एम एल धर
जम्मू और कश्‍मीर में करीब दो लाख खानाबदोश गुज्जर और बकरवाल परिवारों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के अंतर्गत लाया जा रहा है। राज्य के उपभोक्ता मामले और सार्वजनिक वितरण मंत्री श्री कमर अली अख्खून ने बताया कि उनको अस्थाई राशनकार्ड जारी किए जाएंग़े ताकि एक स्थान से दूसरी जगह जाने के दौरान उन्हें बिना किसी कठिनाई के राषन मिल सके। मंत्री महोदय ने कहा कि अपनी प्रवासी प्रवृत्ति के कारण वे बीपीएल परिवारों के लिए शुरू की गईं सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं उठा पा रहे थे, इससे उनकी लंबे समय से चली आ रही मांग पूरी होगी।
इन खानाबदोश लोगों के प्रवास के दौरान खाद्य वस्तुओं की कमी ही सबसे प्रमुख समस्या रही है। उन्हें पीडीएस के अंतर्गत लाने से प्रवास के दौरान उनकी यह समस्या काफी हद तक कम होगी।
वर्तमान में, जम्मू और कश्‍मीर में गुज्जरों और बकरवालों की एक बड़ी जनसंख्या मौसमी प्रवास के दौरान हिमालय की उत्तरपश्चिमी ऊंची चोटियों से पैदल ही जम्मू क्षेत्र के मैदानी इलाकों में आती हैं। आजकल के दिनों में उन्हें अपने पशुओं के झुंड के साथ विभिन्न राजमार्गो और सड़कों पर चलते हुए देखना एक आम नजारा है। ऐसा माना जाता है कि मूल रूप से गुज्जर और बकरवाल राजपूत हैं जो विभिन्न कारणों से गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र से कश्‍मीर में चले गये थे। प्राचीन कश्‍मीर के इतिहास कल्हाना में, राजतरंगणिनी में इन लोगों का 9वीं और 10वीं शताब्दी में कश्‍मीर की सीमा पर रहने का उल्लेख मिलता है। यह कहा जाता है कि कुछ शताब्दी पहले उन्होंने मुस्लिम धर्म को स्वीकार कर लिया और फिर वे दो अलग-अलग सम्प्रदायों गुज्जर और  बकरवाल में विभाजित हो गए। गुज्जरों के पुंछ में उच्च अधिकारी बनने से पूर्व 17वीं शताब्दी तक वे गुमनामी में रहे। इन अधिकारियों में से एक राह-उल्लाह-खान ने इस क्षेत्र में 18वीं शताब्दी में गुज्जरों के सांगो राजवंष की स्थापना की लेकिन यह भी अल्पकालिक रही।
जनसंख्या
गुज्जर और बकरवाल जम्मू और कश्‍मीर में तीसरा सबसे बड़ा जातीय समूह है जो राज्य की 20 प्रतिषत से ज्यादा जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करता है। 2001 की जनगणना के अनुसार, 7,63,806 की जनसंख्या के साथ वे राज्य की सबसे अधिक आबादी वाली अनुसूचित जनजाति है। उनका प्रवास अधिकतर अनंतनाग, उधमपुर, डोडा, राजौरी और पुंछ सीमावर्ती जिलों में केन्द्रित रहा है। गुज्जरों और बकरवालों के बीच आपसी विवाह संबंध आम हैं।
बकरवाल और गुज्जर अपनी स्वयं की समाजिक, सांस्कृतिक और भाषाई पहचान लिए हुए हैं। वे गर्मी के अधिकांश मौसम में अपना बसेरा ऊंची पीर पंजाल पहाड़ियों के प्राकृतिक हरे-भरे सुरम्य पहाड़ी मैदानों और खूबसूरत पर्वतमालाओं के बीच डालते हैं। हालांकि दूर-दराज और दुर्गम क्षेत्रों में रहने से उनका सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरणप्रभावित होता है और यह उन्हें पिछड़ेपन की ओर भी ले जाता है।
जीवन शैली     
अधिकांश गुज्जर भैंसों के चरवाहे हैं। उनमें से कुछ की पहाड़ों की तलहटी में कुछ भूमि भी है। उनमें से बहुतों के ऊंची पहाड़ियों पर लकड़ी के लठ्ठों से बने बैरक टाईप के घर भी है जिन्हें धोक्स कहा जाता है। बकरवाल भी ऐसी ही दिनचर्या के साथ आमतौर पर अपनी आजीविका के लिए भेड़ और बकरियों पर निर्भर हैं। भूमिहीन और बेघर होने के कारण वे हरे भरे मैदानों की तलाश में अपने खूंखार कुत्तों की देखरेख में अपनी बकरियों और भेड़ों के झुंड के साथ घोड़ों पर अपने साजो-सामान को लिए खानाबदोशी का जीवन जीते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण कष्मीर के पहलगांव में बकरवालों के एक झुंड को देखकर उन्हें जंगल का राजा के रूप में वर्णित किया था।
