डॉ. वेदप्रताप
वैदिक
शशि थरूर और ललित मोदी तो बीमारी के ऊपरी लक्षण हैं। असली बीमारी तो खुद क्रिकेट
ही है। क्रिकेट खेल नहीं है, एक बीमारी है। यह कैसा खेल है,
जिसमें 11 खिलाडियों की टीम में से सिर्फ एक खेलता है और शेष 10 बैठे रहते हैं? विरोधी टीम के बाकी 11 खिलाडी खडे रहते हैं। उनमें से भी एक
रह-रहकर गेंद फेंकता है। कुल
22 खिलाडियों में
20 तो ज्यादातर वक्त निठल्ले
ही बने रहते हैं। ऐसे खेल से कौन-सा स्वास्थ्य लाभ होता है? पांच-पांच दिन तक
दिनभर चलने वाला यह खेल क्या खेल कहलाने के लायक है? खेल का मूल उद्देश्य हमें स्वस्थ रखना है। मान
ही लो कि जो खिलाडी खेलते हैं, वे स्वस्थ रहते होंगे, पर इस खेल को जो देखते हैं, वे तो बीमार ही हो जाते हैं। जब स्टेडियमों में या टीवी के सामने घंटों बैठे
रहोगे, तो बीमार ही
होओगे।
जिंदगी में खेल की भूमिका क्या है?
काम और खेल के बीच कोई अनुपात होना चाहिए या नहीं? सारे काम-धाम छोडकर अगर आप केवल खेल ही देखते
रहेंगे, तो खाएंगे
क्या? जिंदा कैसे
रहेंगे? क्रिकेट का खेल
ब्रिटेन में चलाया ही उन लोगों ने था,
जिन्हें कमाने-धमाने की कोई चिंता ही नहीं थी। दो सामंत खेलते थे। एक ‘बेटिंग’
करता था और दूसरा ‘बॉलिंग।’
शेष नौकर-चाकर ‘पदते’ थे। दौडकर गेंद
पकडते थे और उसे लाकर ‘बॉलर’ को देते थे। यह
सामंती खेल है। अय्याशों और आरामखोरों का खेल!
इसीलिए इस खेल के खिलौने भी खर्चीले होते हैं। जैसे रात को
शराबखोरी मनोरंजन का साधन होती है, वैसे ही दिन में क्रिकेट फालतू वक्त काटने का साधन होता है। दो आदमी खेलें
और 20 आदमी पदें, इससे बढकर अहम की तुष्टि और क्या हो सकती
है? यह मनोरंजनों का मनोरंजन
है। नशों का नशा है। असाध्य रोग है।
अंग्रेजों का यह सामंती रोग उनके गुलामों की रग-रग में फैल गया है। यदि अंग्रेजों के
पूर्व-गुलाम राष्ट्रों को छोड
दें, तो दुनिया का ऐसा
कौन-सा स्वतंत्र राष्ट्र
है, जहां क्रिकेट का बोलबाला
है? ‘इंटरनेशनल क्रिकेट
काउंसिल’ के जिन दस राष्ट्रों
को अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट खेलने का अधिकार है,
वे सब के सब अंग्रेजों के भूतपूर्व गुलाम-राष्ट्र हैं। चार तो अकेले दक्षिण एशिया में
हैं-भारत, पाकिस्तान,
बांग्लादेश और श्रीलंका। कोई यह क्यों नहीं पूछता कि इन दस
देशों में अमेरिका, चीन, रूस, जर्मनी,
फ्रांस और जापान जैसे देशों के नाम क्यों नहीं हैं? क्या ये वे राष्ट्र नहीं हैं, जो ओलिंपिक खेलों में सबसे ज्यादा मेडल
जीतते हैं? यदि क्रिकेट
दुनिया का सबसे अच्छा खेल होता, तो यह समर्थ और शक्तिशाली राष्ट्र इसकी उपेक्षा क्यों करते? क्रिकेट का सौभाग्य तो यह है कि इस खेल
में गुलाम अपने मालिकों से भी आगे निकल गए हैं। क्रिकेट के प्रति भूतपूर्व गुलाम
राष्ट्रों में वही अंधभक्ति है, जो अंग्रेजी भाषा के प्रति है। अंग्रेजों के लिए अंग्रेजी उनकी केवल
मातृभाषा और राष्ट्रभाषा है, लेकिन ‘भद्र
भारतीयों’ के लिए यह उनकी
पितृभाषा, राष्ट्रभाषा, प्रतिष्ठा-भाषा, वर्चस्व-भाषा और
वर्ग-भाषा बन गई है।
अंग्रेजी और क्रिकेट हमारी गुलामी की निरंतरता के प्रतीक हैं। जैसे अंग्रेजी
भारत की आम जनता को ठगने का सबसे बडा माध्यम है,
वैसे ही क्रिकेट खेलों में ठगी का बादशाह बन गया है। दर्शकों
को जितना यह खेल ठगता है, उतना दूसरा नहीं। पैसे खर्च करो,
समय बर्बाद करो, पर जेबें दूसरों की भरती हैं। क्रिकेट के चस्के ने भारत के पारंपरिक
खेलों, अखाडों और कसरतों को
हाशिए पर सरका दिया है। क्रिकेट पैसा,
प्रतिष्ठा और प्रचार का पर्याय बन गया है। देश के करोडों
ग्रामीण, गरीब, पिछडे और अल्पसंख्यक लोग यह महंगा खेल
स्वयं नहीं खेल सकते, लेकिन
देश के उदीयमान मध्यमवर्ग ने इन लोगों को भी क्रिकेट के मोह-जाल में फंसा लिया है। इस खेल का इतना
प्रचार-प्रसार हुआ कि अब देश
के पिछडे से पिछडे गांवों में भी गरीब से गरीब बच्चे लकडी की मोगरी का बेट और कपडों
के चिथडों की गेंद से क्रिकेट खेलते मिल जाएंगे। बताओ, उन्हें इस जाल में किसने फंसाया?
