डॉ. फ़िरदौस ख़ान
भारतीय साहित्य के प्रमुख स्तंभ यानी उर्दू के मशहूर अफ़सानानिग़ार कृष्ण चंदर का जन्म 23 नवम्बर, 1914 को पाकिस्तान के गुजरांवाला ज़िले के वज़ीराबाद में हुआ. उनका बचपन जम्मू कश्मीर के पुंछ इलाक़े में बीता. उन्होंने तक़रीबन 20 उपन्यास लिखे और उनकी कहानियों के 30 संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. उनके प्रमुख उपन्यासों में एक गधे की आत्मकथा, एक वायलिन समुंदर के किनारे, एक गधा नेफ़ा में, तूफ़ान की कलियां, कॉर्निवाल, एक गधे की वापसी, ग़द्दार, सपनों का क़ैदी, सफ़ेद फूल, प्यास, यादों के चिनार, मिट्टी के सनम, रेत का महल, काग़ज़ की नाव, चांदी का घाव दिल, दौलत और दुनिया, प्यासी धरती प्यासे लोग, पराजय, जामुन का पेड़ और कहानियों में पूरे चांद की रात और पेशावर एक्सप्रेस शामिल है.

उनका उपन्यास एक गधे की आत्मकथा बहुत मशहुर हुआ. इसमें उन्होंने हिंदुस्तान की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था को व्यंगात्मक शैली में चित्रित किया है. प्रख्यात साहित्यकार बेकल उत्साही ने कृष्ण चंदर का ज़िक्र करते हुए एक बार कहा था, यह क़लमकार वाक़ई अल्फ़ाज़ का जादूगर था, जिसके शब्दों का जाल पढ़ने वाले को अपनी तरफ़ बरबस खींच लेता था. इसी तरह उनके समकालीन उर्दू उपन्यासकार राजेंद्र सिंह बेदी ने भी एक बार उनसे कहा था कि सिर्फ़ शब्दों से ही खेलेगा या फिर कुछ लिखेगा भी. बेकल उत्साही ने एक लेखक के तौर पर कृष्ण चंदर की सोच के बारे में कहा कि उन्होंने मज़हब और जात-पात की भावनाओं से ऊपर उठकर हमेशा इंसानियत को सर्वोपरि माना और इसी को अपना धर्म मानकर उसे ताउम्र निभाया. कृष्ण चंदर हिंदुस्तान और पाकिस्तान के अलावा रूस में ख़ासे लोकप्रिय थे. उन्होंने जीवन के संघर्ष और जनमानस की हर छोटी-बड़ी परेशानी का अपनी रचनाओं में मार्मिक वर्णन किया. उन्होंने बंगाल के अकाल पर अन्नदाता नाम से कहानी लिखी. इस पर चेतन आनंद ने 1946 में धरती के लाल नाम से एक फ़िल्म  बनाई. उन्हें 1969 में पद्मभूषण से नवाज़ा गया. 8 मार्च, 1977 को मुंबई में उनका निधन हो गया.

यह कृष्ण चंदर के लेखन की ख़ासियत रही कि उन्होंने जितनी शिद्दत से ज़िंदगी की दुश्वारियों को पेश किया, उतनी ही नफ़ासत के साथ के मुहब्बत के रेशमी जज़्बे को भी अपनी रचनाओं में इस तरह पेश किया कि पढ़ने  वाला उसी में खोकर रह गया. उनके उपन्यास मिट्टी के सनम में एक नौजवान की बचपन यादें हैं, जिसका बचपन कश्मीर की हसीन वादियों में बीता. इसे पढ़कर बचपन की यादें ताज़ा हो जाती हैं. इसी तरह उनकी कहानी पूरे चांद की रात तो दिलो-दिमाग़ में ऐसे रच-बस जाती है कि उसे कभी भुलाया ही नहीं जा सकता है. बानगी देखिए-

अप्रैल का महीना था. बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी. बुलंद व बाला तिनकों के नीचे मख़मली दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सफ़ेद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे. अगले माह तक ये सफ़ेद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाएंगे और दूब का रंग हरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा. लेकिन अभी अप्रैल का महीना था. अभी पत्तियां नहीं फूटी थीं. अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था. अभी पगडंडियों का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूंजा न था. अभी समल की झील पर कंवल के चिराग़ रौशन न हुए थे. झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था, जो बहार की आमद पर यकायक उसकी सतह पर एक मासूम और बेलोस हंसी की तरह खिल जाएंगे. पुल के किनारे-किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शिगूफ़े चमकने लगे थे. अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार की नक़ीब बनकर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं. फूलों के नन्हे-नन्हे शिकारे सतह आब पर रक्सा व लरज़ा बहार की आमद के मुंतज़िर हैं.

और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूं. मेरे बेटे मेरे साथ हैं. मेरी बीवी मर चुकी है, लेकिन मेरे बेटों की बेटियां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते-करते समल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और दोपहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादामों के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूं और ख़ुनक हवा में सफ़ेद शगू़फों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती. एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है. दूर बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है. वह उसे खाने पर बुला रही है. कहीं से एक दरवाज़ा बुलंद होने की आवाज़ आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है. छतों से धुआं निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एकदम दरख्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एकदम चुप हो जाते हैं. ज़रूर कोई गा रहा है और उसकी आवाज़ गूंजती गूंजती उफ़क़ के उस पार गुम होती जा रही है. मैं पुल को पार करके आगे बढ़ता हूं. मेरे बेटे और उनकी बीवियां और बच्चे मेरे पीछे आ रहे हैं. वे अलग-अलग टोलियों में बटे हुए हैं. यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई. तल्ला भी ख़त्म हो गया. झील का किनारा है. यह ख़ूबानी का दरख्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है. मगर किश्ती, यह किश्ती है. मगर क्या यह वही किश्ती है. सामने वह घर है. मेरी पहली बहार का घर. मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत.

घर में रौशनी है. बच्चों की सदाएं हैं. कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है. कोई बुढ़िया चीख़कर उसे चुप करा देती है. मैं सोचता हूं, आधी सदी हो गई. मैंने उस घर को नहीं देखा. देख लेने में क्या हर्ज है. मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के सदस्य भी अंदर चले आए थे. बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिलजुल गए. हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए. आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए. मैंने कहा-मैं आया था. मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था. वह बोली-अरे वह तो मेरा सगा भाई था. वह फिर ज़ोर-ज़ोर से हंसने लगी. वह मुझसे मिलने आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे. वह वापस जा रहा था. मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिलके जाए. तुम फिर आए ही नहीं. वह एकदम संजीदा हो गई. छह बरस मैंने तुम्हारा इंतज़ार किया. तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने एक बेटा दिया. तुम्हारा बेटा. मगर एक साल बाद वह भी मर गया. चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी, मगर तुम नहीं आए. फिर मैंने शादी कर ली.
हम दोनों चुप हो गए. बच्चे खेलते-खेलते हमारे पास आ गए. उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उसके पोते को. और हम ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे. उसकी पुतलियों में चांद चमक रहा था और वह चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था- इंसान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती. बहार ख़त्म हो जाती है, लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है. छोटी-छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं, लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बतें हमेशा क़ायम रहती हैं. तुम दोनों पिछले बहार में न थे. यह बहार तुमने देखी. उससे अगली बहार में तुम न होगे. लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी. बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े, क्योंकि वे अलग से खेलना चाहते थे. वे भागते हुए ख़ूबानी के दरख्त के क़रीब चले गए. जहां किश्ती बंधी थी. मैंने पूछा-यह वही दरख्त है. उसने मुस्कराकर कहा- नहीं यह दूसरा दरख्त है.


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

फ़िरदौस ख़ान का फ़हम अल क़ुरआन पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

या हुसैन

या हुसैन

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

सत्तार अहमद ख़ान

सत्तार अहमद ख़ान
संस्थापक- स्टार न्यूज़ एजेंसी

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

  • नजूमी... - कुछ अरसे पहले की बात है... हमें एक नजूमी मिला, जिसकी बातों में सहर था... उसके बात करने का अंदाज़ बहुत दिलकश था... कुछ ऐसा कि कोई परेशान हाल शख़्स उससे बा...
  • कटा फटा दरूद मत पढ़ो - *डॉ. बहार चिश्ती नियामतपुरी *रसूले-करीमص अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे पास कटा फटा दरूद मत भेजो। इस हदीसे-मुबारक का मतलब कि तुम कटा फटा यानी कटा उसे क...
  • Dr. Firdaus Khan - Dr. Firdaus Khan is an Islamic scholar, poetess, author, essayist, journalist, editor and translator. She is called the princess of the island of the wo...
  • میرے محبوب - بزرگروں سے سناہے کہ شاعروں کی بخشش نہیں ہوتی وجہ، وہ اپنے محبوب کو خدا بنا دیتے ہیں اور اسلام میں اللہ کے برابر کسی کو رکھنا شِرک یعنی ایسا گناہ مانا جات...
  • डॉ. फ़िरदौस ख़ान - डॉ. फ़िरदौस ख़ान एक इस्लामी विद्वान, शायरा, कहानीकार, निबंधकार, पत्रकार, सम्पादक और अनुवादक हैं। उन्हें फ़िरदौस ख़ान को लफ़्ज़ों के जज़ीरे की शहज़ादी के नाम से ...
  • 25 सूरह अल फ़ुरक़ान - सूरह अल फ़ुरक़ान मक्का में नाज़िल हुई और इसकी 77 आयतें हैं. *अल्लाह के नाम से शुरू, जो बड़ा मेहरबान निहायत रहम वाला है*1. वह अल्लाह बड़ा ही बाबरकत है, जिसने हक़ ...
  • ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ - ਅੱਜ ਆਖਾਂ ਵਾਰਿਸ ਸ਼ਾਹ ਨੂੰ ਕਿਤੋਂ ਕਬੱਰਾਂ ਵਿਚੋਂ ਬੋਲ ਤੇ ਅੱਜ ਕਿਤਾਬੇ-ਇਸ਼ਕ ਦਾ ਕੋਈ ਅਗਲਾ ਵਰਕਾ ਫੋਲ ਇਕ ਰੋਈ ਸੀ ਧੀ ਪੰਜਾਬ ਦੀ ਤੂੰ ਲਿਖ ਲਿਖ ਮਾਰੇ ਵੈਨ ਅੱਜ ਲੱਖਾਂ ਧੀਆਂ ਰੋਂਦੀਆਂ ਤ...

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं