के साथ पूछा।
“अब का बताऊँ… सुन्दर तौ अपनी नानी कें यां भाजिगौ… मैं लट्ठा पै चढ़ूगो कैसें… मेरे पाम में चोट लग रई ऐ… आज तो मेरी कुगत है कैं रहैगी। ठाकुर सा के यां दावत है रई ऐ, छोटे ठाकुर तो मोए मारिंगेई मारिंगे।” राधेलाल ने ठंडी साँस लेते हुए दुखड़ा रोया।
“कौनसौ लट्ठा?” सुम्मी ने बनावटी भोलेपन से पूछा।
“अरे बुई… नहर की पुलिया बारौ… लाइन तौ मैंने बिजली घर ते बंद करबाई… बारै बजे तक बंद रहैगी…पर अब करूँ कहा…?”
“अपनौ पिलास मोए दै देओ… और पाईसा दै देओ… मैं बिसना ते ठीक करबाऐ दूंगी, तुम चिन्ता मत करौ।”
राधेलाल को तो जैसे जीवन दान मिल गया। लट्ठे पर चढ़ने का सुन्दर तो तीन रुपये लेता है लेकिन यहाँ मामला पेचीदा था और पिटाई का ख़तरा भी था। सुम्मी को राधेलाल ने पाँच रुपये पकड़ा दिए और प्लायर भी दे दिया। बिजली घर से बिजली की लाइन बारह बजे तक बंद थी और अब ग्यारह बज रहे हैं। सिर्फ़ एक घंटे में बिजली सही करनी थी वरना तारों में बिजली आ जायेगी और फिर लट्ठे पर चढ़ना ख़तरनाक था।
सब गड़बड़ हो गयी। बिसना तो जूड़ी-बुख़ार में पड़ा है… ‘अब… अब क्या करूँ’…सोचने की बजाय सुम्मी भागकर भगबन्ता सेठ के ट्यूबवॅल पर पहुँच गयी। ट्यूबवैल पर गूँगा ऊँघ रहा था।
“गूँगाऽऽऽ ओरे गूँगा… उठ…उठ…”
गूँगा उठा और उससे सुम्मी ‘बहरोजा’ लेकर लट्ठे के पास पहुँच गयी।
(बहरोजा एक तरह का गोंद होता है जो पुराने वक़्त में मोटर की पुली पर लगाया जाता था जिससे पुली पर चलने वाला पटा चिपक कर चले और फिसल न जाये।)।
प्लायर को उसने धोती के ठोंक में बांध लिया और चारों तरफ़ देखकर कि कोई आ-जा नहीं रहा हाथों में बहरोजा लगाकर लट्ठे पर चढ़ने लगी। धोती पहने थी सो दिक़्क़त हुई। तुरंत धोती की लांघ लगाई और चढ़ गई। बचपन से ही चिकने से चिकने पेड़ पर चढ़ जाना सुम्मी की विशेषता थी जो आज काम आ गयी। वैसे भी लट्ठा रेलगाड़ी की पुरानी पटरी वाला था जिसे पकड़ कर चढ़ना सुम्मी के लिए और आसान हो गया। ढीले तार को प्लायर से अच्छी तरह दबा दिया और उतर कर टेकचंन्द की दूक़ान पर जा कर बैठ गयी। टेकचन्द उन महान लोगों में से है जो घड़ी पहनते हैं और बड़े प्यार से लोगों को घड़ी देखकर ‘टैम’ भी बताते हैं।
समस्या ये थी कि सुम्मी तो टेकचन्द से सीधे समय पूछ नहीं सकती थी और घूँघट काढ़े खड़ी थी। उसे तो बारह बजने का इंतज़ार था जिससे पता तो चले कि मेहनत क़ामयाब हुई कि नहीं और उससे भी ज़्यादा ये कि पाँच रुपये अपने हुए कि नहीं। पाँच रुपये में तो एक सेर घी आ जाता है दूध तो ख़ूब आएगा… ढेर का ढेर… खीर तो मल्ला भरके बनेगी… बड़े मल्ला में बनाऊँगी… सुम्मी सोच रही थी।
“आ हा हा हा… बत्ती आय गई…” टेक चंद की दुकान का पंखा चल उठा। सुनते ही सुम्मी राधेलाल के घर भागी।
“अरी कहा लैबे आईऽऽऽ!” टेकचंद पुकारता ही रह गया।
“ये लो काका अपना पिलास।” ये कहकर सुम्मी पलट कर वापस चल दी।
“रुक… रुक जा” राधेलाल ने कड़क आवाज़ में कहा। सुम्मी सहम के रुक गई।
“बिसना की हालत तो जमीन पै चलबे की नायं तौ लट्ठा पै कैसें चढ़ेगौ… फिर बत्ती कौन नै सही करी?”
सुम्मी बिल्कुल चुप खड़ी रही।
“गूँगा मेरे पास आयौ… चार आना मांग कैं लैगौ… बानै मोय बताई तैने बहरोजा लयौ… नैक हाथ दिखा ?” राधेलाल ने बनावटी डाँट के साथ कहा।
सुम्मी ने अपनी हथेलियाँ दिखा दीं। हाथों पर अब भी बहरोजा लगा था।
“भई साबास ऐ री सुम्मा की बहू… तू तौ झांसी की रानी निकरी…ऐं!” राधेलाल आश्चर्य के साथ हँस के बोला।
“चल ठाकुर की दावत में आज फिर खीर बन रई ऐ… अपने छोरा ऐ खबा लइयो।”
“एक तो बात जे ऐ काका कि मेरो नाम गायत्री ऐ… और दूसरी बात जे ऐ कि हम ना जारए ठाकुर की पांत में… हम जूठौ नाय खामे"
(लेखक भारत कोश और ब्रज डिस्कवरी के संस्थापक व संपादक हैं)
चित्र गूगल से साभार