फ़िरदौस ख़ान
हिन्दुस्तानी मुसलमानों में दहेज का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. हालत यह है कि बेटे के लिए दुल्हन तलाशने वाले मुस्लिम वालिदैन लड़की के गुणों से ज़्यादा दहेज को तरजीह दे रहे हैं. शादियों में दहेज़ का ख़ूब लेन-देन हो रहा है. शादियों पर पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है. मुआशरे में ऐसी महंगी शादियां मिसाल बन रही हैं. रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि आस-पड़ौस के लोग भी इन शादियों का गुणगान करते नहीं थकते. जिनके पास पैसा है, वे तो ख़र्च कर लेते हैं, लेकिन जिनके पास पैसा नहीं है, वे क्या करें? ऐसे में उनके लिए ऐसी शादियां ख़्वाहिश या ख़लिश बनकर रह जाती हैं. अफ़सोस की बात है कि ऐसी शादियों की वजह से ग़रीबों की बेटियां कुंवारी बैठी रह जाती हैं. ये दिखावा उनकी ख़ुशियां निग़ल रहा है.
दहेज को लेकर मुसलमानों की एक राय नहीं हैं. जहां कुछ मुसलमान दहेज को ग़ैर इस्लामी क़रार देते हैं, वहीं कुछ मुसलमान दहेज को जायज़ मानते हैं. उनका तर्क है कि हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने भी अपनी बेटी फ़ातिमा ज़हरा रज़ियल्लाहु तआला अन्हा को कुछ सामान यानी दहेज़ दिया था. ख़ास बात यह है कि दहेज़ की हिमायत करने वाले मुसलमान यह भूल जाते हैं कि पैग़म्बर ने अपनी बेटी को शादी में बेशक़ीमती चीज़ें नहीं दी थीं. इसलिए उन चीज़ों का दहेज़ से मुक़ाबला ही नहीं किया जा सकता. यह तोहफ़े के तौर पर थीं और तोहफ़ा मांगा नहीं जाता, बल्कि देने वाले पर निर्भर करता है कि वह तोहफ़े के तौर पर क्या देता है, जबकि दहेज़ के लिए लड़की के वालिदैन को मजबूर किया जाता है. लड़की के वालिदैन अपनी बेटी का घर बसाने के लिए हैसियत से बढ़कर दहेज़ देते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें कितनी ही परेशानियों का सामना क्यों न करना पड़े. हालांकि 'इस्लाम' में दहेज की प्रथा नहीं है.
क़ाबिले-ग़ौर है कि दहेज़ की वजह से मुस्लिम लड़कियों को उनकी पैतृक संपत्ति के हिस्से से भी महरूम कर दिया जाता है. इसके लिए तर्क दिया जाता है कि उनकी शादी और दहेज़ में काफ़ी रक़म ख़र्च होती है, इसलिए अब जायदाद में उनका कोई हिस्सा नहीं रह जाता. ख़ास बात यह भी है कि लड़की के मेहर की रक़म तय करते वक़्त सैकड़ों साल पुरानी रिवायतों का हवाला दिया जाता है, जबकि दहेज लेने के लिए शरीयत को 'ताख़' पर रखकर बेशर्मी से मुंह खोला जाता है. हालत यह है कि शादी की बातचीत शुरू होने के साथ ही लड़की के घरवालों की जेब कटनी शुरू हो जाती है. जब लड़के वाले लड़की के घर जाते हैं तो सबसे पहले यह देखा जाता है कि नाश्ते में कितनी प्लेटें रखी गईं हैं, यानी कितनी तरह की मिठाइयां, मेवे और फल रखे गए गए हैं. इतना ही नहीं, दावतें भी मुर्ग़े और मटन की ही चल रही हैं. फ़िलहाल नाश्ते में 15 से लेकर 20 प्लेटें रखना आम हो गया है और यह सिलसिला शादी तक जारी रहता है. शादी में दहेज के तौर पर सोने-चांदी के ज़ेवरात, फ़र्नीचर, टीवी, फ़्रिज, वाशिंग मशीन, क़ीमती कपड़े और ताम्बे- पीतल के भारी बर्तन दिए जा रहे हैं. इसके बावजूद दहेज में कार और मोटर साइकिल भी मांगी जा रही है, भले ही लड़के की इतनी हैसियत न हो कि वह तेल का ख़र्च भी उठा सके. जो वालिदैन अपनी बेटी को दहेज देने की हैसियत नहीं रखते, उनकी बेटियां कुंवारी बैठी हैं.
