के.के.खुल्लर

मौलाना अबुल कलाम आजाद उन महत्वपूर्ण चुनिंदा व्यक्तित्वों में से एक हैं जिनके माध्यम से 20वीं शताब्दी की विशिष्टताओं को पहचाना जा सकता है और 21वीं सदी की संभावनाओं को निर्धारित किया गया है। उन्होंने भारतीय कलाओं के मानवतावाद और पश्चिम विज्ञान के बुध्दिवाद का संयोजन करते हुए उदार, आधुनिक और सार्वभौमिक शिक्षा के माध्यम से एक ऐसे प्रबुध्द समाज की वकालत की, जहां मजबूत ढांचे के साथ कमजोर को सुरक्षा मिले, जहां युवा अनुशासित हो और महिलाएं हिंसा रहित, शोषण रहित समाजिक व आर्थिक स्थिति के साथ सम्मान का जीवन जिएँ। वह स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री थे और उन्होंने ग्यारह वर्षो तक राष्ट्र की नियति का मार्गदर्शन किया।

मौलाना अबुल कलाम आजाद राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के उस मुद्दे को उठाने वाले पहले व्यक्ति थे जो आज राष्ट्रीय शिक्षा नीति(1985) की कमजोरी है और जिसे 1992 में दुरस्त किया गया। इस अवधारणा के अनुसार एक स्तर तक सभी छात्रों को जातिभेद, स्थान और लिंगभेद को मिटाकर सभी को समान स्तर की शिक्षा उपलब्ध होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि सभी शैक्षणिक कार्यक्रमों में धर्मनिरपेक्ष मूल्यों और संवैधानिक ढांचे के साथ कड़ाई से अनुपालन किया जाना चाहिए। वे संपूर्ण भारत में 10+2+3 की समान शिक्षा संरचना के पक्षधर रहे। यदि मौलाना अबुल कलाम आज जिंदा होते तो वे नि:शुल्क शिक्षा के अधिकार विधेयक को संसद की स्वीकृति के लिए दी जाने वाली मंत्रिमंडलीय मंजूरी को देखकर बेहद प्रसन्न होते। शिक्षा का अधिकार विधेयक के अंतर्गत नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा एक मौलिक अधिकार है। मौलाना आजाद के अनुसार राष्ट्र का धन देश के बैंको में न होकर प्राथमिक विद्यालयों में है। मौलाना घरों के नजदीक होने और समान विद्यालय प्रणाली की अवधारणा के प्रबल समर्थक थे।

11 नवम्बर, 1988 को मक्का में जन्मे अबुल के पिता मौलाना खैरूद्दीन एक विख्यात विद्वान थे। उनकी माँ अलिया एक अरब थी और मदीन के शेख मोहम्मद जाहिर वत्री की भतीजी थी। उनके पिता ने उनका नाम फिरोज बख्त रक्खा लेकिन वे अबुल कलाम बन गये और उनका यहीं नाम बाद में भी रहा। 10 वर्ष की आयु में ही वह कुरान के पाठ में निपुण हो गए थे। 17 वर्ष की आयु में अबुल कलाम इस्लामी दुनिया में मान्य धर्मविज्ञान में भी प्रशिक्षित हो चुके थे। काहिरा के अल अजहर विश्वविद्यालय में प्राप्त की गई उनकी शिक्षा आगे चलकर और गहन ज्ञान में बदल गई। उनके परिवार के कोलकाता में बस जाने के बाद उन्होनें लिसान-उल-सिद नामक एक पत्रिका की शुरूआत की। प्रारंभिक दौर में उन पर उर्दू के दो महान आलोचक मौलाना शिबली नाओमनी और अल्ताफ हुसैन हाली का प्रभाव था। आजाद ने राजनीति में उस वक्त प्रवेश किया जब ब्रिटिश सरकार ने 1905 में धार्मिक आधारों पर बंगाल का विभाजन कर दिया। मुस्लिम मध्य वर्गों ने इस विभाजन का समर्थन किया लेकिन आजाद ने इसे पूरी तरह से नकार दिया। उन्होंने आन्दोलनों में सक्रिय भाग लिया और गुप्त सभाओं और क्रांतिकारी संगठन में शामिल हो गए। इसके बाद वे श्री अरबिंद घोष और श्याम सुंदर चक्रवर्ती के संपर्क में आए। वे अखण्ड भारत के निर्माण कार्य में जुट गये और अपने रूख से कभी नहीं हटे। उन्होंने अपनी प्रसिध्द पुस्तक इंडिया विन्स फ्रीडम में लिखा है कि लोगों को यह सलाह देना सबसे बड़े धोखों में से एक होगा कि भौगोलिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से भिन्न क्षेत्रों को धार्मिक संबंध जोड़ सकते हैं। यह इतिहास का एक तथ्य है कि जहाँ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने 1947 में हुए विभाजन को स्वीकार कर लिया पर मौलाना इसके खिलाफ डटे रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता पर उनका यह लोकप्रिय बयान उनके जबरदस्त विश्वास को प्रकट करता है - ''अगर एक देवदूत स्वर्ग से उतरकर कुतुब मीनार की ऊंचाई से यह घोषणा करता है कि हिन्दू-मुस्लिम एकता को नकीर दें तो 24 घंटे के भीतर स्वराज तुम्हारा हो जाएगा, तो मैं इस स्वराज को लेने से इंकार करूंगा, लेकिन अपने रुख से एक इंच भी नहीं हटूंगा, क्योंकि स्वराज से इंकार सिर्फ भारत को प्रभावित करेगा लेकिन हमारी एकता की समाप्ति से हमारे समूचे मानव जगत को हानि होगी।

