फ़िरदौस ख़ान
शायद पहली बार देश की प्रमुख इस्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम देवबंद ने मुस्लिम औरतों के हक़ में फ़तवा जारी किया है. ख़ैर, हम तो यही कहेंगे कि देर आयद दुरुस्त आयद… इस नेक काम के लिए देवबंद की सराहना की जानी चाहिए...
दारुल उलूम देवबंद ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों से कहा है कि एक बीवी के ज़िंदा होने की हालत में वे दूसरा निकाह नहीं करें, क्योंकि ऐसा करने से दोनों बीवियों के साथ नाइंसाफ़ी होगी. पहली बीवी के ज़िंदा रहते दूसरी शादी करने की ख्वाहिश ज़ाहिर करने वाले एक व्यक्ति के सवाल पर देवबंद की तरफ़ से दिए गए फ़तवे में कहा गया है- '‘शरीयत एक साथ दो पत्नियों की इजाज़त देती है, लेकिन भारतीय परंपरा में इसकी इजाज़त नहीं है." दारुल उलूम ने यह भी कहा कि दो बीवियां होने की हालत में व्यक्ति दोनों के साथ ज़िम्मेदारियों के लिहाज़ से इंसाफ नहीं कर पाता. इस वजह से पहली बीवी के होते हुए दूसरी शादी करने का ख़्याल ज़हन से निकाल देना चाहिए.’
दूसरी शादी के सवाल में व्यक्ति का कहना था, अपने कॉलेज के समय से मैं एक युवती से प्रेम करता था, लेकिन उसकी शादी नहीं हो सकी थी. अब हम फिर से संपर्क में आए हैं और निकाह करना चाहते हैं. मेरी बीवी एवं दो बच्चे हैं और ऐसी स्थिति में दूसरी शादी जायज़ रहेगी?’ उसके इसी सवाल के जवाब में देवबंद ने यह फ़तवा दिया है.
दारूल उलूम देवबंद से एक व्यक्ति ने यह भी सवाल किया कि उसकी पत्नी और मां के बीच नहीं बनती और बीवी सास-ससुर के साथ रहने को तैयार नहीं है. ऐसी हालत में उसे क्या करना चाहिए? इसके जवाब में कहा गया है कि ऐसी हालत में इस्लाम बीवी को तलाक़ देने या उसे ख़ुद से अलग करने की इजाज़त नहींदेता. मां-बाप की नाफ़रमानी करना भी ग़लत है. आपको बीवी के लिए दूसरा घर लेना चाहिए और साथ ही अपने मां-बाप की देखभाल करना चाहिए. इस्लामी शिक्षण संस्था दारुल उलूम का कहना है कि पत्नी का हक़ अदा करने के साथ ही मां-बाप की देखभाल करना हर व्यक्ति की ज़िम्मेदारी है और दोनों जिम्मेदारियों को निभाने की कोशिश करना चाहिए.
दुनिया की क़रीब आधी आबादी महिलाओं की है. इस लिहाज़ से महिलाओं को तमाम क्षेत्रों में बराबरी का हक़ मिलना चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं है. कमोबेश दुनियाभर में महिलाओं को आज भी दोयम दर्जे पर रखा जाता है. अमूमन सभी समुदायों में महिलाओं को पुरुषों से कमतर मानने की प्रवृत्ति है. हिंदुस्तान में ख़ासकर मुस्लिम समाज में तो महिलाओं की हालत बेहद बदतर है. सच्चर समिति की रिपोर्ट के आंकड़े भी इस बात को साबित करते हैं कि अन्य समुदायों के मुक़ाबले मुस्लिम महिलाएं आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक दृष्टि से ख़ासी पिछड़ी हुई हैं. यह एक कड़वी सच्चाई है कि मुस्लिम महिलाओं की बदहाली के लिए 'धार्मिक कारण' काफ़ी हद तक ज़िम्मेदार हैं. इनमें बहुपत्नी विवाह और तलाक़ के मामले ख़ास तौर पर शामिल हैं.
बेशक, दारुल उलूम देवबंद के इस फ़तवे से मुस्लिम औरतों को काफ़ी फ़ायदा होगा. साथ ही इससे धर्मांतरण के ऐसे मामलों में भी कमी आएगी, जिनमें ग़ैर मुस्लिम मर्द क़ानून की सज़ा से बचने के लिए इस्लाम क़ुबूल करके दूसरी शादी कर लेते हैं. सिर्फ़ फ़तवा देने से ही काम नहीं चलेगा. दारुल उलूम देवबंद को मुस्लिम औरतों के हक़ में कुछ और फ़ैसले भी देंगे होंगे, ताकि वे भी एक अच्छी ज़िन्दगी बसर कर सकें...