जगदीश्‍वर चतुर्वेदी
कार्ल मार्क्स का आज जन्मदिन है। यह ऐसे मनीषी का जन्मदिन है जो आज भी दुनिया के वंचितों का कण्ठहार बना हुआ है। आज भी मार्क्स की लिखी ‘पूंजी‘ दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली किताब है। आज भी पूंजीवाद और शोषण का कोई भी विमर्श मार्क्स के नजरिए की उपेक्षा नहीं कर सकता। मार्क्स नहीं हैं लेकिन उनके विचार और विश्वदृष्टि समूची मानवता को आलोकित किए हुए है।
मार्क्स के पक्ष में जितना लिखा गया है उससे कहीं ज्यादा विपक्ष में लिखा गया है। कैपीटलिज्म के किसी भी पहलू पर विचार करें और आप किसी भी स्कूल के अनुयायी हों आपको मार्क्स से संवाद करना होगा। मानवता को शोषण से मुक्त करने का रास्ता या नजरिया मार्क्स की अवहेलना करके बनाना सभव नहीं है। शोषण से मुक्त होना चाहते हैं तो मार्क्स के पास जाना होगा।
मार्क्स की विश्वव्यापी प्रासंगिकता का कारण क्या है? मार्क्स के बारे में हम जितना सच जानते हैं उससे ज्यादा असत्य जानते हैं। मार्क्स के नाम पर मिथमेकिंग और विभ्रमों का व्यापक प्रचार किया गया है। इसमें उनकी ज्यादा भूमिका है जो मार्क्स और मार्क्सवाद को फूटी आंख देखना नहीं चाहते।
मार्क्स के बारे में कोई भी चर्चा फ्रेडरिक एंगेल्स के बिना अधूरी है। मार्क्स-एंगेल्स आधुनिकयुग के आदर्श दोस्त और कॉमरेड थे। काश सबको एंगेल्स जैसा दोस्त मिले। मार्क्स बेहद संवेदनशील पारिवारिक प्राणी थे और गृहस्थ थे। इससे यह मिथ टूटता है कि कम्युनिस्टों के परिवार नहीं होता, वे संवेदनशील नहीं होते।
मार्क्स अपने बच्चों के साथ घंटों समय गुजारा करते थे और तरह-तरह की साहित्यिक कृतियां उन्हें कंठस्थ थीं जिन्हें अपने बच्चों को सुनाया करते थे। खाली समय निकालकर नियमित बच्चों पर खर्च करते थे। इससे यह भी मिथ टूटता है कि मार्क्सवादी बच्चों का ख्याल नहीं रखते।
मार्क्स अपनी पत्नी को बेहद प्यार करते थे और उनकी पत्नी उनके समस्त मार्क्सवादी क्रियाकलापों की सक्रिय सहभागी थी, वह मार्क्स के काम की महत्ता से वाकिफ थी और स्वयं बेहतरीन बुद्धिजीवी थी। मार्क्स की जीवनशैली सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत से परिचालित थी।
भारत में ऐसे लोग हैं जो आए दिन अज्ञानता के कारण यह कहते हैं कि मार्क्स तो जनतंत्र के पक्षधर नहीं थे। वे तो तानाशाही के पक्षधर थे। यह बात एकसिरे से गलत और तथ्यहीन है। यह भी प्रचार किया जाता है कि मार्क्स की जनवाद में आस्था नहीं थी। नागरिक समाज में आस्था नहीं थी। आइए देखें तथ्य क्या कहते हैं।
कार्ल मार्क्स ने मजदूरवर्ग के नजरिए से लोकतंत्र और नागरिक अधिकारों पर विचार किया है। मार्क्स ने ‘ऑन दि जुईस क्वेश्चन’ (1843) पर विचार करते हुए नागरिक समाज पर लिखा है कि नागरिक अधिकार ऐसे व्यक्ति के अधिकार हैं जो ‘अहंकारी मनुष्य है, जो अन्य व्यक्ति से कटा हुआ व्यक्ति है, समाज से कटा हुआ व्यक्ति है।’ यह ऐसा व्यक्ति है जो ‘निजी आकांक्षाओं’ से घिरा है। यह आत्मकेन्द्रित व्यक्ति है। यह आत्मनिर्भर एवं अलग-थलग पड़ा हुआ व्यक्ति है।
मार्क्स ने व्यक्ति के अधिकारों और नागरिक अधिकारों की व्याख्या करते हुए लिखा नागरिक अधिकार राजनीतिक अधिकार हैं,जबकि व्यक्ति के अधिकार गैर राजनीतिक अधिकार हैं। राजनीतिक अधिकारों का उपयोग सामूहिक तौर पर होता है। इसकी अंतर्वस्तु राजनीतिक समुदाय और राज्य की हिस्सेदारी से बनती है।
राजनीतिक अधिकारों में सबसे बड़ा अधिकार है ‘संपत्ति का अधिकार’। दूसरा अधिकार है आनंद प्राप्ति का अधिकार। मार्क्स ने यह भी लिखा कि निजी हितों का विस्तार करने वाले अधिकार ही हैं जो नागरिक समाज की आधारशिला रखते हैं। मार्क्स का मानना था कि अधिकार स्वयं चलकर नहीं आते बल्कि उन्हें अर्जित करना होता है। अधिकार जन्मना नहीं होते उन्हें संघर्ष करके पाना होता है।
कार्ल मार्क्स ने ‘हीगेल के न्याय दर्शन की आलोचना में योगदान’ (1843) कृति में आधुनिक राज्य, कानून, नागरिक समाज आदि विषयों पर हीगेल के नजरिए की आलोचना करते हुए फायरबाख के नजरिए का व्यापक इस्तेमाल करते हुए लिखा ‘हीगेल का दर्शन आध्यात्मवाद का अंतिम शरणस्थल है। हमें लक्षण के स्थान पर विषय को लेना चाहिए और विषय के स्थान पर पदार्थ और सिद्धांत को लेना चाहिए; कहने का तात्पर्य यह है कि सपाट, नग्न और बिना मिलावट का सत्य प्राप्त करने के लिए हमें अटकलबाजी के दर्शन को पूरी तरह खारिज कर देना चाहिए।’
(लेखक वामपंथी चिंतक और कलकत्‍ता वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हि‍न्‍दी वि‍भाग में प्रोफेसर हैं)

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