सरफ़राज़ ख़ान
नई दिल्ली. मौसम में बदलाव के साथ ही नाक व गले से जुड़ी समस्याओं के मामले बढ़ने लगते हैं। ऐसे मौसम में मरीजों में तेज बुखार, नाक बहना, गले की समस्या और बदन दर्द जैसी समस्याए होती है।
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल के मुताबिक़ वाइयरल से जुड़ी समस्याओं के लिए एंटीबायोटिक्स की ज़रूरत नहीं होती। वायरल से जुड़ी बीमारियों के लक्षण में गले में दर्द, खांसी आना, नाक बहना और डायरिया शामिल हैं।
सिर्फ़ बच्चों में देखने की ज़रूरत होती है कि कहीं वे ग्रुप ए बीटा हीमोलाइटिक स्ट्रेप्टो बैक्टीरिया संक्रमण से ग्रसित तो नहीं, क्योंकि यह बच्चों के फैरिंजाइटिस के 30 फ़ीसदी मामलों का कारण है और वयस्कों के 10 फ़ीसदी मामलो का कारण होते हैं। अगर इसका उपचार नहीं कराया गया तो इससे जोड़ों में खिंचाव व दिल की धड़कन पर असर पड़ता है और इससे वैल्वुलर हृदय की बीमारी होती है।
गले की समस्या में एंटीबायोटिक्स की जरूरत तभी है जब टांसिल लाल रंग दिखने लगे, गले में दर्द हो और खाना खाने में तकलीफ हो, मुंह की ओर लसिका बढ़ जाने से दर्द हो और साथ ही न खांसी आए, न नाक बहे, न छींक और ना ही आंख में तकलीफ़ हो।
भीषण गर्मी के कारण देश में हीट स्ट्रोक के मामलों में इज़ाफ़ा हो रहा है. हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया ने गर्मी में मरीजों द्वारा की जाने वाली गलतियों और प्रबंध के बारे में दिशा-निर्देश जारी किए हैं.
हार्ट केयर फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. के के अग्रवाल और डॉ. बी सी राय के मुताबिक़ हीट स्ट्रोक दो तरह के होते हैं। पहला, वे जो युवा काफ़ी समय तक गर्मी के दौरान मेहनत वाले काम में संलिप्त होते हैं, हीट स्ट्रोक के षिकार होते हैं. हालांकि नॉन एक्जरशनल हीट स्ट्रोक कम सक्रिय रहने वाले वृध्दों या ऐसे लोगों पर अधिक असर डालती है जो बीमार होते हैं या कम उम्र वाले बच्चों में होती हैं.
अगर इस पर समय पर ध्यान नहीं दिया जाए तो सैकड़ों लोग 72 घंटों में जान गंवा सकते हैं. अगर उपचार में देरी हुई तो मृत्यु की संभावना 80 फ़ीसदी तक होती है, इसमें भी दस फ़ीसदी की कमी की जा सकती है अगर संभावित गलतियों से बचा जाए व जल्द ज़रूरी उपाय कर लिए जाएं।
बीमारी का पता न लगा पाना : यह रेक्टल तापमान है जो कि एग्जिलरी या ओरल तापमान से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण है। व्यक्ति को हीट स्ट्रोक हो सकता है जिसमें उपचार न करा पाने की वजह रेक्टल तापमान ना लेना हो सकता है। हीट स्ट्रोक की स्थिति तब होती है जब तापमान 41 डिग्री सेंटीग्रेड (106 डिग्री फारेनहाइट) से अधिक हो और पसीना न आए।
हीट स्ट्रोक को हीट एग्जाशन समझने की भूल : दोनों में फर्क यह है कि हीट स्ट्रोक के दौरान मरीज को पसीना नहीं आता।
धीरे-धीरे तापमान कम होना : उपचार के तौर पर तापमान में कमी का लक्ष्य कम से कम 0.2 डिग्री सेंटीग्रेड प्रति मिनट कम करते हुए करीब 39 डिग्री सेंटीग्रेड (102 डिग्री फारेनहाइट) तक पहुंचाना होता है।
39 डिग्री से परे लगातार ठंड में रहना : हाइपोथर्मिया से बचाव के लिए 39 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान से कम के वातावरण में रहना चाहिए।
एंटी फीवर दवाएं देना : एंटी फीवर दवाएं पैरासीटामॉल, एस्प्रिन और नॉन स्टीरायॅडल एंटी इन्फ्लेमैटरी की कोई भूमिका नहीं होती। यह दवाएं अगर मरीज लीवर, ब्लड और गुर्दे की समस्या से ग्रसित है तो नुकसानदायक साबित हो सकती हैं। इनकी वजह से रक्तस्राव भी हो सकता है।
बार-बार तापमान की जांच न करना : व्यक्ति को चाहिए कि वह लगातार रेक्टल तापमान को जांच करता रहे।
एक बार तापमान गिरने के बाद बुखार की जांच न करना : हीट स्ट्रोक के बाद कुछ दिनों तक बुखार रह सकता है। इसलिए जरूरी है कि इस दौरान लगातार शरीर के तापमान की जांच करते रहें।
कपड़े न उतारना : मरीज के सारे कपड़े उतार देने चाहिए ताकि इवेपोरेषन से तापमान में कमी की जा सके।
सीज़र में फिनाइटॉइन देना : हीट स्ट्रोक में सीजर को काबू करने के लिए फिनाइटॉइन असरकारी नहीं होती।
तापमान को कम करने के लिए क्लोरप्रोमौजीन देना : पहले यह मुख्य उपचार के तौर पर इस्तेमाल होती थी, लेकिन अब इससे परहेज किया जाता है क्योंकि इससे सीजर की आशंका बढ़ जाती है।
मरीज़ के लिए खुद से एंटी कोलीनेर्जिक एंव एंटी हिस्टेमिनिक दवाए लेना : इस मौसम में खुद से एंटी एलर्जी और नाक बहने जैसी समस्याओं में दवाएं लेना हानिकारक साबित हो सकता है। इससे गर्मी का संतुलन गड़बड़ाने के साथ ही जल्द हाइपोथर्मिया भी हो सकता है।
हृदय रोगियों का सावधानी न बरतना : बूढ़े हृदय रोगियों में कार्डियोवैस्कुलर दवाएं जैसे- बीटा ब्लॉकर्स, कैल्शियम चैनल ब्लॉकर्स और डयूरेटिक्स हाइपरथर्मिया को बढ़ा सकता है।
मरीज़ द्वारा ली गई ड्रग्स के बारे में न बताना : कोकीन और एम्फेटामाइन्स जैसी ड्रग्स लेने पर मेटाबॉलिज्म बढ़ने से अधिक गर्मी हो सकती है। ऐसी स्थिति में हीट स्ट्रोक कहीं ज़्यादा घातक साबित हो सकता है।
हल्के तापमान को नज़र अंदाज़ करना : हर व्यक्ति को यह याद रखना चाहिए कि उच्च तापमान तभी आता है जब हल्के बुखार को नज़र अंदाज़ कर दिया जाता है। अगले कुछ दिनों तक अचानक बुखार को स्ट्रोक ही माना जाना चाहिए जब तक कि कुछ और साबित न हो जाए।
ज़्यादा तरल पदार्थ न देना : याद रखें कि ऐसे में आंतरिक अंग जलने की स्थिति में होते हैं और यह आग सिर्फ़ फीवर के साथ ही निकल सकती है। ऐसे मरीज़ों को चाहिए कि वे आंतरिक अंगों को ठंडक पहुंचाने के लिए अधिक से अधिक तरल पदार्थों का सेवन करें।
सिर्फ़ सिर को ठंडा करना : मरीज़ों को बहते हुए नल के नीचे बैठाकर नहलाना चाहिए ना कि सिर्फ पानी लेकर हाथ या सिर को ठंडक पहुंचाएं। आइस मसाज से परहेज़ करना चाहिए, क्योंकि इससे आंतरिक तापमान में कोई कमी नहीं आती।