संजय कुमार
जल संसाधन मंत्रालय देश में जल संसाधनों के संपोषणीय विकास और प्रभावी प्रबंधन के लिए नीति निर्देश और कार्यक्रमों के निर्धारण के वास्ते उत्तरदायी है।
अनुमान है कि देश में कुल 40 खरब घनमीटर वर्षा होती है और वाष्पीकरण के कारण होने वाले ह्रास के बाद देश में प्रतिवर्ष लगभग 18 खरब 69 अरब घनमीटर पानी उपलब्ध होता है, परन्तु भू-जल वैज्ञानिक और भौगोलिक विशेषताओं की सीमाओं के कारण केवल 11 खरब 23 अरब घन मीटर पानी ही उपलब्ध रहने का अनुमान है। इसमें 6 खरब 90 अरब घनमीटर सतही जल और 4 खरब 33 अरब घनमीटर पुनर्भरण योग्य भू-जल शामिल है। परन्तु स्थानिक और सामयिक विविधताओं के कारण पानी की उपलब्धता पर असर पड़ता है।
जनसंख्या में वृध्दि के कारण प्रति व्यक्ति पानी की उपलब्धता दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है। 1951 में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता अनुमानत: 5177 घनमीटर थी, जो अब घट कर 1700 घन मीटर रह गई है। इसी के साथ-साथ जल संसाधनों के विकास की कतिपय अनियोजित गतिविधियों के कारण पानी का जो दोहन हो रहा है, वह लम्बे समय तक साथ नहीं दे सकता। इससे पानी की गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही हे।
राष्ट्रीय एकीकृत जल संसाधन विकास आयोग (एनसीआईडब्ल्यूआरडी) का आकलन है कि 83 प्रतिशत पानी का उपयोग सिंचाई में होता है, जबकि शेष घरेलू, औद्योगिक और अन्य कार्यों में प्रयोग किया जाता है। आयोग ने 2010, 2025 और 2050 के लिए पानी की अनुमानित मांग का आकलन किया है। कम और अधिक मांग जैसी दोनों ही स्थितियों का अनुमान लगाया गया है। एनसीआईडब्ल्यूआरडी ने जो अनुमान लगाया है उसके अनुसार 2050 तक अधिक मांग वाली स्थिति में 11 खरब 80 अरब घनमीटर (1180 बीसीएम) और कम मांग की स्थिति में 9 खरब 73 अरब घनमीटर पानी की आवश्यकता होगी। आकलन करते हुए आयोग यह मान कर चला है कि सतही और भू-जल प्रणालियों की दक्षता के साथ ही पानी के उपयोग, विशेषकर कृषि के क्षेत्र में, दक्षता में सुधार आ चुका होगा। अतएव, पानी के पूर्ण रूपेण दक्षतापूर्वक उपयोग के लिए आधुनिक प्राद्योगिकियों का अपनाया जाना बहुत महत्त्वपूर्ण है।
नदियों और नहरों के संजाल, भू-जल संसाधनों के प्रभावी उपयोग और सूखा रोधी उपायों, बीजों की विविधताओं जैसी विभिन्न कृषि पध्दतियों के इस्तेमाल स्प्रिकलर (फव्वारा) और ड्रिप (टपक) सिंचाई जैसी जल बचाव सिंचाई पध्दतियों के उपयोग और वर्षा जल संचयन और भंडारण के जरिए उसके प्रभावी प्रयोग के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में पानी की बढती मांग को काफी हद तक पूरा कर लिया गया है। परन्तु यह अनुभव किया गया है कि कृषि क्षेत्र में पानी के प्रभावी उपयोग की आधुनिक पध्दतियों एवं प्रौद्योगिकियों के बारे में जागरूकता के अभाव और असमानता के कारण काफी पानी बर्बाद हो रहा है। यह अनुभव किया गया है कि कृषि से संबंधित किसी भी कार्य को सार्थक एवं लोकव्यापी बनाने के लिए उसमें किसानों की भागीदारी जरूरी है। मंत्रालय ने इसीलिए कृषक सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम (एफपीएआरपी) की विचार योजना बनाई है। मंत्रालय ने इस उद्देश्य के लिए जल संसाधन मंत्री की अध्यक्षता में भू-जल के कृत्रिम रीचार्ज पर एक परामर्शदात्री परिषद का गठन किया है। परिषद की पहली बैठक 22 जुलाई 2006 को नई