मौसमी चक्रवर्ती
भारत की तटीय सीमा की लंबाई 7517 कि.मी. है और इसका 95 प्रतिशत व्यापार
समुद्र के रास्ते होता है। जहाजों और पोतों के नौवहन में मार्गदर्शन के लिये
प्रकाशस्तंभों का महानिदेशालय महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है और इस अत्यंत महत्वपूर्ण
आर्थिक गतिविधि को सुविधाजनक बनाता है।
आज के सदंर्भ में नौचालन एक
सामान्य शब्दावली है। जब व्यापार की धारणा का विकास हुआ और लोग नयी जमीन की
तलाश के लिये समुद्र में उतरने लगे, तो घर लौटने के लिये नौचालन का महत्व अत्यंत
बढ़ गया। अपने आदिम रूप में प्रकाश स्तंभ दिन में एक टीले के रूप में दिखायी देते
थे जिन पर रात में लकड़ी जलाकर नौकाओं का रास्ता दिखाने का काम किया जाता था।
ज्ञात इतिहास में सबसे पहले
प्रकाश स्तंभ का जो उल्लेख मिलता है, उसका निर्माण ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी
में, 280 और 24 वर्ष ईसापूर्व के बीच मिस्र के अलेक्जेन्ड्रिया में फरोआ में
टोलमी द्वितीय ने बनवाया था। विभिन्न लोगों ने इसकी ऊंचाई का जो अनुमान लगाया है
उसके अनुसार इस प्रकाश स्तंभ की ऊंचाई 393 फिट और 450 फिट के बीच थी। अनेक वर्षों
तक यह पृथ्वी पर मानवनिर्मित सबसे ऊंची इमारत बनी रही। प्राचीन विश्व के सात आश्चर्यों
में से एक था यह प्रकाश स्तंभ ।जहां तक भारत का प्रश्न है, प्रकाशस्तंभ के बारे
में पहला उल्लेख तमिल महाकाव्य सिल्वाधिकरम में मिलता है। दूसरी ईस्वी में
रचित इस महाकाव्य में उल्लेख है कि कावेरीपट्टनम के पास एक सुन्दर प्रकाशस्तंभ
बनाया गया था ताकि जहाज आसानी से तत्कालीन बंदरगाह पूभपुहार का पता लगा सकें। इस
स्थान के ऐतिहासिक महत्व को मान्यता प्रदान करते हुए और साथ ही स्थानीय लोगों
तथा नौवहन की आवश्यकताओं को देखते हुए पूभपुहार में एक नये प्रकाशस्तंभ का
निर्माण किया गया है जिसका लोकार्पण राष्ट्र को अक्तूबर 2010 में किया गया।
ब्रिटिश भारत में प्रकाशस्तंभों
के प्रबंधन की प्रणाली में म्यामां , पाकिस्तान, बंगलादेश और बहुत से रजवाड़े
शामिल थे। बाद में, औपनिवेशकि सरकार ने लंदन, कराची, बम्बई, मद्रास, कलकत्ता और
रंगून के छ: प्रकाश स्तंभ जिलों में 32 प्रकाश स्तंभ बनवाने का निर्णय लिया।
प्रकाशस्तंभ अधिनियम, 1927 के प्रभाव में आने के बाद अदनजिले के प्रकाशस्तंभों
का प्रशासन इंगलैंड की साम्राज्ञी के शासन को सौंप दिया गया, परन्तु फारस की
खाड़ी के प्रकाश सेवा कोष के पैसे से बने फारस की खाड़ी के प्रकाशस्तंभों का
प्रशासन और प्रबंधन तत्कालीन भारत सरकार के हाथों में बना रहा।
स्वतंत्रता के समय केवल 17
सामान्य प्रकाशस्तंभों का प्रशासन भारत सरकार के हाथों में था। अन्य 50 प्रकश
स्तंभों का प्रशासन देशीरजवाड़ों के समुद्र तटीय रियासतों से ले लिया गया था।
विकास गतिविधियां चलाने के लिये परिवहन मंत्रालय के अंतर्गत एक प्रकाशस्तंभ विभाग
गठित किया गया था, वर्ष 2002 में इसका नया नाम देकर महानिदेशालय प्रकाशस्तंभ और
प्रकाशपोत बना दिया गया और इसे सड़क परिवहन मंत्रालय के अधीन विभाग बना दिया गया।
वर्तमान में निदेशालय के अंतर्गत 179 प्रकाशस्तंभ हैं। इसके अलावा 23 डिफरेन्शियल
ग्लोबल पोजीशनिंग प्रणाली, 64 रडार वेफन्स प्रकाश स्तंभ और 23 गहरे सागर के
जीवन रक्षक नौकायें हैं।
अनेक प्रकाश स्तंभों में डिफरेन्शियल
ग्लोबल पोजीशनिंग प्रणाली लगी हुई है ताकि इन प्रणालियों से सुसज्जित आधुनिक
जहाजों को स्थिति का ज्ञान सटीक रूप से हो सके। निदेशालय और डीजीपीएस श्रृंखला के
23 स्टेशन समूचे भारतीय जल क्षेत्र को कवर करते हैं ओर सागर तट से पांच मीटर तक
की स्थिति से लेकर 100 समुद्री मील (नाटिकल माइल्स) तक रास्ते की सटीक जानकारी
देते हैं।
निदेशालय की योजना दिखाई देने
वाले मौजूदा यंत्रों और रेडियो यंत्रों को सुधारने की है। इसके अतिरिक्त समूचे
तटीय क्षेत्र के किनारे नए प्रकाश स्तंभों के निर्माण की भी योजना है। निदेशालय
का उद्देश्यों 2017 के अंत तक समूचे तटीय क्षेत्र में प्रत्येक 30 समुद्री मील
की दूरी पर एक प्रकाश स्तंभ का निर्माण करना है ताकि समूचे भारतीय तटवर्ती
क्षेत्र में दृष्टव्य और रेडियो यंत्रों की त्रुटिहीन सेवा प्रदान की जा सके।
डीजीएलएल ने जो कार्य अब तक किया है उसमें डीजीपीएस, रडार बेकन स्वचालित पहचान
प्रणाली और जहाज यातायात सेवाओं जैसे आधुनिक यंत्रों की स्थापना शामिल है। इन
सबके कारण नाविकों को अपनी स्थिति का पता लगाने की क्षमताओं में पर्याप्त सुधार
हुआ है।
निदेशालय ओखा से करीब 20 समुद्री
मील पर तट से दूर तक प्रकाश गृह स्थापित करने की प्रक्रिया में है। इसके वन जाने
पर खाड़ी की ओर से कच्चा तेल लेकर आने वाले बड़े और विशाल जहाजों के समय में 30
समुद्री मील की बचत हो जाएगी।
नाविक रडार बेकन्स (रेकन्स के
रूप में प्रचलित) का बहुत महत्व देते हैं। रात के समय जब दृश्यता कम हो जाती है
और मौसम ,खराब होता है तब इससे नौवहन में बहुत सुविध होती है निदेशालय के अधीन 64
रेकन्स हैं जो बांबे हाई ऑफ शोर प्लेटफार्म सहित समूचे तटीय क्षेत्र में फैले
हुए हैं।
बेसल ट्रैफिक सर्विस(वीटीएस)
अर्थात जहाज यातायात सेवा जहाजरानी की सुरक्षा, संरक्षा और कार्य कुशलता बढ़ाने
वाले समेकित उपायों और सेवाओं का काय्रकारी फ्रेमवर्क है। समुद्री पर्यावरण की सुरक्षा भी इसी के दायरे
में आती है। इस उद्देश्य के लिये रडार, स्वचालित पहचान प्रणाली, डायरेक्शन
फाइन्डर्स, मेटियो और भू-वैज्ञानिक सेन्सर जैसे अनेक प्रकार के सेन्सेरों को
परस्पर जोड़कर संबंधित सागर और जहाजों के एक समग्र परिदृश्य प्रदर्शन के लिये
विकसित किया जाता है ताकि वहां से जहाज के मालिक को उचित सलाह दी जा सके। निदेशालय
सामान्य जलमार्ग में वीटीएस की स्थापना करता है जहां से तमाम बंदरगाहों की
जरूरतें पूरी होती हैं। निदेशालय इस समय कच्छ की खाड़ी के लिये वेसल ट्रैफिक
सर्विस को क्रियान्वित कर रहा है जो कि निर्माण के अंतिम चरण में है। इस प्रणाली
का आंशिक परीक्षण कांडला मास्टर कंट्रोल सेन्टर से शुरू हो गया है।
समूचे भारतीय तटवर्ती क्षेत्र में
प्रकाशस्तंभ समान रूप से फैले हुए हैं और इसीलिये देश की निगहबानी नेटवर्क स्थापित
करने के लिये इनको चिन्हित किया गया है। 26 नवम्बर, 2008 के आतंकी हमले के बाद
निगरानी नेटवर्क स्थापित करने की प्रक्रिया ने जोर पकड़ लिया है। इससे एआईएस
