डाॅ. (सुश्री) शरद सिंह
हमें अपनी भारतीय संस्कृति पर इस लिए गर्व होता है कि हमारी संस्कृति एक विस्तृत दृष्टिकोण रखती है। इसका आधारभूत सूत्र है-‘‘वसुधैव कुटुबंकम’’- अर्थात पूरी पृथ्वी एक कुटुंब है। जिस वैश्विकता की अवधारणा को हम आज डिजिटल क्रांति से जोड़ कर देखते हैं, उस अवधारणा को प्राचीन भारतीय मनीषियों ने पहले ही आत्मसात कर लिया था। सच तो यह है कि हम उस अवधारणा को बोल रहे हैं अपना नहीं रहे हैं। क्योंकि जहां कुटुंब ही छोटे-छोटे परिवारों के रूप में बंटता जा रहा हो वहां वसुधा यानी पृथ्वी को कुटुंब मानने की की बात स्वयं को धोखा देने जैसी बात है।     
       
आज लगभग हर परिवार छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता जा रहा है। पहले पति, पत्नी और बच्चों वाली लघु इकाई और फिर बच्चों के बड़े हो कर अपनी पढ़ाई और कैरियर के लिए चले जाने पर बुजुर्ग प्रौढ़ या पति, पत्नी वाली अत्युत छोटी इकाई। आज आधुनिक परिवार का स्वरूप यही है तो फिर बसुधैव कुटुंबकम कहना क्या थोथापन नहीं है? रिश्तेदार मात्र शादी-विवाह आदि के उत्सवों एकत्र होते हैं जहां धन के दिखावे के सामने संवेदनाएं दम तोड़ती रहती हैं। बड़े-बुजुर्ग वसीयत के कागजों तक उपयोगी रहते हैं अन्यथा प्रेम का प्रवाह वीडियो काॅल तक सीमित हो कर रह जाता है। कम से कम यह तो नही थी हमारी सांस्कृतिक पारिवारिक अवधारणा। आज तो एक पडा़ेसी भी दूसरे पड़ोसी से बिना स्वार्थ के हलो-हाय नहीं करता है। जबकि प्राचीन काल में परिदृश्य इसके एकदम उलट था। प्राचीन भारतीय समाज में परिवार को बहुत अधिक महत्व दिया जाता था। प्राचीन ग्रंथों से तत्कालीन पारिवारिक संरचना एवं उसके संगठन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। मानव जीवन मं दाम्पत्य जीवन का संतति की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व था। परिवार में पुत्र तथा पुत्री की स्थिति निर्धारित रहती थी। वृद्धों के प्रति प्राचीन भारतीय समाज में परम्परागत विचार थे।

परिवार का संगठन - परिवार मानव सभ्यता के विकास का वह रूप है जो मनुष्य को सुव्यवस्थित, सुसंगठित एवं आपसी सहयोग की भावना से रहना सिखाता है। परिवार को समाज का एक ऐसा लघु रूप कहा जा सकता है जिसमें हर आयु वर्ग के, विभिन्न विचारों वाले मनुष्य एक साथ रहते हैं तथा परस्पर सहयोग के द्वारा अपना संगठन बनाए रखते हैं। इस संगठन का आधार प्रायः रक्त संबंध तथा वैवाहिक संबंध होता है। परिवार के संबंध में आधुनिक समाजशास्त्रियों के जो विचार हैं लगभग वही विचार प्राचीन भारतीय समाज में भी पाए जाते थे।

बर्गेस एवं लॅाक के अनुसार-‘ परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जो विवाह, रक्त अथवा गोद लेने के संबंधों द्वारा संगठित है। एक छोटी-सी गृहस्थी का निर्माण करता है और पति-पत्नी, माता-पिता, पुत्र-पुत्री, भाई-बहन के रूप में एक दूसरे से अंतःक्रियाएं करता है तथा एक सामान्य संस्कृति का निर्माण और देख-रेख करता है।’