पुरानी दिल्ली की रुख़सार उम्र के 55 बसंत देख चुकी हैं, लेकिन अभी तक उनकी हथेलियों पर सुहाग की मेहंदी नहीं सजी. वह कहती हैं कि मुसलमानों में लड़के वाले ही रिश्ता लेकर आते हैं, इसलिए उनके वालिदैन रिश्ते का इंतज़ार करते रहे. वे बेहद ग़रीब हैं, इसलिए रिश्तेदार भी बाहर से ही दुल्हनें लाए. अगर उनके वालिदैन दहेज देने की हैसियत रखते तो शायद आज वह अपनी ससुराल में होतीं और उनका अपना घर-परिवार होता. उनके अब्बू और अम्मी कई साल पहले अल्लाह को प्यारे हो गए. घर में तीन शादीशुदा भाई, उनकी बीवियां और उनके बच्चे हैं. सबकी अपनी ख़ुशहाल ज़िन्दगी है. वह दिनभर बटवे का काम करती हैं और साथ ही घर का काम-काज भी करती हैं. अब बस यही उनकी ज़िन्दगी है. ये अकेली रुख़सार का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसी हज़ारों लड़कियां हैं, जिनकी खुशियां दहेज़ रूपी लालच निग़ल चुका है.
राजस्थान के गोटन की रहने वाली गुड्डी का सद्दाम से निकाह हुआ था. शादी के वक़्त दहेज भी दिया गया था, इसके बावजूद उसका शौहर और उसके ससुराल के अन्य सदस्य दहेज के लिए उसे तंग करने लगे. उसके साथ मारपीट की जाती. जब उसने और दहेज लाने से इंकार कर दिया तो उसके ससुराल वालों ने मारपीट करके उसे घर से निकाल दिया. अब वह अपने मायके में है. मुस्लिम समाज में गुड्डी जैसी हज़ारों औरतें हैं, जिनका परिवार दहेज की मांग की वजह से उजड़ चुका है.
इस्लाम में बेटियों का दर्जा
अरब देशों में पहले लोग अपनी बेटियों को ज़िन्दा दफ़ना दिया करते थे, लेकिन अल्लाह के नबी हज़रत मुहम्मद मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इस घृणित प्रथा को ख़त्म करवा दिया. उन्होंने मुसलमानों को अपनी बेटियों की अच्छी तरह से परवरिश करने की तालीम दी. लेकिन बेहद अफ़सोस की बात है कि आज हम अपने नबी के बताये रास्ते से भटक गए हैं. एक हदीस के मुताबिक़ पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- "जिस की तीन बेटियां या तीन बहनें, या दो बेटियां या दो बहनें हैं, जिन्हें उसने अच्छी तरह रखा और उनके बारे में अल्लाह से डरता रहा, तो वह जन्नत में दाख़िल होगा." (सहीह इब्ने हिब्बान 2/190 हदीस संख्या : 446)
एक अन्य हदीस के मुताबिक़ "एक व्यक्ति अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और सवाल किया कि ऐ अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन है? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी मां. उसने कहा कि फिर कौन? आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारा बाप. फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार." (सहीह बुख़ारी हदीस संख्या : 5626, सहीह मुस्लिम हदीस संख्या: 2548)
इस्लाम ने महिला को एक मां, एक बेटी और एक बहन के रूप में आदर और सम्मान दिया है. अल्लाह ने इसका ज़िक्र करते हुए क़ुरआन में फ़रमाया है- “और जब उनमें से किसी को लड़की की पैदाइश की ख़ुशख़बरी दी जाती है, तो रंज से उसका चेहरा स्याह हो जाता है और वह गु़स्से से भर जाता है. वह क़ौम से छुपा फिरता है, उस ख़बर की वजह से जो उसे सुनाई गई है. वह सोचता है कि उसे रुसवाई के साथ ज़िन्दा रखे या ज़िन्दा मिट्टी में दफ़न कर दे. जान लो कि तुम लोग कितना बुरा फ़ैसला करते हो.
(16 : 58-59)
“और जब ज़िन्दा दफ़नाई गई लड़की से पूछा जाएगा कि उसे किस गुनाह की वजह से क़त्ल किया गया?”
(81:8-9)
कन्या भ्रूण हत्या
मुसलमानों में बढ़ती दहेज प्रथा के कारण कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराई भी पनप रही है. उनमें
भी लड़कों के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है. इसकी वजह से लड़कियों को जन्म लेने से पहले ही मां की कोख में मौत की नींद सुला दिया जाता है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़ मुस्लिम समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 950:1000 है, जो हिन्दू समुदाय के लिंग अनुपात- 925:1000 से बेहतर कहा जा सकता है. हालांकि इस मामले में ईसाई समुदाय देश में अव्वल है. इस समुदाय में कुल लिंग अनुपात- 1009 :1000 है. औसत राष्ट्रीय लिंग अनुपात 933:1000 है.
