फ़िरदौस ख़ान
बीसवीं सदी के मशहूर शायरों में जां निसार अख्तर को शुमार किया जाता है. उनका जन्म 14 फ़रवरी, 1914 को मध्य प्रदेश के ग्वालियर में एक सुन्नी मुस्लिम परिवार में हुआ. उनके पिता मुज़्तर खैराबादी मशहूर शायर थे. उनके दादा फज़ले-हक़ खैराबादी मशहूर इस्लामी विद्वान थे. जां निसार अख्तर ने ग्वालियर के विक्टोरिया हाई स्कूल से दसवीं पास की. इसके बाद आगे की पढ़ाई के लिए वह अलीगढ़ चले गए, जहां उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल की. इसके बाद वह वापस अपने शहर ग्वालियर लौट आए और विक्टोरिया कॉलेज में उर्दू के प्राध्यापक के तौर पर नियुक्त हो गए. उन्होंने 1943 में सफ़िया सिराज उल हक़ से निकाह किया. सफ़िया मशहूर शायर मज़ाज लखनवी की बहन थीं और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में उन्हीं के साथ पढ़ती थीं. यहीं से उनकी दोस्ती सफ़िया से हो गई थी, जो बाद में मुहब्बत और फिर शादी तक जा पहुंची. उनके दो बेटे हुए जावेद और सलमान. जावेद अख्तर प्रसिद्ध फ़िल्म गीतकार हैं. बाद में जां निसार अख्तर भोपाल आ गए और हमीदिया कॉलेज में उर्दू और फ़ारसी विभाग के अध्यक्ष के तौर पर काम करने लगे. बाद में सफ़िया ने भी इसी कॉलेज में काम किया. वह प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे, बाद में वह इसके अध्यक्ष भी बने.

उन्होंने 1949 में इस्तीफ़ा दे दिया और मुंबई चले आए. यहां वह प्रगतिशील लेखकों मुल्क राज आनंद, कृष्ण चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी और इस्मत चुग़ताई के संपर्क में आए. इन लेखकों की यह जमात बॉम्बे लेखक समूह के नाम से जानी जाती थी. अकसर इनकी मुलाक़ातें मुंबई के सिल्वर फिश रेस्तरां में होतीं. जां निसार अख्तर को फ़िल्मों में काम मिलना शुरू हो गया. उन्होंने सी रामचंद्रा, ओपी नैयर, एन दत्ता और खय्याम के लिए तक़रीबन 151 यादगार गीत लिखे. इनमें फ़िल्म यासमीन (1955), सीआईडी (1956), रुस्तम सोहराब (1963), प्रेम पर्वत (1974), नूरी (1979), शंकर हुसैन (1977) और कमाल अमरोही की फिल्म रज़िया सुल्तान (1983) शामिल है. उन्होंने 1967 में बहु बेगम फ़िल्म बनाई. इसकी कहानी भी उन्होंने ख़ुद लिखी थी. फ़िल्म में मीना कुमारी और प्रमोद कुमार ने काम किया था. यह फ़िल्म हिट रही.

मगर जां निसार अख्तर को कामयाबी मिलने से पहले ही ज़िंदगी के हर मुश्किल सफ़र में उनका साथ निभाने वाली उनकी पत्नी सफ़िया की 17 जनवरी, 1953 में कैंसर से मौत हो गई. कुछ वक़्त बाद 17 सितंबर, 1956 को उन्होंने ख़दीजा तलत से निकाह कर लिया. सफ़िया के पत्रों का संग्रह 1955 में तुम्हारे नाम शीर्षक से प्रकाशित हुआ. इसके हर्फ़-ए-आशना और ज़ेर-ए-लब नामक दो खंडों में 1 अक्टूबर, 1943 से 29 दिसंबर 1953 तक सफ़िया द्वारा जां निसार अख्तर को लिखे गए ख़त शामिल हैं. जां निसार अख्तर की शायरी के कई संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें नज़र-ए-बुतां, सलासिल, जावेदां, पिछले पहर, घर-आंगन और ख़ाक-ए-दिल आदि शामिल हैं. जां निसार अख्तर को 1976 में उर्दू साहित्य अकादमी अवॉर्ड से नवाज़ा गया.

जां निसार अख्तर की शायरी में रूमानियत के रेशमी जज़्बात हैं, तो तसव्वुरात के ख़ूबसूरत लम्हे भी हैं. आज भी मुहब्बत करने वाले अपने ख़तों में उनके शेअर लिखा करते हैं.
अशआर मेरे यूं तो ज़माने के लिए हैं
कुछ शेअर फ़क़त उनको सुनाने के लिए हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेजे से लगाने के लिए हैं
आंखों में जो भर लोगे तो कांटो से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों पे सजाने के लिए हैं
देखूं तेरे हाथों को तो लगता है तेरे हाथ
मंदिर में फ़क़्त दीप जलाने के लिए हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझाने के लिए हैं
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख्स की यादों को भुलाने के लिए हैं

