फ़िरदौस ख़ान
हिन्दी के जाने-माने दलित साहित्यकार ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी आत्मकथा 'जूठन' से साहित्य जगत में ख्याति हासिल की थी. उनका मानना था कि दलितों द्वारा लिखा जाने वाला साहित्य ही दलित साहित्य है, क्योंकि दलित ही दलित की पीडा़ को बेहतर ढंग से समझ सकता है और वही उस अनुभव की प्रामाणिक अभिव्यक्ति कर सकता है. अपनी आत्मकथा ’जूठन’ में उन्होंने दलितों की तकलीफ़ों और परेशानियों का मार्मिक वर्णन किया. हिन्दी में दलित साहित्य के विकास में ओमप्रकाश वाल्मीकि की महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
ओमप्रकाश वाल्मीकि का जन्म 30 जून, 1950 को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रपुर ज़िले के बरला गांव के एक वाल्मीकि परिवार में हुआ. उन्होंने अपने गांव और देहरादून से शिक्षा हासिल की. उन्होंने बचपन में सामाजिक, आर्थिक और मानसिक कष्ट झेले, जिसकी उनके साहित्य में मुखर अभिव्यक्ति हुई है. वह कुछ वक़्त तक महाराष्ट्र में रहे, जहां वे दलित लेखकों के संपर्क में आए और उनकी प्रेरणा से डॉ. भीमराव आम्बेडकर की रचनाओं का अध्ययन किया. आम्बेडकर के विचारों का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा. उन्होंने लिखना शुरू कर दिया. फिर वह देहरादून आ गए और यहां आर्डिनेंस फ़ैक्टरी में एक अधिकारी के रूप में काम करने लगे और इसी पद से सेवानिवृत्त हुए. इस दौरान उनका साहित्यिक सफ़र जारी रहा. वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे. उन्होंने कविता, कहानी, आत्मकथा से लेकर आलोचनात्मक लेखन भी किया. साल 1997 में प्रकाशित जूठन की वजह से उन्हें हिन्दी साहित्य में विशिष्ट पहचान और प्रतिष्ठा मिली. ‘जूठन’ का अब तक कई भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. उन्होंने सृजनात्मक साहित्य के साथ-साथ आलोचनात्मक लेखन भी किया है. साल 1989 में उनका कविता संग्रह ’सदियों का संताप’ प्रकाशित हुआ. फिर साल 1997 में कविता संग्रह ’बस! बहुत हो चुका’, 2000 में कहानी संग्रह ’सलाम’, 2001 में आलोचना ’दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र’, 2004 में कहानी संग्रह ’घुसपैठिए’, और साल 2009 कविता संग्रह ’अब और नहीं’ प्रकाशित हुआ. इसके अलावा नाटकों के अभिनय और निर्देशन में भी उनका दख़ल रहा. उन्हें साल 1993 में डॉ. आम्बेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार, 1995 में परिवेश सम्मान और साहित्यभूषण पुरस्कार (2008-2009) से नवाज़ा गया.
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में एक आग समाई है, क्रोध की आग, अपमान की आग, जो उन्होंने समाज मंक फैले छुआछूत की वजह से बरसों तक उनके सवाभिमान को जलाती रही. इसी आग ने उन्हें लिखने के लिए प्रोत्साहित किया. उनकी कविता ’ठाकुर का कुंआ’ में इस आग की जलन को महसूस किया जा सकता है-
चूल्हा मिट्टी का
मिट्टी तालाब की
तालाब ठाकुर का
भूख रोटी की
रोटी बाजरे की
बाजरा खेत का
खेत ठाकुर का
बैल ठाकुर का
हल ठाकुर का
हल की मूठ पर
हथेली अपनी
फसल ठाकुर की
कुंआ ठाकुर का
पानी ठाकिर का
खेत खलिहान ठाकुर का
फिर अपना क्या?
गांव?
शहर?
देश?
दलित साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर व वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि का पिछले माह 17 नवंबर को देहांत हो गया है. वे लंबे वक़्त से कैंसर से पीड़ित थे और देहरादून के एक अस्पताल में उनका इलाज चल रहा था. उनका नाम हिन्दी दलित साहित्य आंदोलन में अग्रणीय प्रतिष्ठापकों में लिया जाता है. वह उन शीर्ष लेखकों में से थे, जिन्होने अपने आक्रामक तेवर के ज़रिये साहित्य जगत में अपनी अलग पहचान बनाई है.