फ़िरदौस ख़ान
आज़ादी के छह दशकों बाद भी देश में मुस्लिम नेतृत्व खड़ा नहीं हो पाया है. देश में एक भी सर्वमान्य मुस्लिम नेता ऐसा नहीं है, जिस पर मुसलमान भरोसा जता सकें. इसके कई कारण हैं. पहला यह कि कोई भी सियासी दल नहीं चाहता कि मुस्लिम नेतृत्व पैदा हो. दूसरा यह कि मुसलमानों के हक़ की बात करने के दावे करने वाले सियासी और ग़ैर सियासी दल चुनाव के दौरान भाजपा जैसी पार्टियों से मिल जाते हैं. इसकी वजह से मुसलमान इन मुस्लिम रहनुमाओं पर भरोसा नहीं कर पाते. ज़्यादातर मुस्लिम दल चुनाव में वोट बांटने का ही काम करते हैं. इससे मुसलमानों के वोट बिखर जाते हैं और वे निर्णायक भूमिका नहीं निभा पाते. ऐसे में मुसलमानों की रहनुमाई करने के लिए पीस पार्टी आगे आई है.
पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. मुहम्मद अयूब का कहना है कि आज़ादी के बाद से अब तक जितने भी राजनीतिक दल आए हैं, सभी का मक़सद सत्ता में आना ही रहता है. सरकारों ने जनता की मूलभूत समस्याओं के समाधान पर ध्यान देने की बजाय उनकी अनदेखी ही की. कुछ सियासी दल सिर्फ़ चुनाव के वक़्त ही जनता के बीच जाते हैं, अपने फ़ायदे के लिए गठजोड़ करते हैं और इसके बाद गुमनामी के अंधेरे में खो जाते हैं. ये सियासी दल क़ौम के बुद्धिजीवियों और शिक्षित तबक़े का समर्थन हासिल करने में भी नाकाम रहते हैं. ऐसे माहौल में मुसलमानों को उनका हक़ दिलाने के लिए एक मज़बूत सियासी दल की ज़रूरत महसूस की गई. ग़ौरतलब है कि माइनारिटीज ऑर्गेनाइजेशन फॉर सोशल डेवलपमेंट एंड इंटिग्रेशन के तत्वावधान में 2 दिसंबर, 2007 को लखनऊ में आयोजित दानिश्वरों एवं उलेमाओं की एक बैठक में डॉ. मुहम्मद अयूब ने संपूर्ण नेतृत्व की एक मज़बूत सियासी पार्टी बनाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया था. इसके बाद 10 फ़रवरी, 2008 को लखनऊ में हुई अगली बैठक में पीस पार्टी की स्थापना की गई. डॉ. मुहम्मद अयूब को इसका राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. पीस पार्टी ने 3 अप्रैल को मऊ , 22 मई को खलीलाबाद, 26 जून को डुमरियागंज, 23 जुलाई को पड़रौना और 24 अगस्त को बिजनौर में रैलियां कर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई.
पीस पार्टी अभी ख़ुद को ठीक से स्थापित भी नहीं कर पाई थी कि इसके अध्यक्ष डॉ. मुहम्मद अयूब पर भगवा को बढ़ावा देने और पार्टी के टिकट बाहुबलियों को बेचे जाने के गंभीर आरोप लगने लगे और वह दो फाड़ हो गई. पार्टी से इस्तीफ़ा देने के बाद कई पदाधिकारियों ने मिलकर राष्ट्रीय पीस पार्टी का गठन कर लिया. राष्ट्रीय पीस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अब्दुर्रहमान अंसारी का कहना है कि अन्य सियासी दलों की तरह पीस पार्टी भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूब गई है. पहले यह तय हुआ था कि पीस पार्टी में कोई माफ़िया शामिल नहीं होगा. वह जनता को इंसाफ़ दिलाने का काम करेगी, लेकिन डॉ. अयूब पार्टी के उद्देश्य से