उनके कलाम में मुहब्बत के कई रंग शामिल हैं. इसमें मिलन का रंग है, तो नाराज़गी और बिछड़ने का रंग भी शामिल है.
सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आए तो इस रात की औक़ात बनेगी
उनसे यही कह आए कि हम अब न मिलेंगे
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी
ये हमसे न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी
हैरत कदा-ए-हुस्न कहां है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी

उनकी शायरी में मुहब्बत का वह अहसास है, जिसे महबूब के होने या न होने से कोई फर्क़ नहीं प़डता. मुहब्बत तो बस मुहब्बत है. महबूब क़रीब हो या दूर, पर मुहब्बत का अहसास हमेशा बरक़रार रहता है.
कौन कहता है तुझे मैंने भुला रखा है
तेरी यादों को कलेजे से लगा रखा है
लब पे आहें भी नहीं आंख में आंसू भी नहीं
दिल ने हर राज़ मुहब्बत का छुपा रखा है
तूने जो दिल के अंधेरे में जलाया था कभी
वो दिया आज भी सीने में जला रखा है
देख जा आके महकते हुए ज़ख्मों की बहार
मैंने अब तक तेरे गुलशन को सजा रखा है

उन्होंने सामाजिक असमानता, शोषण और ग़रीबी जैसे मुद्दों को भी अपनी शायरी में बख़ूबी उठाया है.
मौजे-गुल, मौजे-सबा, मौजे-सहर लगती है
सर से पा तक वो समां है कि नज़र लगती है
हमने हर गाम पे सजदों के जलाए हैं चिराग़
अब तेरी राहगुज़र, राहगुज़र लगती है
लम्हे-लम्हे में बसी है तेरी यादों की महक
आज की रात तो खुशबू का सफ़र लगती है
जल गया अपना नशेमन तो कोई बात नहीं
देखना ये है कि अब आग किधर लगती है
सारी दुनिया में ग़रीबों का लहू बहता है
हर ज़मीं मुझको मिरे खूऩ से तर लगती है
कोई आसूदा नहीं अहले-सियासत के सिवा
ये सदी दुश्मन-ए-अरबाब-ए-हुनर लगती है
वाक़िया शहर में कल तो कोई ऐसा न हुआ
ये तो अख़बार के दफ्तर की ख़बर लगती है
लखनऊ! क्या तिरी गलियों का मुक़द्दर था यही
हर गली आज तिरी ख़ाक-बसर लगती है

वह प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े थे. इसका असर भी उनके कलाम में दिखाई देता है.
लोग कहते हैं कि तू अब भी ख़फा है मुझसे
तेरी आंखों ने तो कुछ और कहा मुझसे
हाय! इस व़क्त को कोसूं कि दुंआ दूं यारो
जिसने हर दर्द मेरा छीन लिया मुझसे
दिल का ये हाल धड़के ही चला जाता है
ऐसा लगता है कोई जुर्म हुआ है मुझसे
खो गया आज कहां रिज़्क का देने वाला
कोई रोटी जो खड़ा मांग रहा है मुझसे
अब मेरे क़त्ल की तदबीर तो करनी होगी
कौन-सा राज़ है तेरा जो छुपा है मुझसे

मुंबई में 19 अगस्त, 1976 को 62 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई, लेकिन अपनी शायरी की वजह से वह हमेशा लोगों के दिलों में रहेंगे. उनके मदहोश कर देने वाले गीत आज भी लोग गुनगुना उठते हैं. शायरी उनके खून में थी. लिहाज़ा, अब उनके बेटे जावेद अख्तर भी अपने कलाम से अदब की महफ़िल में चार चांद लगाए हुए हैं.

रमज़ान की मुबारकबाद

रमज़ान की मुबारकबाद

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

  • मुक़द्दस तारीख़ - 17 मार्च, 2018 यानी 29 जमाद अल-थानी 1439... इस मुक़द्दस तारीख़ का हर लम्हा इश़्क से लबरेज़ है, इबादत से सराबोर है... इस तारीख़ का क़र्ज़ है हम पर... -फ़िरदौस ख़ा...
  • ग़ुज़ारिश : ज़रूरतमंदों को गोश्त पहुंचाएं - ईद-उल-अज़हा का त्यौहार आ रहा है. जो लोग साहिबे-हैसियत हैं, वो बक़रीद पर क़्रुर्बानी करते हैं. तीन दिन तक एक ही घर में कई-कई क़ुर्बानियां होती हैं. इन घरों म...
  • Rahul Gandhi in Berkeley, California - *Firdaus Khan* The Congress vice president Rahul Gandhi delivering a speech at Institute of International Studies at UC Berkeley, California on Monday. He...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • देश सेवा... - नागरिक सुरक्षा विभाग में बतौर पोस्ट वार्डन काम करने का सौभाग्य मिला... वो भी क्या दिन थे... जय हिन्द बक़ौल कंवल डिबाइवी रश्क-ए-फ़िरदौस है तेरा रंगीं चमन त...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं