फ़िरदौस ख़ान
मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में 42 साल तक कोमा में रहने के बाद नर्स अरुणा शानबाग ने दम तोड़ दिया. भारत एक ऐसा देश है, जहां पर क़ानून का फायदा मज़लूमों के बजाय ज़ालिम ही ज्यादा उठाते हैं. अरुणा शानबाग के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही हुआ. उसके साथ बलात्कार कर उसकी ज़िंदगी तबाह करने वाला वहशी महज़ सात साल की क़ैद काटकर आज़ाद हो गया, लेकिन पिछले 42 सालों से ज़िंदा लाश बनी अरुणा को मांगे से मौत भी नहीं मिल पाई. ग़ौरतलब है कि 27 नवंबर, 1973 को मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग के साथ इसी अस्पताल के सफ़ाईकर्मी सोहनलाल ने बलात्कार किया था. बलात्कार से पहले उसने अरुणा के गले को लोहे की ज़ंजीर से कस दिया था. इसकी वजह से उसके दिमाग़ तक खून पहुंचाने वाली नसें फट गईं और वह एक ज़िंदा लाश बनकर रह गई. हादसे के कुछ दिनों बाद पुलिस ने सोहनलाल को गिरफ्तार कर लिया. हैरत की बात तो यह है कि पुलिस ने सोहनलाल पर अरुणा को जान से मारने की कोशिश करने और कान की बाली लूटने का मामला दर्ज किया. उस पर यौन शोषण से संबंधित कोई धारा नहीं लगाई गई. आख़िर अदालत ने उसे महज़ सात साल क़ैद की सज़ा सुनाई. उसने सज़ा काटी और कुछ वक्त बाद दिल्ली के एक अस्पताल में नौकरी कर ली. बाद में एड्स से उसकी मौत हो गई. सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा शानबाग को इच्छा मृत्यु की इजाजत देने संबंधी याचिका को खारिज कर दिया, मगर अदालत ने यह भी कहा कि कुछ परिस्थितियों में पैसिव यूथनेशिया की अनुमति दी जा सकती है. साथ ही अदालत ने पैसिव यूथनेशिया के लिए दिशा-निर्देश भी तय करते हुए कहा कि इस मामले में हाईकोर्ट की मंज़ूरी ज़रूरी है. लेखिका पिंकी विरानी ने दिसंबर 2009 में अरुणा की तरफ़ से अदालत में याचिका दाख़िल करके कहा था कि पिछले 37 सालों से वह मुंबई के अस्पताल में लगभग मृत अवस्था में पड़ी है. इसलिए उसे दया मृत्यु की इजाज़त दी जाए. इस बारे में सरकार का कहना था कि अभी तक भारतीय संविधान में इच्छा मृत्यु देने का कोई प्रावधान नहीं है. अस्पताल ने इच्छा मृत्यु देने का सख़्त विरोध किया है. जिस देश में पैसे न होने पर अस्पताल प्रशासन गंभीर मरीज़ों को बाहर निकाल फेंकता है, उसी देश में एक अस्पताल एक ज़िंदा लाश को संभाल कर रखना चाहता है. क्या यह अस्पताल उन गंभीर मरीज़ों के प्रति इतनी ही मानवता दिखाएगा, जिन्हें इलाज की बेहद ज़रूरत है और उनके पास पैसे नहीं है. हालांकि तत्कालीन केंद्रीय क़ानून मंत्री एम वीरप्पा मोइली ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को सही क़रार देते कहा है कि क़ानून के बिना सिर्फ़ न्यायिक आदेश पर इस तरह के फैसले लागू नहीं किए जा सकते. यहां बात स़िर्फ अरुणा को इच्छा मृत्यु देने की नहीं, बल्कि उस व्यवस्था की हो रही है, जिसके कारण एक जीती-जागती लड़की इस हालत में पहुंची. क्यों इस देश में तमाम क़ानून होने के बावजूद वहशी दरिंदों को खुला छोड़ दिया जाता है.
हम विदेशी दुश्मन से लड़ने के लिए तो नित नई मिसाइलें तैयार कर रहे हैं, लेकिन अपने ही घर में मां, बहन और बेटियों को सुरक्षा तक मुहैया नहीं करा पा रहे हैं. ग़ैर सरकारी संगठन प्लान इंडिया के एक सर्वेक्षण के मुताबिक़, शहरी इलाक़ों में रहने वाली 70 फ़ीसद लड़कियों का मानना है कि शहर उनके लिए असुरक्षित होते जा रहे हैं. यह सर्वेक्षण दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, पुणे, कोलकाता, बंगलुरु, पटना, वाराणसी, भुवनेश्वर एवं रांची की दस हज़ार लड़कियों से बातचीत पर आधारित है. प्लान इंडिया के गवर्निंग बोर्ड के प्रमुख एवं फिल्म निर्देशक गोविंद निहलानी और अभिनेत्री एवं सामाजिक कार्यकर्ता शबाना आज़मी द्वारा जारी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि महिलाओं को ज़्यादा मौक़े मुहैया कराने का दावा करने वाले शहरी निकायों में ही लड़कियां सबसे ज़्यादा यौन प्रताड़ना का शिकार होती हैं. 74 फ़ीसद लड़कियों को सार्वजनिक जगहों पर सबसे ज़्यादा डर महसूस होता है, जबकि 69 फ़ीसद लड़कियां शहरों के माहौल को बेहद असुरक्षित मानती हैं. इसी तरह सिटीज़ बेसलाइन सर्वे-दिल्ली की रिपोर्ट में कहा गया है कि राजधानी दिल्ली में 66 फ़ीसदी महिलाएं दिन में दो से पांच बार तक यौन प्रताड़ना का शिकार होती हैं. दिल्ली सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, ग़ैर सरकारी संस्था जागोरी, महिलाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र के विकास कोष और यूएन हैबिटेट द्वारा संयुक्त रूप से कराए गए इस सर्वे के मुताबिक़, 15 से 19 साल की छात्राओं और असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को दुर्व्यवहार का सामना ज़्यादा करना पड़ता है. नेशनल क्राइम रिपोर्ट ब्यूरो के मुताबिक़, हर आठ घंटे में एक महिला या बच्ची का अपहरण होता है. इसी प्रकार 12 घंटे में उत्पीड़न, 18 घंटे में बलात्कार, 24 घंटे में यौन शोषण और हर 30 घंटे में उसकी हत्या कर दी जाती है. ये घटनाएं सिर्फ़ वे हैं, जो मीडिया में आ जाती हैं. इनके अलावा कितनी ही ऐसी घटनाएं हैं, जो होती तो हैं, लेकिन सामने नहीं आ पातीं. देश का कोई भी हिस्सा महिला प्रताड़ना की घटनाओं से अछूता नहीं है. स्कूल हो या कॉलेज, दफ्तर हो या बाज़ार, हर जगह आते-जाते रास्ते में लड़कियों और महिलाओं को असामाजिक तत्वों की अश्लील हरकतों और फ़ब्तियों का सामना करना पड़ता है. निजी संस्थानों में ही नहीं, बल्कि सरकारी विभागों, यहां तक कि पुलिस विभाग में भी महिलाओं को पुरुष सहकर्मियों की ज़्यादतियों का शिकार होना पड़ता है.
