जगदीश्वर चतुर्वेदी
माल के सौंदर्यशास्त्र की वह विशेषता है कि वह दैनिक जीवन की आत्मीयता और
भावुकता को रूपायित करता है। यह कार्य फैंटेसी के माध्यम से होता है। इस तरह वह
दैनंदिन जीवन की आत्मीयता का प्रमाण बन जाता है। चित्र में व्यक्ति को जैसा दिखाया
जाता है,
दर्शक अब वैसा ही बनने लगता है। वे ऐसी स्थिति पैदा करते हैं कि जो
व्यक्ति की इमेज विज्ञापन में है वही वास्तविक है। विज्ञापन में दर्शाई वस्तु हमेशा
आकर्षक कामुक इमेज के साथ आती है। 'कामुक' इमेज और 'प्रेम निवेदन' विज्ञापन की आम रणनीति के प्रमुख तत्व हैं। इससे वस्तु की बिक्री बढ़ाने
में मदद मिलती है। इन तत्वों का जिन विज्ञापनों में प्रयोग होता है वहां अनुकरण
होता अथवा ग्राहक को अपने हूबहू भाव को भी पीछे छोड़ जानेवाले भावों को संप्रेषित
किया जाता है। 'वस्तु' के साथ
'प्रेम निवेदन' का प्रदर्शन व्यक्ति को
आकर्षित करता है और आकांक्षी बनाता है। इसीलिए कहा जाता है कि माल की
सौंदर्यशास्त्रीय भाषा का जन्म प्रेम निवेदन या खुशामद की भाषा से होता है। परंतु
जब व्यक्ति अपनी सौंदर्यपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए वस्तुओं की दुनिया से उधार लेने
लगता है, उसकी नकल करने लगता है तो यह संबंध उलट जाता है। यह
माल के उपयोग मूल्य की पूर्व-सूचना है। उसके प्रभाव का पूर्व संकेत भी है जो अपने
आप में
मंशाओं और इच्छाओं को उत्तेजित करता है। वह मानवीय संवेदनाओं को उत्तेजित
करता है। वह सिर्फ शक्तिशाली मानवीय सहज वृत्तियों पर बल देता है। इससे केंद्रीय
बिंदु ही बदल जाता है। इस तरह कामेच्छा और विनिमय-मूल्य में संबंध स्थापित हो जाता
है। इस क्रम में हमें ऐसे आभिजात्य से मिलाया जाता है जिसके पास व्यापक रूप में
सुविधाएं हैं,
जिनमें दूसरे शामिल हो सकते हैं और वह वस्तु के माध्यम से प्रेम
निवेदन करता है। विलासितापूर्ण माल की प्रभावशाली प्रस्तुति से संवेदनाओं पर सीधे
प्रहार किया जाता है। उन्हें प्रेरित किया जाता है। इससे संपत्ति के हस्तांतरण में
मदद मिलती है। यही उसका (पूंजीपति) संपत्ति को हजम कर जाने का तरीका भी है। यह वह
कृत्रिम ढंग से वस्तुओं के दाम बढ़ाकर करता है।
माल के सौंदर्यशास्त्र की आलोचना में यह कहा जा सकता है कि पूंजीपतिवर्ग
किसी वस्तु के ब्रांड नाम के साथ शब्द का भी स्वामी बन जाता है। अभी तक शब्द
का वर्गीय स्वामित्व नहीं होता था पर अब ब्रांड के साथ शब्द का भी वर्गीय
स्वामित्व स्थापित हो जाता है। वह ब्रांड के प्रचार पर धन खर्च करते-करते शब्द का
भी निजीकरण कर लेता है। अब वह उसकी संपत्ति का एक टुकड़ा हो जाता है। वह शब्द को
ब्रांड में और ब्रांड के प्रचार को संपत्ति में बदल देता है। अत: मार्क्सवादी चिंतक
शब्द और भाषा के अवर्गीय स्वरूप की जो बातें करते रहे हैं, उस
पर पुनर्विचार की जरूरत है।
किसी एक माल में दिखनेवाली प्रवृत्ति जो कि ब्रांड की सफलता के रूप में
दिखाई देती है,
उसे वह अन्य माल की बिक्री में भी फैला देता है। वस्तुत: माल की इमेज
उत्पादन के क्षेत्रा में उसकी पूंजी की इमेज का ही रूपांतरण है। विज्ञापन के
क्षेत्र में भी जब इमेज का प्रयोग किया जाता है तो उसे 'समग्रप्रभाव' कहा जाता है। सभी वस्तुओं का समग्र
अनुभव, व्यापार की सेवा और सुविधाएं आदि को 'समग्रप्रभाव' की धारणा के दायरे में रखकर विचार करने
की जरूरत है। इससे पहली बात निष्कर्ष रूप में यह निकलती है कि माल की दुनिया
संकटग्रस्त है और अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है। इस संकट को छिपाने और इससे
उबरने के लिए माल का निर्माता माल की रूपसज्जा में परिवर्तन तेजी से करता है। ये
परिवर्तन वह बार-बार करता है। माल के रूप में घटित परिवर्तन को नई 'जेनरेशन' के माल में प्रत्यक्षत: देखा जा सकता है।
इसका प्रचार अभियान ग्राहक को 'जवानी' का भरोसा दिलाता है। अथवा यों कहें कि इसमें जवानी का रूपायन है।
'जवानी' का रूपायन आंशिक रूप में युवाओं
की सब-कल्चर से ऊर्जा प्राप्त करता है। इससे माल की दुनिया में चल रहे संकट को कम
करने में मदद मिलती है। अब युवा इमेज नई स्टैंडर्ड इमेज का अनिवार्य तत्व बन जाती
है। परिणामत: जहां एक ओर वस्तु के पुराने रूप बेकार हो जाते हैं वहीं दूसरी ओर
मनुष्यों की पूरी की पूरी पीढ़ी के चरित्रात्मक गुण भी पुराने लगते हैं। इसे
'युवा जड़पूजावाद' भी कहा जाता है। यह
उत्पादन के संबंधों में आए ठहराव को दर्शाता है। इस तकनीक का प्रयोग करने से समाज
में अविवेकपूर्णता का वर्चस्व स्थापित करने में मदद मिलती है। यहां तक कि दैनिक
जीवन की छोटी-छोटी चीजों पर अविवेकपूर्ण दृष्टि अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल
हो जाती है।
माल का सौंदर्य तत्व वस्तु की मांग बढ़ाता है। वह सीधे-सीधे हमारी गति
को,
मानवीय शक्ति और प्रभाव को रूपांतरित करता है। वह मनुष्य की
संवेदनाओं को परिवर्तित करता है। इससे व्यक्ति की वास्तविक प्रवृत्ति, भौतिक जीवन शैली, दृष्टिकोण, आवश्यकता और संतुष्टि की धारणा में भी परिर्वतन आता है। वस्तु की बिक्री
बढ़ाने के लिए बार-बार नई सौंदर्यात्मक प्रस्तुति का माध्यमों से बार-बार प्रसारण
वस्तुत: उपयोग-मूल्य की पुनरावृत्ति है इससे उपभोक्ता चक्कर में फंस जाता
है, इससे ग्राहक की प्रतिरोध क्षमता खत्म हो जाती है। ऐसी
परिस्थितियों का जन्म हो जाता है कि प्रतिरोध संभव ही नहीं होता। यह पूंजीवाद की
अपरिहार्य और अनिवार्य प्रवृत्ति है।
माल का सौंदर्यशास्त्र मानवीय संवेदना को बदलता है,
संवेदनाओं के परिवर्तन का संवेदना से तकनीकीवाद से गहरा संबंध है।
संवेदना की तकनीकीवाद का अर्थ है मनुष्यों में कृत्रिम शैली के प्रति अत्याकर्षण
पैदा करना। इसका वर्चस्व सौंदर्यपरक इमेजों के जरिए स्थापित किया जाता है। ये इमेज
मनुष्य की संवदेना को पकड़ती हैं। संवेदनाओं पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए
लुभावने चेहरों का इस्तेमाल किया जाता है। परिणामत: सामाजिक जीवन में 'आकर्षक लोग' संवेदनाओं पर प्रभुत्व जमाने लगते
हैं।
माल के सौंदर्यशास्त्र की धुरी है उपयोग मूल्य और विनिमय-मूल्य का
अंतर्विरोध और क्रेता-विक्रेता के बीच की टकराहट। इस अंतर्विरोध के कारण आर्थिक
क्षेत्र में तकनीकी प्रोन्नति दिखाई देती है। वह उसके विकास में अग्रणी भूमिका अदा
करती है। यह विकास उन सभी रूपों को नष्ट कर देता है जो उसके भावी विकास में बाधक
होते हैं। यह प्रक्रिया माल के सौंदर्यपरक अनुभव को अमूर्तन में ले जाती है। यह
कार्य वह उपयोग-मूल्य का वायदा करके करता है। वह ऐसा उपकरण पैदा करता है जो बिक्री
में तेजी से वृध्दि करे। माल का सौंदर्यपरक अमूर्तन माल की संवेदना और अर्थ दोनों
को पृथक कर देता है। यह विभाजन वह विनिमय-मूल्य के आधार पर करता है। पहले चरण में
यह स्वत: ही उत्पादन की प्रक्रिया में सतही तौर पर अपने को पृथक कर लेता है। दूसरे
चरण में पैकेजिंग की भूमिका होती है। माल की सौंदर्यपरक प्रस्तुति पहले से ज्यादा
का वायदा करती है। इसी में भ्रमों का ज्यादा से ज्यादा सहयोग लिया जाता है। माल का
सौंदर्यशास्त्रा इस बात पर निर्भर करता है कि व्यक्ति को किस दिशा में ले जाया जा
रहा है। वह उसकी संतुष्टि,
मनोरंजन और प्रसन्नता देने का प्रयास करता है। वह ग्राहकों को खुशामद
करके पटाता है और उन्हें पतन की ओर ले जाता है। वह चाटुकारिता करता है,
भविष्य से ध्यान हटाता है। यही उसका भ्रष्टाचरण
है।
इस संदर्भ में यह प्रश्न विचारणीय है कि क्या पूंजीवाद व्यक्ति की मदद करता
है?
