अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जाएंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जाएंगे

सामने-चश्मे-गुहरबार के, कह दो, दरिया
चढ़ के अगर आये तो नज़रों से उतर जाएंगे

ख़ाली ऐ चारागरों होंगे बहुत मरहमदान
पर मेरे ज़ख्म नहीं ऐसे कि भर जाएंगे

पहुंचेंगे रहगुज़रे-यार तलक हम क्यूंकर
पहले जब तक न दो-आलम से गुज़र जाएंगे

आग दोजख़ की भी हो आएगी पानी-पानी
जब ये आसी अरक़े-शर्म से तर जाएंगे

हम नहीं वह जो करें ख़ून का दावा तुझपर
बल्कि पूछेगा ख़ुदा भी तो मुकर जाएंगे

रुख़े-रौशन से नक़ाब अपने उलट देखो तुम
मेहरो-मह नज़रों से यारों के उतर जाएंगे

'ज़ौक़' जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उनको मैख़ाने में ले लाओ, संवर जाएंगे
-ज़ौक़


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सत्तार अहमद ख़ान

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