यौन प्रताड़ना की बढ़ती घटनाओं ने यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आख़िर हमारा समाज किस ओर जा रहा है. सबसे ज़्यादा शर्मनाक बात यह है कि भीड़ में असामाजिक तत्व महिलाओं की अस्मत से खेलते रहते हैं और लोग मूकदर्शक बने रहते हैं. हैवानियत यह कि बलात्कारी महिलाओं ही नहीं, मात्र कुछ महीने की मासूम बच्चियों को भी अपनी हवस का शिकार बनाते हैं और फिर पक़डे जाने के डर से उनकी हत्या कर देते हैं. पिछले माह उत्तर प्रदेश के आगरा ज़िले के गांव कुकथला में छह महीने की बच्ची के साथ उसी गांव के व्यक्ति ने बलात्कार किया, जिससे बच्ची की मौत हो गई. बलात्कारियों में ग़ैर ही नहीं, पिता और भाई से लेकर चाचा, मामा, दादा एवं अन्य क़रीबी रिश्तेदार तक शामिल होते हैं.
महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार करने के मामले अदालतों में न पहुंच पाने का सबसे बड़ा कारण सामाजिक डर है. पुरुष प्रधान समाज ने महिलाओं का मानसिक एवं शारीरिक शोषण करने के अनेक तरीक़े ईजाद किए हैं. शील का मानदंड भी उन्हीं में से एक है. अगर कोई पुरुष किसी महिला के साथ अश्लील हरकत या उसका शील भंग करता है तो समाज पुरुष को दोषी मानते हुए उसे सज़ा देने कीबजाय महिला को ही कलंकिनी या कुलटा की संज्ञा दे देता है. ऐसी हालत में कोई भी महिला यह क़तई नहीं चाहेगी कि समाज उसे हेय दृष्टि से देखे. बलात्कार के मामले में पी़डित और उसके परिवार को मुसीबतों का सामना करना प़डता है. पहले तो पुलिस उन्हें प्रता़डित करते हुए मामला दर्ज करने से इंकार कर देती है. अगर मीडिया के दबाव के कारण मामला दर्ज हो भी गया तो पुलिस मामले को लटकाए रखती है. ऐसे अनेक मामले सामने आ चुके हैं, जब पुलिस ने बलात्कारियों का साथ देते हुए पी़डितों को प्रता़डित किया. अगर कोई पीड़ित महिला अत्याचार का मुक़ाबला करते हुए इंसाफ़ पाने के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाती है, तो उसे वहां भी निराशा का सामना करना पड़ता है, क्योंकि अदालत में महिला को बदचलन साबित कर दिया जाता है और लचर क़ानून व्यवस्था के चलते अपराधी आसानी से बच निकलता है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक़, पुलिस में दर्ज ऐसे मामलों में केवल दो फ़ीसद लोगों को ही सज़ा हो पाती है, जबकि 98 फ़ीसद लोग बाइज़्ज़त बरी हो जाते हैं, मगर महिलाओं को इसका ख़ामियाज़ा ताउम्र समाज के ताने सुनकर भुगतना पड़ता है. इससे जहां उनकी ज़िंदगी प्रभावित होती है, वहीं व्यक्तिगत तरक्की और समाज में उचित भागीदारी भी अवरुद्ध हो जाती है. बलात्कार के मामले में समाज को भी अपना नज़रिया बदलना होगा. उसे पीड़ित महिला के प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए बलात्कारी को सज़ा दिलाने में अपनी भूमिका तय करनी होगी. बलात्कारी कहीं बाहर से नहीं आते, वे इसी समाज का हिस्सा हैं. लोगों को चाहिए कि वे अपनी बेटियों पर तमाम पाबंदियां लगाने की बजाय अपने बेटों को अच्छे संस्कार दें, ताकि वे समाज में गंदगी न फैलाएं. फिर कोई और अरुणा अभिशप्त ज़िन्दगी गुज़ारने को मजबूर न हो, वरना अगली अरुणा आपकी बहन-बेटी भी हो सकती है...