20 वर्ष की आयु में उन्होंने इराक, सीरिया और मिस्र का दौरा किया और इसाईयों सहित युवा तुर्क और अरब राष्ट्रवादियों से मुलाकात की। यह दौरा आजाद के लिए उन उपनिवेशवादियों के समक्ष अपने विचारों को रखने के मामले में बहुत उपयोगी साबित हुआ जो उन देशों का शोषण कर रहे थे स्वदेश आकर उन्होंने 1912 में 'अल हिलाल' नामक एक उर्दू पत्रिका की शुरूआत की। इस पत्रिका में उन्होंने अपने उदार विचारों, कुशल तर्कों और इस्लामी जनश्रुतियों और इतिहास के दृष्टिकोण को प्रकाशित किया। 'भारत की खोज' में नेहरूजी लिखते हैं कि मौलाना ने तार्किक र्दृष्टिकोण से धर्मग्रंथों की व्याख्या की है। इस्लामी परंपराओं से भिज्ञ और मिस्र, तुर्की, सीरिया, फिलिस्तीन, इराक और ईरान के प्रमुख मुस्लिम नेताओं के साथ व्यक्तिगत संबंधों के कारण वह इन देशों की राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों से गहराई से प्रभावित थे। उन्हें इस्लामी देशों में किसी अन्य भारतीय मुसलमान की तुलना में अधिक जाना जाता था।

उनकी पत्रिका 'अल हिलाल' बेहद लोकप्रिय हो गई और दो वर्षों में ही इसका वितरण 30,000 तक पहँच गया। लेकिन 1914 में एक घटना घटी जब ब्रिटिश सरकार ने भारत की रक्षा अधिनियम के तहत प्रैस को जब्त कर लिया और पत्रिका पर प्रतिबंध लगा दिया। आजाद को गिरफ़्तार करके रांची कारागार में भेज दिया गया जहां उन्हें बेहद कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।

कारागार से रिहा होने के बाद, उन्होंने अपना शैक्षिक लेखन फिर से प्रारंभ कर दिया। नेहरूजी लिखते हैं कि वह एक नई भाषा में लिखते हैं, यह न सिर्फ विचारों और दृष्टिकोण में ही एक नई भाषा है बल्कि इसकी शैली भी भिन्न थी, फारसी पृष्ठभूमि होने के कारण कभी-कभी आजाद की शैली और विचारों को समझना थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने नये विचारों के लिए नए मुहावरों का प्रयोग किया और निश्चित रूप से आज की उर्दू भाषा को आकार देने में उनका बहुत बड़ा हाथ रहा है। पुराने रूढिवादी मुसलमानों ने इसके लिए उनके पक्ष में प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की और आजाद की राय एवं दृष्टिकोण की आलोचना की। मौलाना मध्यकालीन दर्शन, अठारहवीं सदी के बुध्दिवाद और आधुनिक दृष्टिकोण का एक अजब मिश्रण थे। पुरानी पीढी में से शिल्बी और अलीगढ विश्वविद्यालय के सर सैय्यद जैसे कुछ लोगों ने आजाद के लेखन को मान्यता दी।