केन्द्र सरकार ने 1991 में जम्मू और कश्‍मीर के गुज्जरों और बकरवालों को अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित किया । आरक्षण के विशेष लाभ के साथ समान अवसर मिलने से उन्हें शैक्षिक और आर्थिक रूप से सशक्त करने में काफी मदद मिली ताकि वे अपने आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ेपन से मुकाबला कर सकें। सरकार इन खानाबदोश समुदायों को आरक्षण का लाभ उठाने में समर्थ बनाने हेतु उनके बच्चों को  ज्ञान से परिपूर्ण करने के लिए शिक्षा दिलाने की पहल कर चुकी है। गुज्जरों और बकरवालों के लिए 12वीं कक्षा तक नि:शुल्क आवास और सुविधाओं से युक्त हॉस्टल जिला स्तर पर प्रदान कर चुकी है। बहुत सी सुविधाएं पूर्ण होने को हैं। गुज्जर और बकरवाल छात्र शैक्षिक रूप से पिछड़े इलाकों में स्थापित लड़कियों के छात्रावास और मॉडल विद्यालयों से भी लाभ उठा रहे हैं। पिछले वित्तीय वर्ष के दौरान केन्द्र द्वारा 4206 अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्राओं को 3000 रूपए की छात्रवृत्ति दी गई। रोजगार और पेशेवर संस्थानों में आरक्षण का लाभ वे तभी उठा सकते हैं जब वे शैक्षिक रूप से समर्थ हों।
इससे अलावा, इसने गुज्जर पहचान को बनाए रखने में उनकी मदद भी की है। आधिकारिक और गैर-आधिकारिक दोनों स्तरों पर दशकों से गोजरी भाषा को बढ़ावा देने के प्रयासों को भी उल्लेखनीय योगदान मिला है। गोजरी को 12वीं कक्षा तक के विद्यालयों के पाठयक्रमों में शामिल कर लिया गया है। जम्मू और कश्‍मीर सांस्कृतिक अकादमी और रेडियो कश्‍मीर के गोजरी कार्यक्रमों के अतिरिक्त, गुर्जर देश चैरिटेबल ट्रस्ट, जनजातीय फाउंडेशन, सांस्कृतिक विरासत के लिए गुज्जर केन्द्र और अन्य गुज्जर संगठनों जैसे गैर-सरकारी संगठनों के दीर्घकालीन योगदान ने जम्मू और कश्‍मीर में गुज्जरों की जातीय और भाषाई पहचान के संरक्षण और प्रोत्साहन में अहम योगदान दिया है।
लेकिन इसके समकक्ष पाक अधिकृत कश्‍मीर (पीओके) में इस मामले में ऐसा नहीं है। नवम्बर, 2005 से पुंछ और उरी सैक्टरों में लोगों से लोगों के संपर्क के लिए नियंत्रण रेखा खोलने के बाद, पीओके में रहने वाले गुज्जर समुदाय के सदस्यों की भारतीय क्षेत्र में रह रहे अपने परिजनों से मिलने के लिए हुई यात्रा के बाद यह तथ्य सामने आया। पीओके के त्रार- खाल से आये आगन्तुकों में से एक अब्दुल गनी ने बताया कि जम्मू और कष्मीर में सरकारी और राजनीतिक दलों में महत्वपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे अपने परिजनों को देखकर मैं बहुत खुश हूं। त्रार खाल से ही एक अन्य गुज्जर चौधरी मौहम्मद शरीफ  ने कहा कि हमारी संस्कृति के प्रतीक जैसे लोक गीत, लोक संगीत, परम्पराएं और सदियों पुरानी हमारी रस्में हमारी तरह खो चुकी हैं जबकि यह जम्मू और कश्‍मीर में दिखाई पड़ती हैं।
गुज्जर और बकरवाल बहादुर और साहसी लोग हैं और इन्होंने हमेशा से भारतीय सेना की मदद की है। 1965 में, कश्‍मीर घाटी में तंगमार्ग क्षेत्र के निकट तोसमैदान इलाके का एक गुज्जर मौ. दीन पहला व्यक्ति था जिसने अधिकारियों को पाकिस्तानी घुसपैठियों की उपस्थिति की जानकारी दी थी। उनकी भूमिका की प्रषंसा करते हुए यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा है कि गुज्जर 1965 और 1971 के युध्दों के दौरान पहले ही जंग लड़ चुके हैं और आज वे जम्मू और कश्‍मीर में आतंकवाद और तोड़फोड़ के खिलाफ लड़ रहे हैं। 


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