फ़िरदौस ख़ान
केंद्र की भाजपा सरकार देश में समान नागरिक संहिता लागू करके अपना चिर-परिचित वादा पूरा करना चाहती है. इसलिए उसने सभी पक्षों से राय मांगी है. इस मुद्दे को लेकर बहस जारी है. लेकिन इतना ज़रूर है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होने से मुस्लिम महिलाओं को बहुत राहत मिलेगी. इसकी वजह यह है कि समान नागरिक संहिता एक ऐसा क़ानून है, जो देश के सभी नागरिकों के लिए बराबर है. इसमें लिंग के आधार पर किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता. इसके लागू होने पर देश में विभिन्न मज़हबों और समुदायों के अपने निजी क़ानून ख़ुद ब ख़ुद ख़त्म हो जाएंगे यानी मज़हब के आधार पर किसी को कोई ख़ास फ़ायदा हासिल नहीं हो सकेगा, जो उन्हें अब तक मिलता रहा है.
मौजूदा वक़्त में देश में समान नागरिक संहिता लागू नहीं है. यहां विभिन्न मज़हबों और समुदायों के अपने-अपने निजी क़ानून लागू हैं, जो उनके धार्मिक ग्रंथों पर आधारित हैं. मुसलमानों का क़ानून शरीअत पर आधारित है. ये क़ानून भारतीय संविधान के समानांतर चलते हैं. इसकी वजह से बहुत बार अदालतों के सामने संकट पैदा हो जाता है. ऐसे मामले सामने आते रहते हैं, जब धार्मिक क़ानून और न्यायपालिका में टकराव के हालात बन गए. शाहबानो मामला इसकी मिसाल है.
क़ाबिले ग़ौर है कि शरिया एक ऐसा क़ानून है, जो मुस्लिम पुरुषों को चार निकाह करने की इजाज़त देता है. वे जब चाहें अपनी पत्नी को तलाक़ दे सकते हैं. लेकिन महिलाएं अपने पति को तलाक़ नहीं दे सकतीं, बल्कि उन्हें तलाक़ मांगनी पड़ती है, जिसे खुला कहा जाता है. पुरानी दिल्ली में रहने वाली तक़रीबन 65 साल की बन्नो के तीन बेटे और एक बेटी हैं. उनके बेटों और बेटी के भी बच्चे हैं. कुछ साल पहले उनका बूढ़ा पति अपनी बेटी की उम्र की एक लड़की से निकाह करके उसे घर ले आया. अब वह अपनी पहली पत्नी की तरफ़ देखता भी नहीं. इस घटना के कुछ वक़्त बाद उनके एक बेटे ने भी दूसरा निकाह कर लिया. इन दोनों दूसरी शादियों के बाद घर का माहौल ख़राब हो गया. ये सिर्फ़ एक घर का क़िस्सा नहीं है. मुस्लिम समाज में ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज़्यादा है. नज़र दौड़ाने पर आसपास ऐसे बहुत से घर देखने को मिल जाते हैं, जिनमें एक व्यक्ति की दो-दो पत्नियां हैं. मुस्लिम समाज में तलाक़शुदा महिलाओं की तादाद भी बहुत है. किसी आंकड़े की ज़रूरत नहीं है. मुस्लिम मुहल्लों में ऐसे बहुत से घर मिल जाते हैं, जिनमें तलाक़शुदा महिलाएं हैं. मुस्लिम समाज की महिलाओं की हालत कितनी बदतर है, यह जगज़ाहिर है.
शाह बानो मामला मुस्लिम समाज में महिलाओं की हालत को बयां करने के लिए काफ़ी है. मध्य प्रदेश के इदौर में साल 1978 में तक़रीबन 62 वर्षीय शाह बानो को उनके वकील पति मोहम्मद ख़ान ने तीन तलाक़ देकर घर से निकाल दिया था. उनके पांच बच्चे थे. मज़लूम शाह बानो के पास गुज़र बसर के लिए आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था. उनके पति ने उन्हें ख़र्च देने से साफ़ मना कर दिया. इस पर उन्होंने अदालत का दरवाज़ा खटखटा कर इंसाफ़ की गुहार लगाई. साल 1985 में सर्वोच्च न्यायालय ने उनके पति को निर्देश दिया कि वह अपनी तलाक़शुदा पत्नी को गुज़ारे के लिए मासिक भत्ता दे. अदालत ने अपराध दंड संहिता की धारा-125 के तहत यह फ़ैसला सुनाया था. क़ाबिले ग़ौर है कि अपराध दंड संहिता की यह धारा देश के सभी नागरिकों पर लागू होती है चाहे वे किसी भी मज़हब, जाति या संप्रदाय से संबंध रखते हों. सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले से उम्मीद जगी थी कि देश में मुस्लिम महिलाओं की हालत बेहतर हो सकेगी, लेकिन कट्टरपंथियों ने इस फ़ैसले का सख़्त विरोध किया. उस वक़्त
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड ने देशभर में प्रदर्शन करने की धमकी दी. नतीजतन तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने कट्टरपंथियों के सामने घुटने टेक दिए. प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार ने साल 1986 में संसद में क़ानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले को बदल दिया.
अफ़सोस की बात यह है कि कट्टरपंथियों को एक मज़लूम महिला और उसके बच्चों की बेबसी दिखाई नहीं दी. सरकार ने भी इस मामले में इंसानियत के जज़्बे को ताक़ पर रख दिया था. ख़ुशनुमा बात यह है कि केंद्र की
मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करना चाहती है. भारतीय जनता पार्टी ने साल 2019 के लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में इसे लागू करने का वादा किया था. साल 1998 में भी भारतीय जनता पार्टी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में देश में समान नागरिक संहिता को लागू करने का वादा किया था.
ये अलग बात है कि राजनीतिक दलों और मज़हबी संगठनों ने इसे सियासी रंग दे दिया है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि समान नागरिक संहिता देश और इसकी जनता से वाबस्ता एक ज़रूरी मामला है. इसे जितनी जल्दी हल कर लिया जाए उतना ही सबके हक़ में बेहतर है. क्योंकि देश में इसके अलावा भी बहुत से मुद्दे ऐसे हैं, जिनके हल तलाशे जाने बाक़ी हैं.
(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)
साभार राष्ट्रीय सहारा 10 जुलाई 2023