एक गीत
बीत रहा आश्विन
फूल भरा रूमाल बिखेरे
गंध भरे पल छिन
अब भी कभी याद आते हैं
त्यौहारों के दिन
दीवारों पर ऐपन वाला
हाथ अभी भी है
कभी अकेले में हो तो वो
साथ अभी भी है
चुहल शरारत मीठे लमहे
क्या नकदी,क्या ऋण
तैर रहे ईंगुर के अक्षर
उजले दरपन में
गीले पांव बने हैं अब भी
घर में,आंगन में
रीती गागर छोड़ गई है
तट पर पनिहारिन है
अपने मन का बना घरौंदा
ईंटे गारे से
अभी गया मनिहार लौटकर
देहरी द्वारे से
चिठ्ठी भेज रहीं नम आँखें
बीत रहा आश्विन ।
-यश मालवीय