खु़र्शीद अनवर
शनिवार और रविवार की छुट्टियां नैरोबी और पेशावर में आतंकवाद की भेंट चढ़ गर्इं। खूंखार अल-कायदा के साथी संगठन अल-शबाब ने कीनिया की राजधानी नैरोबी में एके-47 और ग्रेनेड से मासूमों की लाशें बिछा दीं।
अगले रोज वहाबी तालिबान ने पेशावर के ऒल सेंट्स चर्च में दो आत्मघाती हमले कर तकरीबन नब्बे लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
नैरोबी में मारे जाने वालों का कसूर सिर्फ इतना था कि ये वहाबियत के पैरोकार अल-कायदा के सोमालिया स्थित अल-शबाब की दुनिया भर में खिलाफत कायम करने के हामी नहीं थे। पेशावर कांड की जिम्मेदारी जिस तालिबान संगठन ने ली, उसका रिश्ता अल-कायदा से छुपा नहीं है। मतलब, दुनिया भर में वहाबियत के पैरोकार अल-कायदा और सहयोगी संगठन अपना फन उठाने लगे हैं।
अमूमन अल-कायदा का रिश्ता सऊदी अरबिया सहित तमाम अरब देशों और पाकिस्तान और अफगानिस्तान तक ही देखा जाता है। लेकिन इनकी जड़ें दुनिया में जिस तरह से फैली हुई हैं, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इन्होंने प्रशांत देशों तक अपने मौत का खेल पहुंचा दिया है।
फिलीपींस में अल-कायदा का समर्थन और सऊदी अरबिया का धन पाने वाले संगठन सैफ-उल-इस्लाम (अरबी में इस्लाम की तलवार) ने 2011 में पूरे देश में गृहयुद्ध की स्थिति बना दी थी। नेग्रोस ओरिएंटल जैसे छोटे शहर में सैफ-उल-इस्लाम ने इस दौरान जो हालत कर रखी थी, उसकी दहशत से कई दिन तक सारा जनजीवन ठप्प रहा। इसके बाद जांच में तो तथ्य सामने आए , वे दहलाने वाले थे। इस आतंकवादी संगठन ने न केवल हत्याएं, लूटमार और आगजनी की थी, बल्कि बलात्कार की कई घटनाएं भी अंजाम दी थीं। सैफ-उल-इस्लाम में लगभग सभी फिलीपींस के मूल निवासी सक्रिय हैं जिन्हें अरबी भाषा का ज्ञान चंद मदरसे ही देते हैं। लेकिन संगठन के नाम तैयार होकर अल-कायदा से ही आते हैं।
सोमालिया स्थित अल-शबाब का इतिहास बहुत पुराना नहीं है और न ही इस संगठन में सक्रिय सदस्यों की संख्या ही बहुत बड़ी। महज पांच साल पुराने इस संगठन में लगभग पांच हजार हथियारबंद कार्यकर्ता हैं। यह संगठन अल-कायदा के मुखिया ऐमान-अल-जवाहरी के इशारे पर चलता है। लेकिन मुख्तार-अल-जुबैर के नेतृत्व में संगठन आतंकवादी हरकतों को अंजाम देता है।
इस संगठन का इतिहास रहा है कि ये आमतौर पर समुदाय विशेष को निशाना न बनाकर सार्वजनिक स्थलों को चिह्नित करके अंधाधुंध हमले करता है। नैरोबी में शनिवार को गुलजार बाजार पर हमला करके इस संगठन ने इसी तर्ज पर हत्याएं कीं। इसका मकसद है, ऐसी दहशत फैलाना जिससे अफ्रीकी देशों में ईसाई और मुसलमानों के बीच तनाव बढ़े और इस्लामी खलीफों का शासन इस देश में लाया जा सके। पाकिस्तान का रुख करें। यहां हालात जरा दीगर हैं। यहां आमतौर पर अल-कायदा और उसके संगी संगठन गैर वहाबी मुसलमानों, ईसाइयों, हिंदुओं और सिखों को निशाना बनाते हैं। गैर-मुस्लिम समुदायों के संदर्भ में आंतकवादी गतिविधियों पर नजर डालने के दौरान हमें पाकिस्तानी हुकूमत और उसके कानूनों पर भी एक नजर डालनी होगी। सरकार ने ईश निंदा कानून नाम से एक काला कानून बना रखा है। इस कानून की रोशनी में गैर-मुस्लिमों द्वारा किसी भी रूप में अल्लाह, मोहम्मद, कुरान हदीस आदि पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी होने पर, उस व्यक्ति को सजाए-मौत दी जाती है।
लंबे अर्से से ईसाई समुदाय इसका निशाना रहा है। पंजाब सूबे में ईश निंदा कानून के तहत पिछले कुछ वर्षों में सैकड़ों लोग गिरफ्तार हुए। एक ऐसी ही गिरफ्तारी जनरल मुशर्रफ के शासन काल में जोजफ नाम के व्यक्ति की हुई थी। उसे मौत की सजा भी सुना दी गई, लेकिन उसके घरवालों ने परवेज मुशर्रफ से अपील की कि केस पर दोबारा नजर डाली जाए। परवेज मुशर्रफ ने अर्जी पाकर जब केस की जांच-पड़ताल करवाई तो मालूम हुआ कि जोजफ के पास बेहद उपजाऊ जमीन है, जिसे हथियाने के लिए वहां के दबंग मुसलमान ताक में बैठे थे और वे सारे के सारे अल-कायदा के समर्थक थे। जोजफ तो रिहा हो गया। लेकिन उसके जैसे जाने कितने ईसाइयों, हिंदुओं और सिखों को ईश निंदा कानून ने फांसी पर चढ़ाया और उनकी संपत्ति हड़पीं इन्हीं कट्टरपंथियों ने।