बताओ, आईपीएल के पास केवल
तीन साल में अरबों रुपए कहां से इकट्ठे हो गए?
उसने टीवी चैनलों,
रेडियो और अखबारों का इस्तेमाल बडी चतुराई से किया। भारतीयों
के दिलो-दिमाग में छिपी
गुलामी की बीमारी को थपकियां दीं। जैसे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में
भोले-भाले लोग अपने बच्चों को
अपना पेट काटकर पढाते हैं, वैसे ही लोग क्रिकेट-मैचों के टिकट खरीदते हैं, टीवी से चिफ बैठे रहते हैं और खिलाडियों को देवताओं का दर्जा दे देते हैं।
क्रिकेट-मैच के दिनों में
करोडों लोग जिस तरह निठल्ले हो जाते हैं,
उससे देश का कितना नुकसान होता है, इसका हिसाब किसी ने तैयार किया है, क्या?
क्रिकेट-मैच आखिरकर एक खेल ही तो है, जो घोंघा-गति से चलता
रहता है। यह कोई रामायण या महाभारत का सीरियल तो नहीं है। ये सीरियल भी दिनभर नहीं
चलते थे। वे कभी घंटे-आधे-घंटे से ज्यादा
नहीं चले।
कोई लोकतांत्रिक सरकार अपने देश में धन और समय की इस सार्वजनिक बर्बादी को कैसे
बर्दाश्त करती है, समझ में
नहीं आता? समझ में आएगा भी
कैसे? हमारे नेता जैसे
अंग्रेजी की गुलामी करते हैं, वैसे ही वे क्रिकेट के पीछे भी पगलाए रहते हैं। अब देश में कोई राममनोहर
लोहिया तो है नहीं, जो गुलामी
के इन दोनों प्रतीकों को खुली चुनौती दे। अब नेताओं में होड यह लगी हुई है कि
क्रिकेट के दूध पर जम रही मोटी मलाई पर कौन-कितना हाथ साफ करता है। बडे-बडे दलों के बडे-बडे नेता क्रिकेट के इस दलदल में बुरी तरह से
फंसे हुए हैं।
क्रिकेट और राजनीति के बीच जबर्दस्त जुगलबंदी चल रही है। दोनों ही खेल हैं।
दोनों के लक्ष्य भी एक-जैसे
ही हैं। सत्ता और पत्ता! सेवा
और मनोरंजन तो बस बहाने हैं। क्रिकेट ने राजनीति को पीछे छोड दिया है। पैसा कमाने
में क्रिकेट निरंतर चौके और छक्के लगा रहा है। उसकी गेंद कानून के सिर के ऊपर से
निकल जाती है। खेल और रिश्वत, खेल और अपराध, खेल और
नशा, खेल और दुराचार तथा खेल
और तस्करी एक-दूसरे में
गड्डमड्ड हो गए हैं। ये सब क्रिकेट की रखैलें हैं। इन रखैलों से क्रिकेट को कौन
मुक्त करेगा? अनेक रखैलों के
इस प्रचंड प्रवाह की विपरीत दिशा में कौन तैर सकता है?
जाहिर है कि यह काम हमारे नेताओं के बस का नहीं है। वे नेता नहीं
हैं, पिछलग्गू
हैं, भीड के
पिछलग्गू! इस मर्ज की दवा
पिछलग्गुओं के पास नहीं, भीड
के पास ही है। जिस दिन भीड यह समझ जाएगी कि क्रिकेट का खेल बीमारी है, गुलामी है, सामंती है और इसके नाम पर चंद लोग उसको लूट रहे
हैं, उसी दिन भारत में
क्रिकेट को खेल की तरह खेला जाएगा या फिर उसका खेल खत्म हो जाएगा। भारत में क्रिकेट
किसी खेल की तरह रहे और अंग्रेजी किसी भाषा की तरह, तो किसी को कोई आपत्ति भी क्यों
होगी? लेकिन खेल और भाषा यदि
आजाद भारत की औपनिवेशिक बेडियां बनी रहें,
तो उन्हें फिलहाल तोडना या तगडा झटका देना ही बेहतर होगा।