नेटवर्क की स्थापना का काम तेज हो गया है। यह नेटवर्क हमारे तटों से 25
समुद्रीमील की दूरी तक जहाजों की खोजखबर ले सकेगा। प्रकाशस्तंभों का उपयोग रडार
नेटवर्क स्थापित करने के लिये भी हो रहा है। सब मिलाकर यह तटीय निगरानी का सबसे
जोरदार नेटवर्क होगा, जिसे अपरिचित जहाजों की पहचान करने में आसानी होगी। पहले चरण
का कार्य प्रगति पर है।
डीजीएलएल एक नेवटेक्स श्रृंखला
तैयार कर रहा है जो मौसम और सुरक्षा संबंधी सूचना प्रसारित करने में मदद करेगा। यह
नाविकों के लिए, विशेषकर प्राकृतिक आपदाओं के समय बहुत काम की वस्तु सिद्ध होगी।
अंतर्राष्ट्रीय समुद्री संगठन की आवश्यकताओं का अनुपालन करने में डीजीएलएल के प्रयासों
की सराहना की जानी चाहिये।
डीजीएलएल 1980 में गैर-पारम्परिक
ऊर्जा स्रोतों का उपयोग सबसे पहले करने वाले संगठनों में उस समय शुमार हो गया जब
द्वारका प्रकाशस्तंभ में रडार बेकन को विद्युत शक्ति देने के लिये सेंट्रल इलेक्ट्रानिक्स
लि0 के सौर पैनल का इस्तेमाल किया गया। आज डीजीएलएल ने सभी छोटे और द्वीपों में
बने प्रकाश स्तंभों में सौर ऊर्जा संयंत्र लगा रखे हैं। हाल ही में डीजीएलएल ने
सौर ऊर्जा के साथ-साथ पवन ऊर्जा का इस्तेमाल भी शुरू कर दिया है। अनेक प्रमुख
कार्यों में दोनों प्रकार के ऊर्जा स्रोतों का उपयोग किया जा रहा है।
यहां यह उल्लेख करना उचित होगा
कि निदेशालय एक स्वयं संपोषणीय संगठन के तौर पर कार्य करता है। यह अपनी आय भारतीय
बंदरगाहों पर आने जाने वाले जहाजों पर लगाए गए प्रकाश शुल्क के रूप में प्राप्त
करता है। प्रकाश शुल्क जहाज के पंजीकृत निबल टन भार क्षमता के हिसाब से लगाया
जाता है। कुल प्राप्त आय से निदेशालय के राजस्व व्यय को पूरा करने के बाद, शेष
राशि सामान्य आरक्षित कोष (जीआरएफ) में हस्तांतरित कर दी जाती है। निदेशालय अपना
अधिकतर योजनागत कार्यक्रमों पर लगने वाला पूंजीगत व्यय अपने संसाधनों से ही करता
है, जो उसे जीआरएफ में उपलब्ध राशि से प्राप्त होती है।
नौवहन की
प्रकृति के कारण प्रकाशस्तंभों की स्थापना ऐसे विषम स्थलों पर होती है जहां
जीवन की मूलभूत सुविधायें अपनी आदिम अवस्था में होती है जिसके कारण वहां पदस्थ
कर्मचारियों को अनेकों कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। वर्ष 2004 में जो सुनामी
आई थी, उसमें नागपटनम, कुड्डालोर(पांडियन तिवू) और इंदिरा प्वाइंट (अंडमान
निकोबार द्वीपसमूह) में स्थित प्रकाशस्तंभों के अनेक कर्मचारियों की बलि चढ़ गई
थी। अकेले इंदिरा प्वाइंट पर 17 बहुमूल्य जीवन काल कवालित हो गए थे और प्रकाशस्तंभ
को छोड़कर समूचा प्रतिष्ठान सुनामी की लहरों ने लील लिया था। यद्यपि प्रौद्योगिकी
प्रगति से दूरस्थ केन्द्र से ही प्रकाशस्तंभों की गतिविधियों की निगरानी और
समन्वय करना आसान हो गया है, परन्तु उनमें आधुनिक बहुमूल्य उपकरणों की जो संपदा
है उसको अनारक्षित (मानवरहित) कैसे छोड़ा जा सकता है। डीजीएलएल ने दूरस्थ स्थानों
पर पदस्थ कर्मचारियों का तनाव स्तर कम करने के लिए अनेक उपाय किए हैं ताकि वे
लंबे समय तक अपने परिवारों से दूर नहीं रह सकें। इस दिशा में कई और प्रयास भी किये
जा रहे हैं।