फ़िरदौस ख़ान
वक़्त बदला, हालात बदले, लेकिन नहीं बदली तो, ज़िंदगी की दुश्वारियां नहीं बदलीं. आंसुओं का सैलाब नहीं थमा, अपनों के घर लौटने के इंतज़ार में पथराई आंखों की पलकें नहीं झपकीं, अपनों से बिछड़ने की तकलीफ़ से बेहाल दिल को क़रार न मिला. यही है मेरठ के दंगा पीड़ितों की दास्तां. मेरठ के हाशिमपुरा में 22 मई, 1987 और मलियाना गांव में 23 मई, 1987 को हैवानियत का जो नंगा नाच हुआ, उसके निशान आज भी यहां देखे जा सकते हैं. इन दंगों ने यहां के बाशिंदों की ज़िंदगी को पूरी तरह तबाह कर दिया. औरतों से उनका सुहाग छिन गया. बच्चों के सिर से पिता का साया हमेशा के लिए उठ गया. कई घरों के चिराग़ बुझ गए. दंगाइयों ने घरों में आग लगा दी, लोगों को ज़िंदा जला दिया, औरतों को तलवार से काटा गया, बच्चों को भी आग में फेंक दिया गया. आलम यह था कि लोगों को दफ़नाने के लिए जगह कम पड़ गई. यहां के क़ब्रिस्तान की एक-एक क़ब्र में तीन-तीन लोगों को दफ़नाया गया. मरने वाले ज़्यादा थे और मातम करने वाले कम. जो ज़िंदा बचे, वे भी ज़िंदा लाश बनकर रह गए. बरसों तक कानों में अपनों के चीख़ने-चिल्लाने की आवाज़ें गूंजती रहीं. इंसानों से आबाद एक पूरी बस्ती श्मशान में बदल चुकी थी, जहां सिर्फ़ आगज़नी और तबाही का ही मंज़र था.

मलियाना के मोहम्मद यूनुस अपने भाई महमूद का खंडहर हो चुका मकान दिखाते हुए कहते हैं कि कभी यहां एक ख़ुशहाल परिवार रहता था, घर में बच्चों की किलकारियां गूंजती थीं, लेकिन आज सिर्फ़ वीरानी के सिवा कुछ भी नहीं है. 23 मई को दंगाइयों ने इस घर को आग लगा दी थी. इस आग में उनके भाई महमूद, भाभी नसीम और चार बच्चे आरिफ़, वारिस, आफ़ताब और मुस्कान जलकर मर गए. जब मकान से लाशें निकाली गईं तो उनके भाई और भाभी ने अपने बच्चों को सीने से लगाया हुआ था. इस म़ंजर को देखकर रूह तक कांप उठी. बाद में इन लाशों को इसी तरह ही दफ़ना दिया गया. इस हादसे में उनकी भतीजी तरन्नुम बच गई, जो उस वक़्त अपनी नानी के घर गई हुई थी.

बेटे दिलशाद का नाम आते ही अली हसन की आंखें भर आती हैं. वह बताते हैं कि उस वक़्त दिलशाद की उम्र आठ साल थी. दंगाइयों ने पहले तो पैर पकड़ कर उसे ज़मीन पर पटक़-पटक़ कर मारा, फिर उसके बाद जलते हुए रिक्शे पर फेंक दिया. वह ज़िंदा जलकर मर गया. दंगाइयों ने उसके घर के चिराग़ को हमेशा के लिए बुझा दिया. मेराज ने बताया कि दंगाइयों ने उनके पिता मोहम्मद अशरफ़ की गर्दन में गोली मारी और उन्होंने मौक़े पर ही दम तो़ड दिया. यामीन बताते हैं कि दंगाइयों ने उनके वालिद मोहम्मद अकबर को पहले तो बुरी तरह पीटा, बाद में उन्हें ज़िंदा जला दिया गया.
महमूदन बताती हैं कि दंगाइयों ने उनके घर में आग लगा दी थी, जिसमें उनके ससुर अब्दुल रशीद और सास इदिया की जलकर मौत हो गई. आग इतनी भयानक थी कि उनके सास-ससुर की लाशें तक नहीं मिली. उनके शौहर नवाब अपने भाई साबिर, मुज़फ्फ़र के साथ किसी दूसरे घर में गए हुए थे. वह अपनी ननदों शबाना एवं बानो और बच्चों रहीसुद्दीन, रईसा एवं शहाबुद्दीन को लेकर पहले ही घर से निकल कर वहां आ चुकी थीं, जहां गांव के लोग इकट्ठा थे. यहां उन्होंने कई-कई दिनों तक फ़ाक़े किए. इस हादसे के बाद वह परिवार समेत अपने मायके शैदपुर चली गईं. कुछ वक़्त बाद उनके शौहर मलियाना आए और एक अदद छत का जुगाड़ किया.

रज़िया बताती हैं कि उस वक़्त उनकी शादी हुई थी. घर में अच्छी खासी रौनक़ थी, लेकिन दंगाइयों ने उस ख़ुशी के माहौल को मातम में बदल दिया. दंगाइयों ने पहले तो घर में लूटपाट की, फिर आग लगा दी. उनके ससुर अल्ला राज़ी को बुरी तरह पीटा गया. उनका परिवार इस हादसे से अभी तक उबर नहीं पाया है. शकीला रोते हुए कहती हैं कि दंगाइयों ने उनके शौहर अशरफ़ को गोली मारकर उनकी ज़िंदगी हमेशा के लिए तबाह कर डाली. अगर दंगाइयों ने उन्हें भी मार दिया होता तो अच्छा होता. जन्नत बताती हैं कि दंगाइयों ने उनके घर में भी आग लगा दी थी, किसी तरह उन्होंने भागकर जान बचाई. आठ दिनों बाद जब उनका परिवार घर लौटा तो देखा कि राख अब भी गरम थी. गर्भवती कनीज़ को तलवार से काट डाला गया. इसी तरह शहाना के पेट को भी तलवार से काट दिया. उसकी आंतें बाहर आ गईं और वह अपनी आंतों को हाथ में लेकर बदहवास दौड़ पड़ी. इस हादसे के बाद उसने गांव ही छोड़ दिया. भूरा की भांजी के पैर में गोली मारी गई.

बिजली के सामान की मरम्मत करने वाले हशमत अली अपने ज़ख्म दिखाते हुए कहते हैं कि पीएसी के जवानों ने उनके घर की तलाशी ली थी और इसमें उन्हें पेचकस मिला. इस पर उन्हें बेरहमी से पीटा गया. उनकी टांग तोड़ दी गई. वकील अहमद के जिस्म पर भी गोलियों के निशान हैं. वह बताते हैं कि उनके पेट पर दो गोलियां मारी गईं, जिससे उनकी एक किडनी खराब हो गई. मोहम्मद रज़ा बताते हैं कि पीएसी के जवानों ने एक गोली से दो लोगों की हत्या तक की. नसीर अहमद के सिर में गोली मारी गई, जो उनके पीछे खड़े एक दूसरे व्यक्ति की गर्दन में लग गई और दोनों ने मौक़े पर ही दम तोड़ दिया. नौशाद बताते हैं कि उस वक़्त वह छोटे थे. दंगाइयों का क़हर देखकर उनका दिल दहल उठा था. वह दहशत आज भी उनके दिल पर तारी है. आज भी जब उन दंगों का ज़िक्र आता है, ऐसा लगता है जैसे यह कल का ही वाक़िया हो.


हाशिमपुरा की नसीम बानो का कहना है कि उनका एक ही भाई था सिराज अहमद. पीएसी के जवान उसे उठाकर ले गए और गंग नहर के किनारे उसे गोली मारकर हमेशा के लिए मौत की नींद सुला दिया. कुछ ही दिनों बाद उसकी शादी होने वाली थी. घर के चश्मो-चिराग़ की मौत के बाद उनके वालिद शब्बीर अहमद बुरी तरह टूट गए और वालिदा रशके जहां की दिमाग़ी हालत खराब हो गई. इस दर्दनाक हादसे के 10 साल बाद उनकी मौत हो गई, लेकिन आख़िरी  सांस तक उन्होंने अपने बेटे का इंतज़ार किया. उन्हें इस बात पर कभी यक़ीन नहीं आया कि अब उनका बेटा इस दुनिया में नहीं है. उनकी दो बहनें अपनी ससुराल में हैं, जबकि वह और उनकी एक बहन फ़ातिमा तलाक़शुदा हैं. वह कहती हैं कि भाई की मौत ने पूरे ख़ानदान को बिखेर दिया. आज उनका भाई ज़िंदा होता तो उनकी ज़िंदगी ही कुछ और होती. हाजिरा के बेटे नईम और पीरो के बेटे निज़ामुद्दीन को भी पीएसी के जवान उठाकर ले गए थे और उन्हें भी गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया. ज़रीना तो आज भी उस खौ़फ़नाक मंज़र को याद कर कांप उठती हैं, जब पीएसी के जवान उनके शौहर ज़हीर अहमद और बेटे जावेद अख्तर को घर से घसीटते हुए ले गए थे, बाद में दोनों की मौत की ख़बर ही मिली. अमीना के शौहर जैनुद्दीन और दो बेटों जमशेद अहमद और शमशाद अहमद को भी पीएसी के जवान जबरन घसीटते हुए ले गए. उनके बेटों को गोली मारकर नहर के हवाले कर दिया गया और शौहर को जेल भेज दिया गया. सवा महीने बाद जैनुद्दीन घर लौटे तो उनके जख्म पुलिस की हैवानियत बयां कर रहे थे. उन पर इस क़द्र ज़ुल्म ढहाए गए कि उनके हाथ-पैर हमेशा के लिए बेकार हो गए. अब वह अपाहिज जैसी ज़िंदगी बसर कर रहे हैं. अमीना भी बेटों के ग़म में इस क़द्र हल्कान हो चुकी हैं कि वह अपने पैरों पर चल तक नहीं पातीं. रफ़ीक़न बताती हैं कि पीएसी के जवानों ने उनके शौहर हतीमुद्दीन को बुरी तरह पीटा और बेटे अलाउद्दीन को नहर किनारे ले जाकर गोली मार दी और उसकी लाश भी नदी में फेंक दी.


औरतें ही नहीं, बुज़ुर्ग भी अपनी औलादों को याद कर ख़ून के आंसू बहा रहे हैं. जमालुद्दीन के बेटे कमरुद्दीन को भी दो गोलियां मारी गईं. पहले वह अपने बेटे के साथ मिलकर कैंचियों का कारख़ाना चलाते थे. उनका बेटा ही नहीं, बल्कि कारोबार भी दंगे की भेंट चढ़ गया. अब वह एक छोटी-सी परचून की दुकान के सहारे दो वक़्त की रोटी जुटा पा रहे हैं. शाहिद अंसारी के वालिद इलाही अंसारी भी मेरठ दंगों में मारे गए और वह अनाथ हो गए. मौत के मुंह से बचकर आए ज़ुल्फ़िक़ार बताते हैं कि पीएसी ने उन्हें भी गोली मारकर नहर में फेंक दिया था, लेकिन वह किसी तरह बचकर आ गए. वह बताते हैं कि पीएसी के चंगुल से बचे लोगों के हाथ-पैर तोड़ दिए गए. वे खाने-कमाने लायक़ नहीं रहे. मोहम्मद यामीन बताते हैं कि उनसे पीएसी के जवानों ने पूछा कि कहां रहते हो और इलाक़े का नाम बताते ही उन्हें ले जाकर जेल में डाल दिया गया, जहां उनके साथ मारपीट की गई. अब्दुल हमीद का भी सिर फोड़ दिया गया. उनके ज़ख्मों के निशान आज भी उनके दर्द को बयां कर रहे हैं. शकील का कहना है कि जब पीएसी के जवान उसके भाई नईम को उठाकर ले जा रहे थे, तब वह उनके पैरों से लिपट गया था, लेकिन एक मासूम बच्चे के आंसू भी उन्हें नहीं रोक पाए. उसका कहना है कि इस हादसे के बाद इलाक़े में सिर्फ़ औरतें और बच्चे ही बचे थे.

कई-कई दिनों तक उन्हें रोटी का एक निवाला तक नसीब नहीं होता था. बच्चे इसी आस में दिन भर सड़क के चक्कर लगाते थे कि कहीं से कोई गाड़ी आ जाए और उन्हें राशन दे दे. प्रशासनिक सहायता भी नाममात्र की ही थी. कभी-कभार ही सरकारी नुमाइंदे आते और उन्हें दाल-चावल और आटा दे जाते थे. उसके सहारे भला कितने दिन पेट भर पाता.

अब छत छिनने का खौफ़ 
मलियाना की दंगा पी़डित महिलाएं आज भी बेहद बुरे दौर से गुज़र रही हैं. उनका कहना है कि पहले उनके घर को फूंका गया, परिजनों की हत्याएं की गईं और अब उनसे उनकी छत भी छीनने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में वे भला कहां जाएं, गांव का कोई भी व्यक्ति उनकी मदद करने को तैयार नहीं है. पिछले कई माह से नसरीन का रो-रोकर बुरा हाल है. वह बताती हैं कि पुलिसकर्मी दंगे के गवाह उनके जेठ माशाअल्लाह को उठाकर ले गए और उन्हें पीट-पीटकर जान से मार दिया. बाद में उन्हें मुआवज़े के तौर पर 20 हज़ार रुपये दिए गए. उन्होंने हकीमुद्दीन से 22 हज़ार रुपये में मकान ख़रीदा और वे बरसों से इसमें रह रहे हैं. इस मकान का बैनामा नहीं हुआ था. इसी बात का फ़ायदा उठाकर हकीमुद्दीन के बेटे रईसुद्दीन ने अब यह मकान किसी और को बेच दिया है. उन पर मकान ख़ाली करने का दबाव बनाया जा रहा है. ऐसे में वह अपने चार बच्चों को लेकर कहां जाएं. उनके पति मुज़फ्फर मेहनत-मज़दूरी करके बड़ी  मुश्किल से घर चला रहे हैं. पिछले काफ़ी वक़्त से वह और उनके पति बीमार हैं. घर में खाने के भी लाले पड़ गए हैं और अब गांव के प्रभावशाली लोग उनकी छत भी छीनना चाहते हैं. इसी तरह अनीसा रोते हुए कहती हैं कि उन्होंने अपनी 50 गज़ ज़मीन की बुनियाद भरवाई थी, लेकिन उस पर कुछ प्रभावशाली लोगों ने क़ब्ज़ा कर लिया है. अपने बच्चों को लेकर वह कहां जाएं, कौन उनकी फ़रियाद सुनेगा.

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