'अल हिलाल' को जब्त करने के बाद आजाद ने 'अल बलघ' नाम से एक नई साप्ताहिक पत्रिका की शुरूआत की लेकिन 1916 में आजाद की गिरपऊतारी के बाद यह भी बंद हो गई। वह चार वर्षों तक कारावास में रहे। इसके बाद वह एक नामचीन नेता के रूप में बाहर आए उन्हें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में सम्मान के साथ शामिल किया गया। 1920 में उनके जीवन में उस समय एक नया मोड़ आया जब उन्होंने तिलक और गांधीजी से मुलाकात की। गांधीजी ने देवबंद विद्यालय और फिरंगी महल से खिलाफत आंदोलन का शुभारंभ किया था जहां गांधी और आजाद दोनों ही निरंतर आते-जाते रहते थे। लेकिन जब मुस्लिम लीग ने गांधीजी के सत्याग्रह की निंदा की तो लीग में युवा के तौर पर अपने को नामांकित कराने वाले आजाद ने हमेशा के लिए मुस्लिम लीग को छोड़ दिया। उनकी लोकप्रियता इतनी अधिक थी कि 35 वर्ष की आयु में वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अब तक के सबसे युवा अध्यक्ष बन गये। 1942 में, भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उन्हें कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता के तौर पर चुना गया। 1946 में शिमला में, मंत्रिमंडल अभियान के साथ बातचीत के दौरान भी उन्हें यह उपलब्धि मिली।

शिक्षा मंत्री के रूप में (15.08.47 से 22.02.1958)

1947 में जब अंतरिम सरकार का गठन किया गया तो आजाद को इसमें शिक्षा और कला के लिए सदस्य के तौर पर शामिल किया गया। 15 अगस्त, 1947 को जब भारत को स्वतंत्रता मिली तो उन्हें आजाद भारत में कैबिनेट स्तर के पहले शिक्षा मंत्री बनने का गौरव प्राप्त हुआ जहां उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को बढावा देने के लिए उत्कृष्ट संस्थानों की स्थापना की और अनेकों उपलब्धियां भी हासिल कीं। नए संस्थानों के तौर पर उन्होंने संगीत नाटक अकादमी (1953), साहित्य अकादमी (1954) और ललित कला अकादमी (1954) जैसी तीन राष्ट्रीय अकादमियों की स्थापना की। 1950 से पहले उनके द्वारा भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की स्थापना की गई। मौलाना का मानना था कि ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय शिक्षा में सांस्कृतिक सामग्री काफी कम रही और इसे पाठयक्रम के माध्यम से मजबूत किए जाने की जरूरत है। केन्द्रीय सलाहकार शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष होने के नाते, एक शीर्ष निकाय के तौर पर उन्होंने सरकार से केन्द्र और राज्यों दोनों के अलावा विश्वविद्यालयों में खासतौर पर सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा, 14 वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा, लड़कियों की शिक्षा, व्यावसायिक प्रशिक्षण, उाएृषि शिक्षा और तकनीकी शिक्षा जैसे सुधारों की सिफारिश की वकालत की। 1956 में उन्होंने अनुदानों के वितरण और भारतीय विश्वविद्यालयों में मानकों के अनुरक्षण के लिए संसद के एक अधिनियम के द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) की स्थापना की। वह नेहरूजी के साथ दृढता से इस बात पर विश्वास किया करते थे कि यदि विश्वविद्यालय अपने कार्यों को बेहतर तरीके से करेंगे तो राष्ट्र के हित में सब कुछ बेहतर होगा। उनके अनुसार, विश्वविद्यालयों का कार्य सिर्फ शैक्षिक कार्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसके साथ-साथ उनकी समाजिक जिम्मेदारी भी है। वह प्रौढ शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी रहे। उर्दू, फारसी और अरबी भाषा के प्रख्यात विद्वान होने के बावजूद उनका सबसे बड़ा योगदान शैक्षिक लाभों और राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं को देखते हुए अंग्रेजी भाषा के प्रति अवधारणा को पुष्ट करने में भी रहा। हालांकि उन्होंने यह भी कहा कि प्राथमिक शिक्षा को मातृभाषा में ही प्रदान किया जाना चाहिए। तकनीकी शिक्षा के मामले में, 1951 में अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद, खड़गपुर की स्थापना की गई और इसके बाद श्रृंखलाबध्द रूप में मुम्बई, चेन्नई, कानपुर और दिल्ली में आईआईटी की स्थापना की गई। स्कूल ऑफ प्लानिंग और वास्तुकला विद्यालय की स्थापना दिल्ली में 1955 में हुई।

छात्र अशांति

धर्मनिरपेक्षता से परिपूर्ण मौलाना छात्रों को यह सलाह देते थे कि साम्प्रदायिकता को हमेशा के लिए दफन कर दो लेकिन छात्र अनुशासनहीनता के प्रति उनकी चिन्ता बरकरार रही। 7 फरवरी, 1954 को केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सीएबीई)की बैठक की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि मुझे सबसे ज्यादा चिन्ता इस बात कि है कि छात्रों के उपद्रव कारण के छात्रों द्वारा बिना उन कारणों को गहराई से जाने बिना होते हैं। छात्रों के बीच इस तरह के उपद्रव हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की जड़ों पर प्रहार करते हैं। आज के छात्र कल के संभावित नेता हैं। उन्हें समाजिक, राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों को बनाए रखना होगा। अगर वह उचित तरीके से प्रशिक्षित नहीं है और उनमें चरित्र और ज्ञान के लिए जरूरी गुणों का विकास नही होता है तो उन्हें ऐसे नेतृत्व में शामिल नही किया जा सकता जिसकी राष्ट्र को जरूरत

एक लेखक के रूप में

उर्दू, फारसी और अरबी की किताबों के मौलाना एक प्रबुध्द लेखक थे। इंडिया विन्स फ्रीडम अर्थात भारत की जीत, उनकी राजनीतिक आत्मकथा, उर्दू से अंग्रेजी में अनुवाद के अलावा 1977 में साहित्य अकादमी द्वारा छ: संस्करणों में प्रकाशित कुरान का अरबी से उर्दू में अनुवाद उनके शानदार लेखक को दर्शाता है। इसके बाद तर्जमन-ए-कुरान के कई संस्करण निकले हैं। उनकी अन्य पुस्तकों में गुबारे-ए-खातिर, हिज्र-ओ-वसल, खतबात-ल-आजाद, हमारी आजादी और तजकरा शामिल हैं। उन्होंने अंजमने-तारीकी-ए-हिन्द को भी एक नया जीवन दिया। विभाजन के दंगों के दौरान, जब अंजमने-तारीकी-उर्दू के सामने समस्या आई तो इसके सचिव मौलवी अब्दुल हक ने अंजमन की किताबों के साथ पाकिस्तान जाने का फैसला किया। अब्दुल हक ने किताबों को बाँध लिया लेकिन मौलाना आजाद ने उन्हें निकाल लिया और इस तरह से उन्होंने एक राष्ट्रीय खजाने को पाकिस्तान जाने से बचाया। उन्होंने शिक्षा मंत्रालय की ओर से अंजमन को 48,000 रूपए प्रति माह के अनुदान की मंजूरी देकर उसे फिर से चलाने में मदद भी की। इसी तरह उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया, और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के वित्तीय संकट के समय में उनके अनुदान में वृध्दि करके मदद की। उन्होंने संरक्षित स्मारकों की मरम्मत और उन्हें बनाए रखने के भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के प्रयासों की ओर विशेष ध्यान दिया। अपने संपूर्ण जीवन में, उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों और भारत की सम्मिलित संस्कृति के बीच सौहार्द बनाने का प्रयास किया। वे धर्मनिरपेक्ष विचारधारा, सर्वव्यापक चरित्र और अंतर्राष्ट्रीय दृष्टिकोण वाले आधुनिक भारत के निर्माण के लिए डटे रहे।