भटक गए. उन्होंने निष्ठावान पार्टी कार्यकर्ताओं को उच्च पदों पर भेजने की बजाय माफ़िया को बड़े-बड़े पदों पर आसीन कर दिया. पीस पार्टी के पूर्व प्रदेश सचिव एवं राष्ट्रीय पीस पार्टी के नवनिर्वाचित प्रदेश अध्यक्ष अहमद फ़ुरक़ान अलवी का कहना है कि पीस पार्टी की ग़लत नीतियों की वजह से ही बाराबंकी, गोंडा, सीतापुर, पीलीभीत, शाहजहांपुर, बरेली एवं बदायूं सहित कई अन्य ज़िलों के पदाधिकारी इस्तीफ़ा देकर राष्ट्रीय पीस पार्टी में शामिल हो गए. इस बारे में डॉ. मुहम्मद अयूब का कहना है कि राष्ट्रीय पीस पार्टी का गठन एक साज़िश के तहत किया गया है. यह साज़िश है मुसलमानों के सियासी नेतृत्व को मज़बूत होने से रोकने की. उन्होंने कहा कि इससे पहले भी समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह यादव बाक़ायदा प्रेस कांफ्रेंस करके यह ऐलान कर चुके हैं कि पीस पार्टी का उनकी समाजवादी पार्टी में विलय हो चुका है, जबकि यह सरासर झूठ है. उन्होंने राष्ट्रीय पीस पार्टी के अध्यक्ष अब्दुर्रहमान पर आरोप लगाया कि वह समाजवादी पार्टी के इशारे पर मुस्लिम क़यादत को कमज़ोर करने का काम कर रहे हैं. भाजपा से करोड़ों रुपये लेने के आरोपों को सिरे से ख़ारिज करते हुए डॉ. अयूब ने कहा कि उनकी पार्टी को बदनाम करने के लिए ये आरोप लगाए गए. उन्होंने ग़लत रिपोर्ट प्रकाशित करने वाले 10 अख़बारों के ख़िलाफ़ मुक़दमे कर रखे हैं.
डॉ. अयूब का कहना है कि पीस पार्टी लोकतांत्रिक मोर्चा का एक महत्वपूर्ण घटक है. यह मोर्चा प्रदेश की सभी 403 सीटों पर चुनाव लड़ेगा. इसमें से क़रीब 250 सीटों पर पीस पार्टी के उम्मीदवार खड़े किए जाएंगे. अन्य सीटों पर पार्टी लोकतांत्रिक मोर्चा के उम्मीदवारों का समर्थन करेगी. लोकतांत्रिक मोर्चा में पीस पार्टी के अलावा भारतीय समाज पार्टी, क़ौमी एकता दल, इंडियन जस्टिस पार्टी, भारतीय लोकहित पार्टी, अति पिछड़ा वर्ग महासंघ, क़ौमी मूवमेंट कांफ्रेंस और राष्ट्रीय लोकदल आदि शामिल हैं. राष्ट्रीय लोकदल और कांग्रेस के गठबंधन के बारे में उनका कहना है कि अगर राष्ट्रीय लोकदल कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ता है, तो वह इसका विरोध करेंगे. उनका आरोप है कि कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी ने ही सबसे ज़्यादा मुसलमानों का अहित किया है. भाजपा जहां हमेशा हिंदुत्व की बात करती है, वहीं कांग्रेस और समाजवादी पार्टी मुसलमानों को भाजपा का डर दिखाकर अपना हित साधने में लगी रहती हैं. ऐसे हालात में मुसलमान कहां जाएं? उन्हें एक ऐसे नेतृत्व की ज़रूरत है, जो उनके हक़ के लिए आवाज़ बुलंद करे. उन्होंने कहा कि प्रदेश में मोर्चा की सरकार बनने पर किसी अति पिछड़ा वर्ग के व्यक्ति को ही मुख्यमंत्री बनाया जाएगा. इसके अलावा दलितों, पिछड़ों, अति पिछड़ों, अनुसूचित जनजातियों, विमुक्त जातियों के लिए अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाएगी और रंगनाथ मिश्र आयोग की सिफ़ारिशों को लागू किया जाएगा.
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम आबादी 18.5 फ़ीसद है. 70 विधानसभा क्षेत्रों में उनकी तादाद 20 फ़ीसद या इससे ज़्यादा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 20, पूर्वी उत्तर प्रदेश की 10, मध्य उत्तर प्रदेश की 5 और बुंदेलखंड की एक सीट पर मुस्लिम मतदाताओं की तादाद 30-45 फ़ीसद के बीच है. पीस पार्टी लगातार जनसंपर्क कर मुस्लिम मतदाताओं को एकजुट करने में लगी है. पीस पार्टी ने 2009 के लोकसभा चुनाव में 21 संसदीय क्षेत्रों में अपने उम्मीदवार मैदान में उतारे थे. उसके एक भी उम्मीदवार को जीत हासिल नहीं हो पाई, लेकिन पार्टी ने चार फ़ीसद वोट पाकर अपनी मौजूदगी दर्ज कराई. पीस पार्टी की अहमियत इस बात से आंकी जा सकती है कि विभिन्न सियासी दलों के नेता इसमें शामिल हो रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के संसदीय क्षेत्र रायबरेली की सदर सीट से निर्दलीय विधायक अखिलेश सिंह ने दावा किया था कि कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के पांच दर्जन से ज़्यादा विधायक पीस पार्टी के लगातार संपर्क में हैं और वे कभी भी उसमें शामिल हो सकते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि पीस पार्टी अब बाहुबलियों का दल बनती जा रही है. अखिलेश सिंह के बाद फैज़ाबाद के बाहुबली विधायक जितेंद्र सिंह उर्फ़ बब्लू भी बसपा छोड़कर पीस पार्टी में शामिल हो चुके हैं. वह बसपा में अपनी उपेक्षा से परेशान थे. वह पहले कांग्रेस की टिकट पर विधायक बने थे. बाद में कांग्रेस को छोड़कर उन्होंने 2007 में आज़ाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा और जीत गए. क़ाबिले-ग़ौर यह भी है कि पीस पार्टी पसमांदा मुसलमानों की बात करती है. पहले कुल मुस्लिम समाज की बात होती थी, लेकिन अब मुस्लिम समाज भी कई तबक़ों में विभाजित नज़र आ रहा है, जैसे शिया, सुन्नी और फिर सुन्नी मुसलमानों में अगड़ी जातियों में शेख़, सैयद, पठान और पिछड़ी जातियों में जुलाहा, क़साई, तेली आदि शामिल हैं. इनके अपने-अपने संगठन हैं. इनमें समानता यही है कि सबकी पीड़ा एक है और सबकी मांगें भी एक जैसी हैं. सभी संगठनों के नुमाइंदों का मानना है कि सभी सियासी दलों ने मुसलमानों को सिर्फ़ वोट बैंक के नज़रिये से देखा है. किसी ने ज़मीनी स्तर पर उनके विकास के लिए कोई काम नहीं किया. कहने को तो मुसलमानों के कल्याणार्थ अनेक योजनाएं शुरू की गईं, लेकिन उनका फ़ायदा मुसलमानों को नहीं मिला. दरअसल, देश में सामाजिक बदलाव सियासी फ़ैसलों पर निर्भर करता है. देश के समग्र विकास के लिए ज़रूरी है कि मुसलमानों को भी मुख्यधारा में शामिल कर उनका विकास किया जाए. जब तक भारत की यह 15 फ़ीसद आबादी पिछड़ी रहेगी, तब तक देश की तरक्क़ी संभव नहीं है. हालांकि पीस पार्टी मुसलमानों को देश की मुख्यधारा में शामिल कराने का वादा कर रही है, लेकिन देखना यह है कि वह जिन वादों और दावों को लेकर आगे बढ़ रही है, उन पर अमल कर पाएगी या फिर वह भी दूसरी सियासी पार्टियों की तरह सत्ता की सियासत तक सिमट कर रह जाएगी?
संसद में मुसलमानों की नुमाइंदगी
संसद में मुसलमानों की नुमाइंदगी चिंताजनक है. लोकसभा के कुल 545 सांसदों में से 29 सांसद मुस्लिम हैं. इनमें कांग्रेस के कुल 206 सांसदों में से 11 मुस्लिम हैं, जबकि भाजपा के कुल 116 में से मात्र एक ही सांसद मुस्लिम है. इसी तरह राज्यसभा में कुल 244 सांसदों में से सिर्फ़ 25 सांसद मुस्लिम हैं. इनमें कांग्रेस के कुल 72 सांसदों में से नौ मुस्लिम हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी के कुल 51 सांसदों में से मात्र एक सांसद मुस्लिम है. 2001 की जनगणना के मुताबिक़, देश की आबादी में मुस्लिम 13.4 फ़ीसद हैं, जबकि संसद में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 6.84 फ़ीसद है.