मुरादाबाद की शकीला कहती हैं कि उनके ससुराल वाले बेटा चाहते थे. इसलिए हर बार बच्चे के लिंग की जांच कराते और लड़की होने पर गर्भपात करवा दिया जाता. उनके चार बेटे हैं. इन चार बेटों के लिए वह अपनी पांच बेटियों को खो चुकी हैं. उन्हें इस बात का बेहद दुख है. लाचारी ज़ाहिर करते हुए वह कहती हैं कि एक औरत कर भी क्या कर है? इस मर्दाने समाज में औरत के जज़्बात की कौन क़द्र करता है.
मुसलमानों में लिंग जांचने और कन्या भ्रूण हत्या को लेकर दारूल उलूम नदवुल उलमा (नदवा) और फ़िरंगी महल के दारूल इफ़्ता फ़तवे जारी कर चुके हैं. फ़तवों में कहा गया था कि शरीयत गर्भ की लिंग आधारित जांच की इजाज़त नहीं देती, इसलिए यह नाजायज़ है. ऐसा करने से माता-पिता और इस घृणित कृत्य में शामिल लोगों को गुनाह होगा. क़ाबिले- ग़ौर बात यह है कि ऐसे फ़तवे कभी-कभार ही आते हैं और इनका प्रचार-प्रसार भी नहीं हो पाता.
दहेज़ के ख़िलाफ़ आगे आई मुस्लिम तंज़ीमें
ख़ुशनुमा बात यह है कि मुस्लिम तंज़ीमें दहेज़ के ख़िलाफ़ आगे आ रही हैं. ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने मुस्लिम समाज में बढ़ती दहेज की कुप्रथा पर चिंता ज़ाहिर करते हुए इसे रोकने के लिए मुहिम शुरू करने कर दी है. बोर्ड की एक बैठक में मुस्लिम समाज में शादियों में फ़िज़ूलख़र्ची रोकने के लिए इस बात पर भी सहमति जताई गई थी कि निकाह सिर्फ़ मस्जिदों में ही करवाया जाए और लड़के वाले अपनी हैसियत के हिसाब से वलीमें करें. साथ ही इस बात का भी ख़्याल रखा जाए कि लड़की वालों पर ख़र्च का ज़्यादा बोझ न पड़े, जिससे ग़रीब परिवारों की लड़कियों की शादी आसानी से हो सके. इस्लाह-ए-मुआशिरा यानी समाज सुधार की मुहिम पर चर्चा के दौरान बोर्ड की बैठक में यह भी कहा गया कि निकाह पढ़ाने से पहले उलेमा वहां मौजूद लोगों बताएं कि निकाह का सुन्नत तरीक़ा क्या है और इस्लाम में यह कहा गया है कि सबसे अच्छा निकाह वही है, जिसमें सबसे कम ख़र्च हो. मुसलमानों से यह भी अपील की गई कि वे अपनी बीवियों के साथ अच्छा बर्ताव करें. साथ ही इस मामले में मस्जिदों के इमामों को भी प्रशिक्षित किए जाने पर ज़ोर दिया गया, ताकि लोगों में इस्लाम की तालीम पहुंचे और लोग बुराई से बचें.
इसमें दो राय नहीं है कि बोर्ड का यह क़दम क़ाबिले-तारीफ़ है. लेकिन सिर्फ़ बयानबाज़ी से कुछ होने वाला नहीं है. दहेज और कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कारगर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इस मामले में मस्जिदों के इमाम अहम किरदार अदा कर सकते हैं. जुमे की नमाज़ के बाद इमाम नमाज़ियों से दहेज न लेने की अपील करें और उन्हें बताएं कि ये बुराइयां किस तरह समाज के लिए नासूर बनती जा रही है. इसके अलावा महिलओं को भी जागरूक करने की ज़रूरत है, क्योंकि देखने में आया है कि दहेज का लालच मर्दों से ज़्यादा औरतों को ही होता है.
अफ़सोस की बात तो यह भी है कि मुसलिम समाज अनेक फ़िरक़ों में तक़सीम हो गया है. अमूमन सभी फ़िरक़े ख़ुद को 'सच्चा मुसलमान' साबित करने में ही जुटे रहते हैं और मौजूदा समस्याओं पर उनका ध्यान जाता ही नहीं है. बहरहाल, यही कहा जा सकता है कि अगर मज़हब के अलमबरदार कुछ 'सार्थक' काम भी कर लें, तो मुसलमानों का कुछ तो भला हो जाए. दीन ने आसानियां पैदा की हैं. ये हम ही हैं कि दिखावे के चक्कर में ख़ुद अपने लिए मुश्किलें पैदा करने पर तुले हुए हैं.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक है)
साभार : आवाज़