प्राचीन भारत में परिवार का बहुत अधिक महत्व था। परिवार का मुख्य उद्देश्य संतति होता था। समाज की इकाई के रूप में भी परिवार महत्वपूर्ण होता था। परिवार के कुछ महत्वपूर्ण उद्देश्य थे -
(क) परिवार मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था।
(ख) यह सामाजिक संरचना को बल प्रदान करता था।
(ग) यह चारो पुरुषार्थों का निर्वाह करने में सहायता प्रदान करता था।
(घ) परिवार गृहस्थाश्रम की आवश्यकताओं को पूरा करने का अवसर प्रदान करता था।
(ङ) यह संतति तथा संतान के लालन-पालन के लिए उचित वातावरण प्रदान करता था।
(च) परस्पर सहयोग का वातावरण प्रदान करता था।
          
युवा स्त्री तथा युवा पुरूष विवाह करके परिवार का निर्माण करते थे। वे संतानोत्पत्ति करते थे तथा अपने वंश को आगे बढ़ाते हुए सुखमय जीवन व्यतीत करते थे। आयु बढ़ने के साथ-साथ वे अपनी संतानों पर निर्भर होते जाते थे। वृद्धावस्था में वे अपने घर में अपने परिवार के बीच रह कर जीवन व्यतीत कर सकते थे अथवा वानप्रस्थ में जा सकते थे । वे सन्यास ग्रहण करके देशाटन भी कर सकते थे।

मुखिया -परिवार में एक साथ कई सदस्य रहते थे- माता, पिता, पुत्र, पुत्री, पुत्रवधुएं, पौत्र, पौत्री, बंधु, बंधु-पत्नी आदि। परिवार का स्वरूप संयुक्त कुटुम्ब का होता था। परिवार का सबसे बड़ी आयु का व्यक्ति परिवार का मुखिया होता था। ऋग्वेद में परिवार के मुखिया के लिए ‘कुलपा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।  प्रायः पिता परिवार का मुखिया होता था। पितामह (पिता के पिता) के साथ रहने पर पितामह परिवार का मुखिया माना जाता था। परिवार का मुखिया परिवार के सभी सदस्यों को एकसूत्र में बांधे रखने का कार्य करता था। उसके आदेश का पालन करना सभी सदस्यों के लिए अनिवार्य होता था। सभी सदस्यों द्वारा उसे सम्मान दिया जाता था। वह सभी सदस्यों से प्रेमपूर्ण व्यवहार करता था। परिवार का मुखिया परिवार के किसी भी सदस्य को उसकी उद्दण्डता के लिए दण्डित कर सकता था। यह दण्ड संपत्ति में भागीदारी से अलग कर दिए जाने का भी हो सकता था। परिवार की संपत्ति पर परिवार के मुखिया का अधिकार होता था। प्राचीन विद्वानों ने परिवार के मुखिया की मुत्यु के पूर्व अथवा पिता की मृत्यु के पूर्व संतानों में संपत्ति के विभाजन को अनुचित माना है। गौतम धर्मसूत्र, मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार -‘पिता के जीवित होते हुए पुत्र का संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता है।’

स्मृति ग्रंथों में संपत्ति के अधिकार के संबंध में संतानों के लिए ‘अनीश’ शब्द का प्रयोग किया गया है। जिसका अर्थ होता है जो संपत्ति का स्वामी न हो। कौटिल्य ने भी पिता के जीवनकाल में पुत्रों को संपत्ति का स्वामी नहीं माना है तथा ऐसे पुत्रों के लिए ‘अनीश्वर’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘अनीश्वर’ अर्थात्  संपत्ति पर जिसका अधिकार न हो।

पिता - प्राचीन भारतीय परिवारों में पिता परिवार का मुखिया होता था। वह अपने परिवार के लालन-पालन करता था। परिवार के सभी सदस्य  उसकी आज्ञा का पालन करते थे तथा उसके परामर्श पर ही कोई कार्य करते थे। पिता का यह दायित्व होता था कि वह अपनी पत्नी अर्थात् परिवार की माता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखे। वह अपनी संतानों की शिक्षा, पोषण तथा बहुमुखी विकास के लिए उत्तरदायी होता था। ऐतरेय बाह्मण के अनुसार पिता का पुत्र पर पूरा अधिकार रहता था। वह उसे प्रेम कर सकता था तथा दण्डित कर सकता था। पिता का दायित्व होता था कि वह अपने परिवार के सदस्यों में अनुशासन बनाए रखे। इसके लिए उसे कठोर कदम उठाने के भी अधिकार थे। वह अपने परिवार के सदस्यों को उनकी त्रुटियों, उद्दण्डता अथवा पारिवारिक नियमों की अवहेलना करने के अपराध में दण्डित कर सकता था। पारिवारिक न्याय करते समय वह संबंधों को महत्व नहीं दे सकता था। ऋग्वेद में ऋजाश्व की कथा का उल्लेख मिलता है। ऋजाश्व की लापरवाही के कारण सौ भेड़ों को भेड़िए ने खा लिया। इस घटना से क्रोधित हो कर ऋजाश्व के पिता ने उसे अंधा कर के दण्डित किया।  मनुस्मृति में भी कठोर दण्ड का उल्लेख किया गया है। मनुस्मृति के अनुसार- ‘पत्नी, पुत्र, भाई अथवा दास यदि कोई अपराध करे तो उन्हें रस्सी के कोड़े अथवा बेंत से पीठ पर मार कर दण्डित करना चाहिए।’ यह व्यवस्था दायित्वों के सही निर्वाह को बनाए रखने के लिए थी न कि पिता द्वारा तानाशाही के लिए, जैसा कि प्रायः गलत ढंग से व्याख्यायित कर दिया जाता है।

माता - प्राचीन भारतीय परिवार में पिता के उपरान्त माता को ही सबसे अधिक महत्व दिया जाता था। माता का दायित्व होता था कि वह अपने पति तथा अपनी संतानों की उचित देख-भाल करे। अपनी संतानों को प्रेम करे तथा उनसे आदर प्राप्त करे। ऋग्वेद के अनुसार पुत्रवती माता का परिवार में उच्च स्थान होता था। ऋग्वेद में सती प्रथा का उल्लेख नहीं मिलता है। जिससे पता चलता है कि विधवा होने पर माता का सम्मान कम नहीं होता था।

संतान तथा अन्य संबंधी - संतान तथा अन्य संबंधियों का परिवार के प्रति उत्तरदायित्व होता था। परिवार में संगठन बनाए रखना, एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम तथा आदर की भावना रखना, संकट के समय परस्पर एक-दूसरे की सहायता करना तथा मिलजुल कर अन्न उगाना अथ्वा शिकार करना आदि संतानों तथा अन्य निकट संबंधियों के लिए अनिवार्य था। संतानों से अपेक्षा की जाती थी कि वे परिवार के मुखिया, माता, अपने बड़े भाई-बहन का आदर करें। परिवार के मुखिया तथा माता का कहना मानें। परिवार के मुखिया के घर पर न होने पर घर के बड़े पुत्र का कहना मानें।

इस प्रकार प्राचीन भारत में पारिवारिक संगठन को बनाए रखने के प्रति विशेष ध्यान दिया जाता था। तत्कालीन परिवर का स्वरूप मुख्य रूप से केन्द्रीकृत था। संयुक्त अर्थात् अधिक सदस्यों वाले परिवार अच्छे माने जाते थे। इसीलिए प्राचीन ग्रंथों में परिवार को ‘कुल’ अथवा ‘कुटुंब’ कहा गया है। आज कुटुंब की अवधारणा को फिर ये समझने और उसे अपनाने की आवश्यकता है क्योंकि परिवार के बड़े-बुजुर्गों की छत्र-छाया के बिना पलने, बढ़ने वाले बच्चे स्वच्छंदता का पाठ पढ़ते जा रहे हैं और इससे समाज में उद्दण्डता बढ़ रही है।


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ
I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

फ़िरदौस ख़ान का फ़हम अल क़ुरआन पढ़ने के लिए तस्वीर पर क्लिक करें

या हुसैन

या हुसैन

फ़िरदौस ख़ान की क़लम से

Star Web Media

सत्तार अहमद ख़ान

सत्तार अहमद ख़ान
संस्थापक- स्टार न्यूज़ एजेंसी

ई-अख़बार पढ़ें

ब्लॉग

एक झलक

Followers

Search

Subscribe via email

Enter your email address:

Delivered by FeedBurner

साभार

इसमें शामिल ज़्यादातर तस्वीरें गूगल से साभार ली गई हैं