फ़िरदौस ख़ान
लड़की बहुत मज़लूम थी. उसकी ज़िन्दगी में ऐसा कोई नहीं था, जिसे वह अपना कह सके. मां-बाप भी सारी उम्र नहीं बैठे रहते. और भाई, भाई भी तब तक ही भाई होते हैं, जब तक उनकी शादी नहीं हो जाती. शादी के बाद वो सिर्फ़ अपनी बीवी के ही बनकर रह जाते हैं. शादी के बाद वो अपने मां-बाप को नहीं पूछते, फिर बहन क्या चीज़ है.
लड़की अपनी ज़िन्दगी के अकेलेपन से परेशान थी. उसकी तकलीफ़ को समझने वाला कोई नहीं था. कोई ऐसा नहीं था, जिससे पल-दो-पल बात करके वो अपना दिल हल्का कर सके. उसकी ज़िन्दगी अज़ाब बनकर रह गई थी. आख़िर कब तक वो इस अज़ाब को झेलती. उसने फ़ैसला किया कि जब तक हिम्मत है, तब तक वो ज़िन्दगी के बोझ को अपने कंधों पर ढोएगी और जब हिम्मत जवाब दे देगी, तो इस बोझ को उतार फेंकेगी... और एक दिन उसने ऐसा ही किया. उसने ख़ुदकुशी कर ली.
ख़ुद्कुशी करने से पहले उसने बहुत सोचा, दुनिया के बारे में, रिश्तेदारों के बारे में और उन बातों के बारे में, जिनमें कहा जाता है कि ख़ुदकुशी करना जुर्म है, गुनाह है.
वो सोचती है, कोई जिये या मरे, इससे दुनिया को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. रिश्तेदारों का क्या है, जब कभी जीते जी उसकी ख़बर न ली, मरने के बाद क्या याद करेंगे. और जुर्म, क़ानून भी अब उसका क्या कर लेगा. क़ानून भी उन हालात को नहीं रोकता, जो जुर्म की वजह बनते हैं. वो तो बस आंखें मूंदकर जुर्म होने का इंतज़ार करता है. गुनाह, उसका क्या. कहते हैं कि गॊड की मर्ज़ी के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता. हर चीज़ पर वो क़ादिर है, हर चीज़ उसी के अख़्तियार में है. मौत का फ़रिश्ता भी उसी की इजाज़त से ही रूह क़ब्ज़ करता है. किसकी मौत कब, कहां, कैसे होनी है, ये पहले से ही तय होता है. यानी उसकी मौत इसी तरह लिखी है, यानी ख़ुदकुशी. ये सोचकर उसके दिल से एक बोझ उतर जाता है, गुनाह का बोझ. वो सोचती है कि शायद उसकी मौत इसी तरह लिखी है, तभी ये हालात पैदा हुए कि ज़िन्दगी से बेपनाह मुहब्बत करने वाली एक लड़की आज इस तरह मौत की आग़ोश में सो जाना चाहती है.
अब उसे सबसे ज़रूरी काम करना था, आख़िरी काम. उसने अपनी डायरी उठाई और आख़िरी तहरीर लिखने बैठ गई. उसे सुसाइड नोट लिखना था. उसने लिखा-
"आज मैंने अपने पूरे होशो-हवास में अपनी मर्ज़ी से ज़िन्दगी के बोझ को अपने कंधों से उतार फेंका है."
इसके बाद उसने बहुत-सी नींद की गोलियां खा लीं और अपनी डायरी को अपने सीने से लगाकर लेट गई. ये डायरी ही बस उसकी अपनी थी, उसके अकेलेपन में उसका सबसे बड़ा सहारा थी, जिसमें वो अपने दिल की बातें लिखा करती थी. अपने उन ख़्वाबों के बारे में लिखा करती थी, जो कभी उसने देखे थे. अपने घरबार के ख़्वाब, ज़िन्दगी को भरपूर जीने के सतरंगी ख़्वाब. वो इतनी ख़ुशनसीब नहीं थी कि उसके ख़्वाब पूरे होते. उसने कौन-सी ख़ुदायी मांगी थी, बस एक अपना घर ही तो चाहा था. उसे वो भी नसीब नहीं हुआ.
(कहानी)
तस्वीर गूगल से साभार