वक्ता

एक वक्ता के रूप में उनके समकालीनों में उनके मुकाबले कोई नहीं था। जब वह बोलते थे तो श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे। रोमन और ग्रीक वक्ताओं की यादों की चर्चा करते हुए, उनके शब्दों में जादू का-सा आभास होता था। उनकी भाषा अनुशासित और सभ्य थी और उनका भाषण मनभावन होता था। अक्टूबर, 1947 में जब हजारों की संख्या में दिल्ली के मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे तो वे जामा मस्जिद की प्राचीर से एक प्राचीन देव पुरूष के तौर पर बोले,- 'जामा मस्जिद की ऊंची मीनारें तुमसे पूछ रही है कि जा रहे हो, तुमने इतिहास के पन्नों को कहाँ खो दिया। कल तक तुम यमुना के तट पर वजू किया करते थे और आज तुम यहां रहने से डर रहे हो। याद रखो कि तुम्हारे खून में दिल्ली बसी है। तुम समय के इस झटके से डर रहे हो। वे तुम्हारे पूर्वज ही थे जिन्होंने गहरे समुद्र में छलांग लगाई, मजबूत चट्टानों को काट डाला, कठिनाइयों में भी मुस्कुराए, आसमान की गड़गडाहट का उत्तर तुम्हारी हँसी के वेग से दिया, हवाओं की दिशा बदल दी और तूफानों का रूख मोड़ दिया। यह भाग्य की विडम्बना है कि जो लोग कल तक राजाओं की नियति के साथ खेले उन्हें आज अपने ही भाग्य से जूझना पड़ रहा है और इसलिए वे इस मामले में अपने परमेश्वर को भी भूल गये हैं जैसे कि उसका कोई आस्तित्व ही न हो। वापस आओ यह तुम्हारा घर है, तुम्हारा देश।''

उनके इस भाषण का इतना प्रभाव हुआ कि जिन लोगों ने पाकिस्तान जाने के लिए अपने बोरिया बिस्तर बाँध लिए थे वे स्वतंत्रता और देशभक्ति की एक नई भावना के साथ घर लौट आए और इसके बाद लोग यहाँ से नहीं गए। अंतर्राष्ट्रीय भाषणों के इतिहास में, जामा मस्जिद पर दिए गये मौलाना आजाद के इस भाषण की तुलना केवल अब्राहम लिंकन के गैट्सबर्ग में दिए भाषण से, गांधीजी की हत्या पर नेहरू के बिरला हाऊस में दिये गये भाषण और हाल ही में मार्टिन लूथर के भाषण- 'मेरा एक सपना है,' से तुलना की जा सकती है।

एक इंसान के रूप में मौलाना और भी महान थे, उन्होंने हमेशा सादगी का जीवन पसंद किया। उनके भीतर कठिनाइयों से जूझने के लिए अपार साहस और एक दरवेश जैसी मानवता थी। उनकी मृत्यु के समय उनके पास ना तो कोई संपत्ति थी और न ही कोई बैंक खाता। उनकी निजी अलमारी में कुछ सूती अचकन, एक दर्जन खादी के कुर्ते पायजामें, दो जोड़ी सैडल, एक पुराना ड्रैसिंग गाऊन और एक उपयोग किया हुआ ब्रुश मिला लेकिन वहाँ बहुत सी दुर्लभ पुस्तकें थी जो अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं।

मौलाना आजाद जैसे व्यक्तित्व कभी-कभी ही जन्म लेते हैं। अपने संपूर्ण जीवन में वे भारत और इसकी सम्मिलित सांस्कृतिक एकता के लिए प्रयासरत रहे। भारत के विभाजन के समय उनके प्रति जताए गये विरोध से सभी देशभक्त भारतीयों के दिलों को चोट पहुंची। वहां वह अपने वरिष्ठ साथी खान अब्दुल गपऊफार खाँ और अपने कनिष्ठ अशफाकउल्ला के साथ रहे। इकबाल के शब्दों में, ''हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।'' मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्मदिवस 11 नवम्बर को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस घोषित किया गया है।


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