फ़िरोज़ बख्त अहमद
मौलाना आजाद न केवल आपसी भाईचारे के प्रतीक थे, बल्कि राष्ट्रीय सौहार्द का जीता-जागता उदाहरण थे। यदि आज विश्व में भारतीय इस्लाम को एक आदर्श के तौर पर दर्शाया जा रहा है तो इस का श्रेय मौलाना आज़ाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना ओबैदुल्लाह सिंधी, मौलाना अब्दुल वहीद सिद्दीकी आदि जैसे देशभक्त नेताओं को जाता है। मौलाना आज़ाद की लेखनी में एक ऐसा जादू था, जो सर चढ़कर बोलता था।
उनके लेखों से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे वर्षों पूर्व उन्हें इस बात का आभास हो गया था कि यदि भारत का विभाजन हुआ तो उससे न तो पाकिस्तान में मुसलमान और न ही भारत में हिन्दू वर्ग खुश रहेगा। वे मानते थे कि भारत का 95 प्रतिशत हिन्दू धर्मनिरपेक्ष और सौहार्द की भावना में विश्वास रखता है।
लिखने-पढ़ने का चाव आज़ाद को पागलपन की हद तक था। जब वे ‘दर्स-ए-निज़ामी’ के छात्र थे तो सन् 1900 में ही उन्होंने अपना अख़बार ‘अहसन’ निकाला, मगर यह अधिक दिन तक न चल सका। फिर भी बारह वर्ष की आयु में ऐसा कार्य करने पर उन्हें बड़ी शाबाशी दी गई। इसी उम्र में वे प्रकाशक बन गये थे तथा सन् 1900 में ‘नौरंगे-आलम’ नामक कविताओं की एक पत्रिका निकाली, जो आठ मास तक निकलती रही। 16 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अपने ही एक पत्र ‘लिसानुस-सिदक़’ का संपादन शुरू किया, जिसका प्रमुख लक्ष्य समाज सुधार को बढ़ावा देना, उर्दू विकास करना तथा साहित्यिक रुचि जाग्रत करना था।
इसके पश्चात् उन्होंने भिन्न पत्रिकाओं व समाचार पत्रों के लिये लेख लिखने प्रारम्भ किये। 1902 में ‘मुख़ज़िन’ (लाहौर) के अंक में जब उर्दू पत्रकारिता पर उनका लेख, ‘फ़ने अख़बार नवीसी’ काफी चर्चित हुआ। उस समय के जाने-माने आलिम व लेखक अल्लामा शिब्ली नोमानी ने उनके लेख पढ़े तो बड़े प्रभावित हुए। एक लेखक सम्मेलन में जब उन्होंने मौलाना आज़ाद को देखा तो समझे कि उनके पुत्र हैं और बोले, ‘बरख़ुरदार! आपके पिता मौलाना आज़ाद क्यों नहीं पधारे?’ पास खड़े लोगों ने जब वास्तविकता बताई तो शिब्ली आश्चर्यचकित रह गये कि इतनी छोटी आयु में इतना ज्ञान।
यह मौलाना आज़ाद के लिखने-पढ़ने का चाव ही था कि उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई। वास्तव में 1912 में आज़ाद ने एक उर्दू साप्ताहिक, ‘अल-हिलाल’ शुरू किया। इसमें भिन्न प्रकार के लेख प्रकाशित हुआ करते थे। विशेष रूप से देश-प्रेम के लेख और भारत को अंग्रेजों के चुंगल से छुड़ाने के। गांधीजी को मौलाना का यह कार्य बहुत पसंद आया। इस अखबार को अंग्रेज सरकार ने जब्त कर लिया, परंतु 1916 में पुन: ‘अल-बलाग’ के नाम से इसे मौलाना ने प्रकाशित किया और उस समय इसकी प्रसार संख्या 29,000 पहुंच गई। अंग्रेजों ने एक बार फिर उसे बंद कर दिया। दो-देश वाले फार्मूले के मसीहा मुहम्मद अली जिन्नाह के भड़काऐ लोगों से अनेक बार आज़ाद ने आग्रह किया कि जिन्नाह का सौदा घाटे का सौदा है। पर तब कई लोग होश की नहीं, जोश की बात कर रहे थे। उनकी बात को वज़न नहीं दिया गया। उधर जिन्नाह ने अपने धुंआधार भाषणों व व्याख्यानों से कई लोगों की बुद्घि भ्रष्ट कर दी थी। जिस समय विभाजन हुआ, मौलाना आज़ाद ने जामा मस्जिद की सीढ़ियों से दिल्ली के ही नहीं अपितु पूर्ण भारत के मुस्लिम सम्प्रदाय से एक दिल को छू लेने वाले भाषण में आग्रह किया कि जो लोग पाकिस्तान चले गए, सो गए। उन्हें भूलना ही बेहतर है। उनके भाषण को सुन कुछ लोगों ने अपने पैर रोक दिये थे, पर अधिकतर लोग फिर भी चले गए।
‘इंडिया विन्स फ्रीडम’ में आजाद ने लिखा था कि विभाजन का सपना 25-30 वर्ष में ही टूट जायेगा। ऐसा हुआ भी, क्योंकि यह विभाजन अप्राकृतिक था। उन मुसलमानों से मौलाना बड़े नाराज़ थे, क्योंकि उन्होंने बजाये उनके और गाँधीजी के इब्रुलवक्त (अवसरवादी) जिन्नाह का साथ दिया। अपने एक संस्मरण में वयोवृद्घा स्वतन्त्रता सेनानी अरूणा आसफ़ अली ने लिखा है कि जब भारत को आज़ादी मिली तो 14 अगस्त 1947 की रात को दूसरे नेता तो ख़ुश थे, मगर मौलाना आज़ाद रो रहे थे क्योंकि उनके निकट यह विभाजन बड़ा भयानक था।
यूं तो आजादी के बाद वे शिक्षामंत्री बने और 1952 में रामपुर व 1957 में गुड़गांव से चुनाव जीते, मगर उन में उत्साह समाप्त हो चुका था। फिर भी उन्होंने अनेक संगीत, नाटक अकादमियां, विज्ञान विभाग व महाविद्यालय खोले। 22 फ़रवरी 1958 को उनका देहान्त हुआ तो पण्डित नेहरू ने कहा कि मौलाना आज़ाद जैसा व्यक्ति अब कभी पैदा नहीं होगा।
(लेखक अध्यापक हैं)