कल्पना
पालखीवाला
देखने
में सर्वत्र परिचित, सर्वव्यापी एवं कभी ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ने वाली घरेलू गौरैया,
अब एक रहस्यमय पक्षी बन गई है और पूरे विश्व में तेजी से दुर्लभ होती जा रही है. फुर्तीली
और चहलकदमी करने वाली घरेलू गौरैया को हमेशा शरदकालीन एवं शीतकालीन फसलों के दौरान,
खेत-खलिहानों में अनेक छोटे-छोटे पक्षियों के साथ फुदकते देखा गया है, लेकिन अब तो
कई सप्ताह इन्हें बिना देखे ही निकल जाते हैं. कई बड़े शहरों से तो ये गायब ही हो गई
हैं, लेकिन छोटे शहरों और गांवों में अभी भी इन्हें देखा जा सकता है.
पिछले
कुछ वर्षों में, भारत के साथ-साथ विश्व के मानचित्र पर भी गौरैया की संख्या में भारी
कमी देखी गई है. यूरोप के बड़े हिस्से में कभी सामान्य रूप से दिखाई पड़ने वाली इन चिड़ियों
की संख्या अब घट रही है. नीदरलैंड में तो घरेलू गौरैया को अब दुलर्भ प्रजाति के वर्ग
में रखा जाता है. नीदरलैंड में इनकी घटती संख्या के कारण इन्हें रेड लिस्ट में रखा
गया है. इसकी आबादी में ऐसी ही कमी ब्रिटेन में भी दर्ज की गई है. फ्रांसीसी पक्षीविज्ञानी
ने पेरिस एवं अन्य शहरों में गौरैया की संख्या में तेजी से गिरावट की रूप रेखा तैयार
की है. इससे ज्यादा गिरावट जर्मनी, चेक गणराज्य, बैल्जियम, इटली तथा फिनलैंड के शहरी
इलाकों में देखी गई.
इतिहास
ऐसा
समझा जाता है कि भूमध्य क्षेत्र घरेलू गौरैया का उद्गम स्थल है और सभ्यता के विकास
के साथ-साथ यह यूरोप भर में पहुंच गई. मानव संपर्क में रहने की अपनी विशेषता के कारण
गौरैया ने अटलांटिक से लेकर अमेरिका तक का सफर कर डाला. 1850 में, ग्रीन ईंच वर्म नामक
कीट न्यूयार्क के सेंट्रल पार्क में पौधों को नुकसान पहुंचा रहे थे. चूंकि ब्रिटेन
में घरेलू गौरैया का प्रमुख भोजन ग्रीन वर्म ही हैं, ऐसा विचार किया गया कि अगर गौरैया
को न्यूयार्क सिटी लाया गया तो सैंट्रल पार्क की कीट समस्या हल हो जाएगी. कुछ लोगों
ने यह भी सोचा कि गौरैया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को भी समाप्त करने में
सहायक होगी.
गौरैया
से प्रथम परिचय 1851 में अमेरिका के ब्रुकलिन इंस्टीटयूट ने कराया था. गौरैया की आठ
जोड़ियों को आरंभ में यहां से छोड़ा गया, लेकिन इनमें से कोई भी जलवायु परिवर्तन के कारण
बच नहीं पाई, लेकिन बार-बार के प्रयासों से अंतत: चिड़िया ने अपने को ठंडे मौसम के अनुकूल
बना लिया और इनकी संख्या बढ़ने लगी. घोड़ों को खिलाने के लिए बिखेरे गए दाने तथा लोगों
द्वारा तैयार किए गए कृत्रिम घोंसले गौरैया के लिए काफी समय तक मददगार साबित हुए. गौरेयों
ने लोगों का विश्व के कई हिस्सों में जैसे - उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका, दक्षिणी अफ्रीका,
आस्ट्रेलिया एवं न्यूजीलैंड तक सफलतापूर्वक पीछा किया.
भोजन
घरेलू
गौरैया एक बुध्दिमान चिड़िया है, जिसने घोंसला स्थल, भोजन तथा आश्रय परिस्थितियों में
अपने को उनके अनुकूल बनाया है जैसे. अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह विश्व में सबसे
ज्यादा पाई जाने वाली चहचहाती चिड़िया बन गई.
गौरैया
बहुत ही सामाजिक पक्षी है और ज्यादातर पूरे वर्ष झुंड में उड़ती है. एक झुंड 1.5-2 मील
की दूरी तय करता है, लेकिन अगर भोजन तलाश करने की बात हो, तो यह ज्यादा दूरी भी तय
कर सकती है. गौरैया का प्रमुख आहार अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने तथा पशु आहार
है. अगर अनाज उपलब्ध न हो तो यह अन्य आहार से भी अपना पेट भर लेती है. ऐसे में ये खर-पतवार
तथा खासकर प्रजनन मौसम के दौरान कीटों को भी खा लेती है. घरेलू गौरैया की परजीवी प्रकृति
साफ देखी जा सकती है, क्योंकि ये घरों से बाहर फेंके गए कूड़े करकट में भी अपना आहार
ढूंढ लेती है. बसंत के मौसम में, फूलों की (खासकर पीले रंग के) क्रोकूसेस, प्राइमरोजेस
तथा एकोनाइट्ज फूलों की प्रजातियां घरेलू गौरैया को ज्यादा आकर्षित करती हैं. ये तितलियों
का भी शिकार करती हैं.
आवास
घरेलू
गौरैया साधारणत: भवनों की ओर आराम करने, घोंसला बनाने तथा आश्रय खोजने के लिए आकर्षित
होती है. ये अपना घोंसला बनाने के लिए मानव-निर्मित एकांत स्थानों या दरारों को तलाश
करती हैं. घोंसला बनाने के लिए इनके अन्य स्थल हैं अलगनी का खुला हुआ किनारा, बरामदा,
बगीचा इत्यादि. गौरैया अपना घर मानव आवास के निकट ही बनाती हैं.
वर्गीकरण
घरेलू
गौरैया विश्व के पुराने गौरैया परिवार पासेराडेई की सदस्य है. कुछ लोग इसे वीवर फिंच
परिवार से संबंधित मानते हैं. इनकी कई भौगोलिक प्रजातियों का नामकरण हुआ है और उन्हें
आकार एवं रंग के आधार पर अलग किया गया है. पश्चिमी प्रदेशों में इनका रंग धूसर एवं
पूर्वी इलाकों में ये सफेद रंगों में मिलती हैं. नर गौरैया को उसके सीने के रंग से
पहचाना जा सकता है. पश्चिमी गोलार्ध की चिड़िया उष्णकटिबंधी दक्षिण एशियाई चिड़िया की
तुलना में बड़ी होती है.
भारत
के, हिन्दी भाषी क्षेत्रों में यह गौरैया के नाम से लोकप्रिय है. तमिलनाडु तथा केरल
में यह कूरूवी के नाम से जानी जाती है. तेलगू भाषा में इसे पिच्चूका कहते हैं. कन्नड़
भाषा में गुब्बाच्ची तथा गुजरात के लोग इसे चकली कहते हैं. मराठी इसे चिमानी बुलाते
हैं. पंजाब में इसे चिड़ी के नाम से जाना जाता है, जम्मू तथा कश्मीर में चेर, पश्चिम
बंगाल में चराई पाखी तथा ओड़िशा में घरचटिया कहते हैं. उर्दू भाषा में इसे चिड़िया तथा
सिंधी भाषा में इसे झिरकी कहा जाता है.
रूप-रेखा
यह
14 से 16 से.मी. लम्बी चिड़िया है जिसके पंख का फैलाव 19-25 से.मी. होता है. यह एक छोटी,
चहचहाने वाली चिड़िया है जिसका वजन 26 से 32 ग्राम होता है. नर गौरैया का सिर, गाल तथा
अंदर का भाग धूसर होता है तथा गला, सीने के ऊपर, चोंच एवं आंखों के बीच का भाग काला
होता है. गर्मी में इनकी चोंच का रंग नीला-काला तथा पैर भूरे रंग का हो जाता है. सर्दी
में पक्षति का रंग मंदा होकर फीका पीला हो जाता है तथा चोंच पीले भूरे रंग की. मादा
के सिर या गले पर काला रंग नहीं होता और सिर के ऊपर भूरे रंग की धारी होती है. गौरैया
की सामान्य पहचान उस छोटी सी चंचल प्रकृति की चिड़िया से है जो हल्के धातु रंग की होती
है तथा चीं चीं करती हुई यहां से वहां फुदकती रहती है. छोटी होते हुए भी यह चिड़िया
लम्बी उड़ान भरती है . इसके एक त्रऽतु में कम से कम तीन बच्चे होते हैं.
प्रजनन
इनके
घोंसले भवनों की सूराखों या चट्टानों में, घर या नदी के किनारे, समुद्र तट या झाड़ियों
में, आलों या प्रवेश द्वारों जैसे विभिन्न स्थानों पर होते हैं. इनके घोंसले घास के
तिनकों से बने होते हैं और इनमें पंख भरे होते हैं.
घरेलू
गौरैया अन्य चिड़ियों के घोंसले हड़पने में भी बहुत आक्रामक होती है. गौरैया ज्यादातर
किसी दूसरी चिड़िया द्वारा तैयार किए गए घोंसले को जबरदस्ती हड़प जाती हैं या कभी-कभी
इस्तेमाल हो रहे घोंसले के ऊपर ही अपना घोंसला बना लेती हैं. इनके अंडे अलग-अलग आकार
और पहचान के होते हैं. अंडे को मादा गौरैया सेती है. गौरैया की अंडा सेने की अवधि
10-12 दिनों की होती है जो सभी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे छोटी है. इसकी
प्रजनन सफलता उम्र के साथ बढ़ती है और यह प्रजनन समय में परिवर्तन लाती है, बड़ी चिड़िया
ऋतु से पहले अंडा देती है.
कमी
का कारण
गौरैया
की संख्या में आकस्मिक कमी के विभिन्न कारण हैं, जिनमें से सबसे चौकाने वाला कारण है
सीसा रहित पेट्रोल का उपयोग, जिसके जलने पर मिथाइल नाइट्रेट नामक यौगिक तैयार होता
है. यह यौगिक छोटे जन्तुओं के लिए काफी जहरीला है. अन्य कारण हैं पनपते खर-पतवार की
कमी या गौरैया को खुला आमंत्रण देने वाले ऐसे खुले भवनों की कमी जहां वह अपने घोंसले
बनाया करती थी. पक्षीविज्ञानी एवं वन्यप्राणी विशेषज्ञों का यह मानना है कि आधुनिक
युग में पक्के मकान, लुप्त होते बाग-बगीचे, खेतों में कीटनाशकों का अत्यधिक उपयोग तथा
भोज्य-पदार्थ स्त्रोतों की उपलब्धता में कमी इत्यादि प्रमुख विभिन्न कारक हैं जो इनकी
घटती आबादी के लिए जिम्मेवार हैं.
भारतीय
कुलंग एवं आर्दभूमि कार्यसमूह के केएस गोपी सुन्दर ने कहा कि यह सच है कि पिछले कुछ
सालों से घरेलू चिड़िया की संख्या में कमी जरूर आ रही है. इसके लिए उन्होंने अनेक कारण
बताये हैं. किसानों द्वारा फसलों पर कीटनाशकों के छिड़काव के कारण कीट मर जाते हैं जिनके
ऊपर ये निर्भर हैं. कोयंबटूर स्थित सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान केन्द्र
के डा. वीएस विजयन के अनुसार यद्यपि अभी पृथ्वी के दो-तिहाई हिस्से की उड़ने वाली प्राजतियों
का पता लगाया जाना बाकी है, फिर भी ये बड़ी ही विडंबना है की बात है कि जो प्रजाति कभी
बहुलता में यहां थी, कम हो रही है. जीवनशैली तथा इमारतों के आधुनिक रूप से आये परिवर्तन
ने पक्षियों के आवासों तथा खाद्य स्रोतों को बर्बाद कर दिया है . खत्म होते बगीचे भी
इसके लिए जिम्मेदार हैं.
आज
के घर के बाहर चिड़ियों का झाडियों की डाली पर उछलना और उनका चहचहाना किसी को शायद ही
दिखाई पड़ता है. हम महादेवी वर्मा की कहानी गौरेया को याद कर सकते हैं जिसमें गौरया
उनके हाथ से दाना खाती है, उनके कंधों पर उछलती फिरती है और उनके साथ लुक्का-छिप्पी
खेलती है. आज हर कोई चाहता है कि गौरेया महादेवी वर्मा की कहानी में सिमटकर न रह जाए
बल्कि वह एक बार फिर हमारे शहरों में पहले की तरह वापस आ जाए.