साफ है, मुल्क में अल्पसंख्यकों के साथ जो सलूक आतंकवादी संगठन कर रहे हैं, उसमें पाकिस्तान भी बराबर का भागीदार है। ऐसे हादसों की एक लंबी फेहरिस्त है, जिसमें अब तक हजारों लोग मारे जा चुके हैं। मगर कातिलों के खिलाफ किसी भी तरह की कार्रवाई नहीं की गई। शिया समुदाय, जिसे अल-कायदा और वहाबी इस्लाम के दायरे से बाहर कर चुके हैं, लगातार आतंकवादी गुटों के निशाने पर रहे हैं। इस वर्ष के शुरू में क्वेटा में अस्सी लोगों की निर्मम हत्या इन्हीं आतंकियों ने की।
लाहौर में दो इलाके ऐसे हैं जहां ईसाई अच्छी खासी तादाद में हंै। योहानाबाद और जोजफ कॉलोनी। इसी वर्ष मई में इन इलाकों पर हमले हुए , कुछ मौतें हुईं और बड़े पैमाने पर आगजनी की घटनाएं हुईं। न कोई कार्रवाई हुई, न ही न्याय मिला। पेशावर की दुखद घटना इन्हीं तमाम सिलसिलों की एक कड़ी है।
यह छिपा नहीं है कि जम्हूरियत के दावे के बावजूद पाकिस्तान शुरू से फौजी शासन की गिरफ्त में रहा। मुल्क में मौलाना मौदूदी की जमात-ए-इस्लामी जहर बोती रही, मगर गैर-मुस्लिम फिर भी कमोबेश सुरक्षित ही रहे। बड़े पैमाने पर 1953 में लाहौर में कत्ले-आम हुआ तो वह अहमदिया मुसलमानों का हुआ। ऐसा नहीं है कि अल्पसंख्यकों पर हमले नहीं हुए। सिंध में उमेरकोट में कई बार हिंदुओं पर हमले हुए , लाहौर समेत पूरे पंजाब में हिंदुओं और सिखों पर हमले हुए। वजीरिस्तान और पंजाब में सिखों ने हमले झेले। मगर यह हिंसा उसी तरह से थी, जिस तरह से दक्षिण एशिया के अन्य देशों में सांप्रदायिक हिंसा होती है।
लेकिन 1978 में जिया उल हक के सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान की तस्वीर एकदम बदल गई। जिस तरह से पाकिस्तान का इस्लामीकरण हुआ और कट्टरपंथियों को पनपने में आइएसआइ सहित हुकूमत और खुद सेना ने मदद की, उसका नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान के अल्पसंख्यक हर लम्हा डर के माहौल में जीने लगे। हॉस्टल के कमरों में ईसाइयों के साथ कमरा साझा न करना, डाइनिंग हॉल में उनके साथ खाने से मना करना और अभी हाल ही में एक ईसाई लड़के की हत्या सिर्फ इसलिए कर देना कि उसने मस्जिद में घुसकर पानी पी लिया था, ऐसे कुछ उदाहरण हैं जिनसे ईसाई अल्पसंख्यकों की हालत का अंदाजा लगाया जा सकता है।
अब ऐसे माहौल में अल-कायदा जैसे वहाबी फासीवादी संगठन बड़े पैमाने पर मौत का खेल खेल रहे हैं, उसमें पाकिस्तानी सरकार की भूमिका को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। खतरनाक आतंकवादियों को बिना शर्त जेल से रिहा करना, आतंकवादियों को शह नहीं देना है तो और क्या है? जिन आतंकवादियों को पाकिस्तान सेना द्वारा मारे जाने के वीडियो और तस्वीरें सोशल मीडिया पर दिखाई जाती रही हैं, वह दरअसल न तालिबानी हैं और न ही अल-कायदा के लोग, बल्कि गरीबों, मजलूमों को मारकर पैगाम दिया जाता है कि आतंकवादियों के खिलाफ पाकिस्तान सरकार और सेना कार्रवाई कर रही है। सच्चाई यह है कि अल-कायदा जैसे संगठनों के मुख्यालय पुलिस और सेना की सरपरस्ती में सक्रिय हैं। हथियारबंद प्रशिक्षण खुलेआम वजीरिस्तान के इलाकों में दिए जाते हैं।
बहरहाल, जिस ढंग से पाकिस्तान, मध्य एशिया और अफ्रीका तक अल-कायदा, अल-शबाब, सैफ-उल-इस्लाम, लश्करे-तैयबा खुलेआम कत्ल और खून का खेल खेल रहे हैं, उसमें मायूसी का आलम नजर आता है। जरूरत इस बात की है कि इन आतंकवादी संगठनों को ये सरकारें न केवल गैर-कानूनी घोषित करें, बल्कि उनका समूल नष्ट करने का बीड़ा उठाएं। अन्यथा मौत के ये सौदागर सारी दुनिया को अपनी चपेट में ले सकते हैं।
जनसत्ता से साभार