फ़िरदौस ख़ान
न मीरम अज़इन, पस की मन ज़िन्देअम
कि तु़ख्मे सु़ख्न रा कराकन्दे अम
अपने इस शेअर में फ़ारसी के मशहूर शायर फ़िरदौसी कहते हैं कि मैं कभी मरूंगा नहीं, क्योंकि मैंने फ़ारसी शायरी के जो बीज बिखेरे हैं, वे दुनिया के रहने तक लहलहाते रहेंगे और मैं उनकी वजह से हमेशा ज़िंदा रहूंगा. बेशक, फ़िरदौसी ने अपने शेअर रूपी शब्द तहज़ीब की धरती पर बिखेर दिए और तब से शाहनामा की शक्ल में वे आज भी फ़िरदौसी को ज़िंदा रखे हुए हैं और रहती दुनिया तक उनके कलाम की रौशनी तहज़ीब की राहों को रौशन करती रहेगी.

शाहनामा के लिए फ़िरदौसी दुनिया भर में जाने जाते हैं. उनका जन्म 940 में ईरान के ख़ुरासान के तूस क़स्बे में हुआ था. उनका पूरा नाम अबू अल क़ासिम हसन बिन अली तूस है. उन्होंने अपनी कालजयी कृति शाहनामा में ईरान के उन बादशाहों के बारे में लिखा है, जिनसे वह मुतासिर रहे. शाहनामा में 60 हज़ार शेअर हैं. इसे पूरा करने में उन्हें 30 साल लग गए. उन्होंने 25 फ़रवरी, 1010 को इसे मुकम्मल किया. यह महान कृति उन्होंने सुल्तान महमूद ग़ज़नवी को समर्पित की, जिसने 999 में ख़ुरासान पर फ़तह हासिल की थी. कहा जाता है कि महमूद ग़ज़नवी ने फ़िरदौसी से वादा किया था कि वह शाहनामा के हर शेअर केलिए उन्हें सोने की एक दीनार देंगे. बरसों की मेहनत के बाद जब शाहनामा तैयार हो गया और फ़िरदौसी इसे लेकर महमूद ग़ज़नबी के दरबार में गए तो उन्हें हर शेअर के लिए एक दीनार नहीं, बल्कि एक दिरहम देने को कहा गया. इस पर नाराज़ होकर फ़िरदौसी लौट आए और उन्होंने एक दिरहम भी नहीं लिया. इस वादाख़िलाफ़ी से ग़ुस्साये फ़िरदौसी ने महमूद ग़ज़नबी के ख़िलाफ़ हज्व (निंदा कविता) लिखी, जिसके शेअर पूरी सल्तनत में आग की तरह फैल गए. सुल्तान की बदनामी होने लगी. महमूद ग़ज़नवी से उसके विश्वासपात्र मंत्रियों ने आग्रह किया कि फ़िरदौसी को उसी रक़म का भुगतान कर दिया जाए, जो तय हुई थी, क्योंकि इससे जहां उनकी बदनामी रुक जाएगी, वहीं इस अमर कृति के लिए सुल्तान का इक़बाल भी बुलंद होगा. सुल्तान को यह बात पसंद आई और उसने साठ हज़ार सोने की दीनारें ऊंटों पर लदवाकर फ़िरदौसी के पास भेज दीं. जिस वक़्त ये दीनारें फ़िरदौसी के घर पहुंचीं, उस वक़्त घर से उनका जनाज़ा निकल रहा था. पूरी उम्र मुफ़लिसी में काटने के बाद फ़िरदौसी की ज़िंदगी ख़त्म हो चुकी थी. यह रक़म फ़िरदौसी की इकलौती बेटी को देने की पेशकश की गई, लेकिन उसने इसे लेने से इंकार कर दिया. इस तरह सुल्तान हमेशा फ़िरदौसी का क़र्ज़दार रहा.

हाल में हिन्द पॉकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित किताब फ़िरदौसी में प्रस्तुतकर्ता नासिरा शर्मा ने शाहनामा की कई रचनाओं को पेश किया है. इसके साथ ही उन्होंने शाहनामा की विशेषताओं पर भी रौशनी डाली है. फ़िरदौसी को शाहनामा लिखने का ख्याल क्यों आया, इस बारे में वह लिखती हैं-वह ईरान के प्रसिद्ध कवि दकीक़ी का ज़िक्र करना नहीं भूलते हैं, जिन्होंने शाहनामा को गशतासब नामा के नाम से लिखना शुरू किया था. मगर अपने ही ग़ुलाम के हाथों क़त्ल हो जाने की वजह से यह काम अधूरा छूट गया. उसको जब फ़िरदौसी ने पढ़ा, तो उस काम को पूरा करने का प्रण किया. इसके बाद अबू मंखूर बिन मोहम्मद और सुल्तान महमूद के प्रशंसा गान के बाद वास्तव में शाहनामा की शुरुआत हुई. इसकी शुरुआत ईरान के पहले बादशाह क्यूमर्स से होकर सासानी दौर के पतन पर ख़त्म होती है. इसमें मुहब्बत, बग़ावत, बहादुरी, जंग, इंसानित और हैवानियत के कई क़िस्से मिलते हैं. इसे तीनों हिस्सों में बांटा जा सकता है. पहला वह जो लोक साहित्य पर आधारित है, दूसरा वह जो काल्पनिक कथाओं पर है और तीसरा वह जो ईरान का इतिहास है. इस महाकाव्य में फ़िरदौसी को अमर बनाने वाली कालजयी रचनाएं हैं, जो बार-बार पढ़ी और गाई जाती हैं, मसलन दास्तान-ए-बीज़न व मनीज़ा, सियावुश व सुदाबे, रुदाबे व जालज़र, रुस्तम व सोहराब, शतरंज की पैदाइश, शाह बहराम के क़िस्से, सिकंदर व क़ैद, जहाक़ व कावेह आहंगर आदि शामिल हैं.

दरअसल, अरबों की सत्ता का ध्वज जब ईरान पर फहराने लगा, तो ईरानी बुद्धिजीवियों के सामने भारी संकट खड़ा हुआ कि आख़िर इस विदेशी सत्ता के साथ वे कैसा बर्ताव करें. इसी मुद्दे पर ईरानी बुद्धिजीवी वर्ग दो हिस्सों में विभाजित हो गया. एक वर्ग वह था, जो अरबी भाषा के बढ़ते सरोकार को पूर्णतया दरबार, धार्मिक स्थलों और जनसमुदाय में पनपता देख रहा था और सोच रहा था कि इस तरह से ईरानी भाषा और साहित्य का कोई नामलेवा नहीं बचेगा. शायद ईरानी विचार की भी गुंजाइश बाक़ी नहीं बचेगी और अरबी भाषा के साथ अरब विचार भी ईरानी दिल और दिमाग़ पर छा जाएंगे. इसलिए ज़रूरी है कि भाषा के झग़डे में न प़डकर ईरानी सोच को जीवित रखा जाए. इस वर्ग के ईरानी लेखक बड़ी संख्या में अरबी भाषा में उतना लेखन कार्य करने लगे और दरबार एवं विभिन्न स्थलों पर महत्वपूर्ण पद पाने लगे. दूसरा वर्ग पूर्ण रूप से अरब सत्ता से बेज़ार था. उसकी तरफ़ पीठ घुमाकर अपनी भाषा साहित्य को बचाने और संजोने की तीव्र इच्छा उसमें मचल उठी. सत्ता के विरोध में वह तलवार लेकर खड़ा तो नहीं हो सकता था, मगर वर्तमान को नकारते हुए भविष्य के लिए ज़रूर कुछ रच सकता था. इसी श्रेणी के बुद्धिजीवियों में सबसे पहला नाम फ़िरदौसी का है, जिसमें उन्होंने ख़ुद स्वीकार किया है-
बसी रंज में बुर्दम दर इन साल सी
अजम ज़िंन्दा करदम बेदिन पारसी
यानी तीस साल की कोशिशों से मैंने यह महाकाव्य रचा है और फ़ारसी ने अजम (गूंगा) को अमर बना दिया. यहां अजम शब्द की व्याख्या करना ज़रूरी हो जाता है. अरबी भाषा का उच्चारण चूंकि हलक़ पर ज़ोर देकर होता है, तो उसकी ध्वनि में एक तेज़ी और भारीपन होता है, जबकि फ़ारसी भाषा में उच्चारण करते हुए ज़्यादातर जीभ के बीच के हिस्से और नोक का इस्तेमाल होता है, जिससे शब्द मुलायम और सुरीली ध्वनि लिए निकलते हैं. इतनी मद्धिम ध्वनि सुनने की आदत चूंकि अरबों को नहीं थी, इसलिए उन्होंने उपेक्षा भाव से ईरानियों को गूंगा कहना शुरू कर दिया था.

शाहनामा का कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. सबसे पहला अनुवाद अरबी भाषा में छठी सदी में हुआ था. कवाम उद्दीन अबुल़फतेह ईसा बिन अली इब्ने मोहम्मद इसफाहनी ने यह अनुवाद अयूब अल फ़ातेह ईसाबिन मुल्क अब्दुल अबूबकर के नाम किया था. इसके बाद 914 हिजरी में तातार अली टुनदी ने संपूर्ण शाहनामा का अनुवाद तुर्की भाषा में किया था. तुर्की भाषा गद्य में अनुवाद का काम मेहंदी साहिब मनसबान उस्मान के दरबार में पूरा हुआ. यह अनुवाद उस्मान को 1030 हिजरी में भेंट किया गया. कुछ साल बाद 1043 हिजरी में दाराशिकोह के बेटे हुमायूं के वक़्त लाहौर में उसके दरबार के तवक्कुल बक ने शमशीर खां की फ़रमाइश पर शाहनामा के कुछ हिस्सों का गद्य और पद्य में अनुवाद मुनर्ताखिब उल तवारी़ख नाम से फ़ारसी में किया गया. पश्चिमी देशों में शाहनामा का अनुवाद सबसे पहले लंदन में 1774 में डब्ल्यू योन्स ने किया, लेकिन पूरी कृति का अनुवाद करने वाले पहले स्वदेशी जोज़फ़ शामप्यून, जो कलकत्ता में 1785 में छपा था. इसके बाद लुडोल्फ़, हैगरमैन, पेरिस में 1802 में जॉन ओहसॉन के अनुवाद सामने आए. ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1811 में शाहनामा का अनुवाद फोर्ट विलियम कॉलेज में अरबी फ़ारसी के प्रोफेसर लुम्सडेन से कराया. इसके अनुवादों की फ़ेहरिस्त ख़ासी लंबी है.

ख़ुरासान प्रांत की राजधानी मशहद से कुछ दूरी पर नीशापुर में फ़िरदौसी की क़ब्र है. यहां एक बड़ा ख़ूबसूरत बाग़ है, जिसमें फ़िरदौसी की संगमरमर की मूर्ति है. फ़िरदौसी की क़ब्र के पास की दीवारों पर उनके शेअर लिखे हुए हैं. कहा जाता है कि सदियों पहले फ़िरदौसी को दफ़नाने के लिए जब किसी क़ब्रिस्तान में जगह नहीं मिली तो उन्हें इसी बाग़ में दफ़ना दिया गया. अब यह बाग़ फ़ारसी भाषा और साहित्य प्रेमियों के लिए एक दर्शनीय स्थल के तौर पर मशहूर हो चुका है. साहित्य प्रेमी अपने महबूब शायर को याद करते हुए यहां आते हैं. शाहनामा ईरान का इतिहास ही नहीं, बल्कि ईरानी अस्मिता की पहचान है. इस महाकाव्य की तुलना होमर के इलियड और महर्षि वेदव्यास के महाभारत से की जा सकती है.

बहरहाल, यह किताब साहित्य प्रेमियों को बेहद पसंद आएगी, क्योंकि इसमें शाहनामा के बारे में संक्षिप्त मगर महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है. इसके साथ ही इसमें शाहनामा की कई रचनाओं का हिंदी अनुवाद भी पेश किया गया है.

समीक्ष्य कृति : फ़िरदौसी
प्रस्तुति : नासिरा शर्मा
प्रकाशक : हिन्द पॉकेट बुक्स
क़ीमत : 135 रुपये

ईद मिलाद उन नबी की मुबारकबाद

ईद मिलाद उन नबी की मुबारकबाद

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं