फ़िरदौस ख़ान
देश में किसानों का रुझान खेती की उन्नत पद्धतियों की तरफ़ बढ़ा है, जिससे उन्हें ख़ासा फ़ायदा हुआ है. इज़राइल की तर्ज़ पर जल संकट से जूझते किसानों ने खेती में ड्रिप प्लॉस्टिक मल्चिंग पद्धति अपनानी शुरू कर दी है. दरअसल, मल्च प्लास्टिक की शीट है. इसे फ़सल बुआई से पहले खेत में ड्रिप सिंचाई के लिए बनाए मिट्टी के बैड या क्यारियों में बिछाया जाता है. इसके कई फ़ायदे हैं. इससे उत्पादन में 30 फ़ीसद तक बढ़ोतरी देखी गई है. पहली बार मेहनत तो लगती है, लेकिन उसके बाद किसानों को बहुत से फ़ायदे मिलते हैं. प्लास्टिक के ऊपर से सफ़ेद, सिल्वर या गोल्डन कलर का होने की वजह से वाष्पीकरण कम होता है और मिट्टी में ज़्यादा समय तक नमी बनी रहती है. ड्रिप सिंचाई से मिट्टी पर परत नहीं जमती. मिट्टी भुरभूरी होने से पौधा अच्छी तरह पनपता है. किसानों को निंदाई-गुड़ाई और कीटनाशक छिड़काव से भी निजात मिल जाती है. खाद और रसायनों का कम इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे लागत में कमी आती है. प्लास्टिक कवर की वजह से खरपतवार नहीं उगता, जिससे मेहनत बचती है. कीटनाशक भी एक ही जगह से ड्रिप के ज़रिये सीधे पौधों तक पहुंच जाता है. मिट्टी में उर्वरक लंबे अरसे तक सुरक्षित रहते हैं. इतना ही नहीं हानिकारक कीटों की आशंका भी कम होती है. सबसे ख़ास बात इससे पानी की बचत होती है. देश में 60 फ़ीसद कृषि भूमि सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है. ऐसे में भारत के लिए यह पद्धति किसी वरदान से कम नहीं है.
मल्चिंग पद्धति से खेती के लिए सबसे पहले खेत को बखरनी कर तैयार किया जाता है. फिर एक-एक फ़ीट दूर ज़मीन से 6 इंच ऊंचे मिट्टी के पौने तीन-तीन फ़ीट चौड़े बेड बनाए जाते हैं. एक बेड पर ड्रिप की दो नलियां लगाई जाती हैं. ऊपर चार फ़ीट चौड़ी प्लास्टिक शीट बिछा दी जाती है. इसके दोनों छोर मिट्टी से दबा दिए जाते हैं. फिर प्लास्टिक पर 8 इंच दूर छोटे-छोटे छेद कर दिए जाते हैं. इन छेदों में बीज बोये जाते हैं. यह पद्धति टमाटर, खीरा, मिर्च, तरबूज़, बैंगन सहित अन्य हाइब्रिड फ़सलों में अपनाई जाती है. इससे फल अच्छे मिलते हैं, जिससे मंडी में उनकी सही क़ीमत मिल जाती है.
मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले के गांव कुशलगढ़ के खुशालचंद पाटीदार ने 1 नवंबर 2012 को एक एकड़ ज़मीन में मल्चिंग पद्धति से लहसुन की खेती शुरू की. इससे उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ. लहसुन में मल्चिंग का इस्तेमाल करने पर उन्हें नवंबर 2013 में कृषि विज्ञान केंद्र बेंगलुरू में सर्वश्रेष्ठ किसान के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अब वह 24 एकड़ में मल्चिंग पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनकी देखादेखी आसपास के गांवों के किसान भी इस पद्धति से खेती करने लगे. किसानों का कहना है कि पहले एक एकड़ में 30 से 35 क्विंटल लहसुन ही पैदा होता था, अब बढ़कर 50 क्विंटल हो गया है. लहसुन की गांठ भी वज़नी और बड़े आकार की है. लहसुन की गुणवत्ता भी बेहतर है, जिससे उन्हें डेढ़ लाख रुपये प्रति एकड़ का मुनाफ़ा हो रहा है. मल्चिंग पद्धति के प्रति किसानों के रुझान का इसी बात से अंदाज़ा लगाया का सकता है, जहां दो साल पहले इस क्षेत्र में एक एकड़ में इस पद्धति से खेती होती थी, वहीं अब इसका रक़बा बढ़कर 180 एकड़ तक पहुंच गया है.
ग़ौरतलब है कि ड्रिप प्लॉस्टिक मल्चिंग पद्धति की शुरुआत सबसे पहले इज़राइल में हुई. इज़राइल में पानी की कमी है. वहां के किसान मल्चिंग पद्धति से खेती करके पानी का सदुपयोग करते हैं. भारत के किसान इज़राइल जाकर उन्नत खेती का प्रशिक्षण लेते हैं और फिर यहां आकर ख़ुद तो इस पद्धति से खेती करते हैं, साथ ही अन्य किसानों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं. बड़वानी ज़िले के किसान तुलसीराम यादव ने भी इज़राइल जाकर इस पद्धति का प्रशिक्षण लिया था. अब वह इसी पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनका कहना है कि केले-टमाटर में प्रति पौधा पांच लीटर पानी की बचत हो जाती है. सागर ज़िले के गांव कंजेरा के खेतों में मल्चिंग पद्धति से डीपीआईपी परियोजना के ज़रिये गठित समूहों की महिलाएं और किसान इस नई पद्धति से मिर्च की खेती करके अच्छी पैदावार ले रहे हैं. इसके अलावा टमाटर, करेला, लौकी, प्याज़ आदि की खेती भी की जा रही है.
राजस्थान के सीकर ज़िले में तक़रीबन एक हज़ार किसान मल्चिंग पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस पद्धति से खेती करने पर 75 फ़ीसद तक पानी की बचत की जा सकती है. गुजरात और महाराष्ट्र सहित कई अन्य राज्यों के किसान भी इस पद्धति से खेती करके अच्छी फ़सल हासिल कर रहे हैं.
एक एकड़ कृषि भूमि में मल्चिंग करने पर 20 हज़ार रुपये तक की लागत आती है. मल्चिंग पद्धति से खेती करने पर उद्यान विभाग द्वारा 50 फ़ीसद अनुदान दिया जाता है. जिन किसानों के पास मशीन नहीं हैं, उन्हें चार हज़ार रुपये अतिरिक्त किराये के रूप में देने होते हैं.
बहरहाल, भारत जैसे देश में मल्चिंग पद्धति के प्रचार-प्रसार की बेहद ज़रूरत है, ताकि कम पानी वाले इलाक़ों के किसान खेती से भरपूर आमदनी हासिल कर सकें.
देश में किसानों का रुझान खेती की उन्नत पद्धतियों की तरफ़ बढ़ा है, जिससे उन्हें ख़ासा फ़ायदा हुआ है. इज़राइल की तर्ज़ पर जल संकट से जूझते किसानों ने खेती में ड्रिप प्लॉस्टिक मल्चिंग पद्धति अपनानी शुरू कर दी है. दरअसल, मल्च प्लास्टिक की शीट है. इसे फ़सल बुआई से पहले खेत में ड्रिप सिंचाई के लिए बनाए मिट्टी के बैड या क्यारियों में बिछाया जाता है. इसके कई फ़ायदे हैं. इससे उत्पादन में 30 फ़ीसद तक बढ़ोतरी देखी गई है. पहली बार मेहनत तो लगती है, लेकिन उसके बाद किसानों को बहुत से फ़ायदे मिलते हैं. प्लास्टिक के ऊपर से सफ़ेद, सिल्वर या गोल्डन कलर का होने की वजह से वाष्पीकरण कम होता है और मिट्टी में ज़्यादा समय तक नमी बनी रहती है. ड्रिप सिंचाई से मिट्टी पर परत नहीं जमती. मिट्टी भुरभूरी होने से पौधा अच्छी तरह पनपता है. किसानों को निंदाई-गुड़ाई और कीटनाशक छिड़काव से भी निजात मिल जाती है. खाद और रसायनों का कम इस्तेमाल करना पड़ता है, जिससे लागत में कमी आती है. प्लास्टिक कवर की वजह से खरपतवार नहीं उगता, जिससे मेहनत बचती है. कीटनाशक भी एक ही जगह से ड्रिप के ज़रिये सीधे पौधों तक पहुंच जाता है. मिट्टी में उर्वरक लंबे अरसे तक सुरक्षित रहते हैं. इतना ही नहीं हानिकारक कीटों की आशंका भी कम होती है. सबसे ख़ास बात इससे पानी की बचत होती है. देश में 60 फ़ीसद कृषि भूमि सिंचाई के लिए बारिश पर निर्भर है. ऐसे में भारत के लिए यह पद्धति किसी वरदान से कम नहीं है.
मल्चिंग पद्धति से खेती के लिए सबसे पहले खेत को बखरनी कर तैयार किया जाता है. फिर एक-एक फ़ीट दूर ज़मीन से 6 इंच ऊंचे मिट्टी के पौने तीन-तीन फ़ीट चौड़े बेड बनाए जाते हैं. एक बेड पर ड्रिप की दो नलियां लगाई जाती हैं. ऊपर चार फ़ीट चौड़ी प्लास्टिक शीट बिछा दी जाती है. इसके दोनों छोर मिट्टी से दबा दिए जाते हैं. फिर प्लास्टिक पर 8 इंच दूर छोटे-छोटे छेद कर दिए जाते हैं. इन छेदों में बीज बोये जाते हैं. यह पद्धति टमाटर, खीरा, मिर्च, तरबूज़, बैंगन सहित अन्य हाइब्रिड फ़सलों में अपनाई जाती है. इससे फल अच्छे मिलते हैं, जिससे मंडी में उनकी सही क़ीमत मिल जाती है.
मध्य प्रदेश के रतलाम ज़िले के गांव कुशलगढ़ के खुशालचंद पाटीदार ने 1 नवंबर 2012 को एक एकड़ ज़मीन में मल्चिंग पद्धति से लहसुन की खेती शुरू की. इससे उन्हें बहुत फ़ायदा हुआ. लहसुन में मल्चिंग का इस्तेमाल करने पर उन्हें नवंबर 2013 में कृषि विज्ञान केंद्र बेंगलुरू में सर्वश्रेष्ठ किसान के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अब वह 24 एकड़ में मल्चिंग पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनकी देखादेखी आसपास के गांवों के किसान भी इस पद्धति से खेती करने लगे. किसानों का कहना है कि पहले एक एकड़ में 30 से 35 क्विंटल लहसुन ही पैदा होता था, अब बढ़कर 50 क्विंटल हो गया है. लहसुन की गांठ भी वज़नी और बड़े आकार की है. लहसुन की गुणवत्ता भी बेहतर है, जिससे उन्हें डेढ़ लाख रुपये प्रति एकड़ का मुनाफ़ा हो रहा है. मल्चिंग पद्धति के प्रति किसानों के रुझान का इसी बात से अंदाज़ा लगाया का सकता है, जहां दो साल पहले इस क्षेत्र में एक एकड़ में इस पद्धति से खेती होती थी, वहीं अब इसका रक़बा बढ़कर 180 एकड़ तक पहुंच गया है.
ग़ौरतलब है कि ड्रिप प्लॉस्टिक मल्चिंग पद्धति की शुरुआत सबसे पहले इज़राइल में हुई. इज़राइल में पानी की कमी है. वहां के किसान मल्चिंग पद्धति से खेती करके पानी का सदुपयोग करते हैं. भारत के किसान इज़राइल जाकर उन्नत खेती का प्रशिक्षण लेते हैं और फिर यहां आकर ख़ुद तो इस पद्धति से खेती करते हैं, साथ ही अन्य किसानों को भी इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं. बड़वानी ज़िले के किसान तुलसीराम यादव ने भी इज़राइल जाकर इस पद्धति का प्रशिक्षण लिया था. अब वह इसी पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनका कहना है कि केले-टमाटर में प्रति पौधा पांच लीटर पानी की बचत हो जाती है. सागर ज़िले के गांव कंजेरा के खेतों में मल्चिंग पद्धति से डीपीआईपी परियोजना के ज़रिये गठित समूहों की महिलाएं और किसान इस नई पद्धति से मिर्च की खेती करके अच्छी पैदावार ले रहे हैं. इसके अलावा टमाटर, करेला, लौकी, प्याज़ आदि की खेती भी की जा रही है.
राजस्थान के सीकर ज़िले में तक़रीबन एक हज़ार किसान मल्चिंग पद्धति से खेती कर रहे हैं. उनका कहना है कि इस पद्धति से खेती करने पर 75 फ़ीसद तक पानी की बचत की जा सकती है. गुजरात और महाराष्ट्र सहित कई अन्य राज्यों के किसान भी इस पद्धति से खेती करके अच्छी फ़सल हासिल कर रहे हैं.
एक एकड़ कृषि भूमि में मल्चिंग करने पर 20 हज़ार रुपये तक की लागत आती है. मल्चिंग पद्धति से खेती करने पर उद्यान विभाग द्वारा 50 फ़ीसद अनुदान दिया जाता है. जिन किसानों के पास मशीन नहीं हैं, उन्हें चार हज़ार रुपये अतिरिक्त किराये के रूप में देने होते हैं.
बहरहाल, भारत जैसे देश में मल्चिंग पद्धति के प्रचार-प्रसार की बेहद ज़रूरत है, ताकि कम पानी वाले इलाक़ों के किसान खेती से भरपूर आमदनी हासिल कर सकें.