दिल्ली में विज्ञान भवन में हुई, जिसका उद्धाटन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने किया। अपने सम्बोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि हमें पानी के उपयोग में यथासंभव कमी लानी होगी और ऐसी प्रौद्योगिकी और विज्ञान में निवेश करना होगा जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि हम ऐसी भी फसलें ले सकते हैं, जिनमें पानी की कम खपत होती है। दूसरे शब्दों में, बूंद-दर-बूंद फसल की कीमत आंकने के तरीके ढूंढने होंगे। प्रधानमंत्री के सुझावों पर अमल करने के लिए डॉ. एम.एस. स्वामीनाथन की अध्यक्षता में एक उप समिति का गठन किया गया। समिति को प्रति बूंद अधिक फसल और आय पर रिपोर्ट तैयार करने का कार्य सौंपा गया है।
उपसमिति की सिफारिशों के आधार पर जल संसाधन मंत्रालय ने 24.46 करोड़ रुपए की लागत से 5000 प्रदर्शन स्थलों पर कृषक सहभागिता कार्रवाई अनुसंधान कार्यक्रम की स्वीकृति दी है। इस कार्यक्रम पर 25 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के 375 जिलों में अमल किया जा रहा है और इसमें 60 कृषि विश्वविद्यालय, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की संस्थायें, अन्तर्राष्ट्रीय अर्ध-शुष्क-ऊष्ण कटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (इक्रिसेट आईसीआर आईएसएटी), जल एवं भूमि प्रबंधन संस्थायें और अनेक गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) सहयोग कर रहे हैं ताकि चावल सघनीकरण प्रणाली (एसआरआई) प्रौद्योगिकी, एकीकृत पोषकतत्व प्रबंधन प्रौद्योगिकी, सूक्ष्म सिंचाई पध्दति (स्प्रिंकलर, ड्रिप सिंचाई) और मृदा आर्द्रता संरक्षण उपायों जैसी पध्दतियों और प्रौद्योगिकियों को अपनाकर पानी की प्रति बूंद उपज और आय में वृध्दि कर सकें। प्रत्येक कार्यक्रम के लिए न्यूनतम एक हेक्टेयर क्षेत्र निर्धारित है और उस पर भागीदारी की उस भावना के अनुसार अमल किया जाता है कि कृषक परिवार उसे अपना ही कार्यक्रम समझकर अपनायें।
यह देखा गया है कि इन प्रौद्योगिकियों के अपनाने से फसल के उत्पादन में वृध्दि भी हुई है और पानी की बचत भी। उदाहरणार्थ, कपास, केला, मूंगफली और मिर्च के उत्पादन में ड्रिप (टपक) सिंचाई के उपयोग से 14 से 100 प्रतिशत फसलोउत्पादन बढा है और 26 प्रतिशत से 75 प्रतिशत तक पानी की बचत हुई है। इसी प्रकार जौ, प्याज, गन्ना, सोयाबीन आदि की खेती में स्प्रिंकलर (फव्वारा) सिंचाई पध्दति के उपयोग से उत्पादन में 12 से 166 प्रतिशत की वृध्दि हुई है, साथ ही 18 से 80 प्रतिशत पानी की बचत भी हुई है। उचित एवं उपयुक्त उपायों के अपनाने से मिट्टी की नमी के संरक्षण में भी लाभ हुआ है। उचित फसलों को पत्तों से ढंकने, और मेड बनाने जैसी विभिन्न पध्दतियों के कारण उपज में 2 से लेकर 150 प्रतिशत तक वृध्दि हुई और साथ ही आर्द्रता में भी 11 प्रतिशत से 46 प्रतिशत की बचत हुई।
आशा है कि इन प्रदर्शन कार्यक्रमों से किसानों को यह बात समझने में आसानी होगी कि कृषि कार्यों में आधुनिक प्रौद्योगिकियों और पध्दतियों के उपयोग से न केवल आर्थिक रूप से लाभ होगा, बल्कि पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से भी यह लाभप्रद होगा। इससे न केवल उपलब्ध जल संसाधनों पर दबाव कम होगा बल्कि उपज में भी वृध्दि होगी, जो देश और दुनिया की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है।