हां, पूंजीवाद व्यक्ति की मदद करता है,
वह अवस्था है विच्छेदन की। अगर व्यक्ति बैठ गया तो फिर कभी उठकर खड़ा
नहीं हो पाता। मदद का अर्थ है पराधीन अवस्था की है। अब कामुक आनंद प्रत्येक माल का
लोकप्रिय तत्व बन जाता है। आमतौर पर माल का सेक्सुलाइजेशन लोगों की हिस्सेदारी
बढ़ाता है, दमित कामेच्छा को आधार प्रदान करता है। इससे मांग
और सप्लाई बढ़ती है। माल के सौंदर्यशास्त्रा के चारित्रिाक गुणों का विश्लेषण करें
तो पाएंगे कि सौंदर्य प्रसाधन सामग्री उद्योग मूलत: 'स्टाइल' या 'शैली' को प्रस्तुत करता है। वह शृंगार रूपों को विस्तार देता है। जब कोई खुदरा
ग्राहक प्रसाधन सामग्री खरीदता है तो वह वस्तु की 'स्टाइल', उसकी बिक्री योग्यता को खरीदता है।
उल्लेखनीय है कि पूंजी शानदार विभ्रमों की सृष्टि किए बगैर सिर्फ सुकोमल चेहरे की
प्रस्तुति के आधार पर माल के बाजार में टिक ही नहीं
सकती।
सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के विज्ञापन आमजीवन में स्वास्थ्य और सुंदरता के
नए मानदंड का निर्माण कर देते हैं। वह मूलत: व्यक्तिगत संवेदना केंद्रित होता है।
इस तरह वह ग्राहक की स्वास्थ्य और सुंदरता के प्रति संवेदनाएं भी बदल देता है। यह
कार्य वह असंपृक्त भाव से करता है।
माल के सौंदर्यशास्त्र के संदर्भ में प्रसाधन सामग्री निर्माताओं ने
विज्ञापनों में किस रणनीति का प्रयोग किया?
इसे संक्षेप में समझें।
कुछ वर्ष पहले तक प्रसाधन सामग्री
की मूल उपभोक्ता औरत थी। खासकर,
प्रारंभ के दिनों में आभिजात्य वर्ग की औरत थी परंतु मास
प्रोडक्शन, मास मार्केट के कारण आज आभिजात्य के बजाय आम औरत
को केंद्र में रखा गया है। इसी तरह प्रसाधन सामग्री का गैर-आभिजात्य वर्ग में
प्रयोग बढ़ा। प्रसाधन सामग्री की बिक्री का सुनिश्चित फॉर्मूला है 'स्वास्थ्य और सुंदरता' को बढ़ाना। यहां सुंदरता का
अर्थ गोरे रंग से है तो वहीं पर गोरे को 'प्रसन्नतादायक' भी मान लिया गया है। यह फॉर्मूला औरत
के विश्वबोध को सीमित करता है। इस फॉर्मूले का प्रथम चरण है घरेलू औरत की कुंठाएं।
वह औरत की जिंदगी में प्रशंसा और रूप की उपलब्धि के अभाव को दर्शाता है। क्रीम और
लोशन इस अभाव की पूर्ति का दावा पेश करते हैं। वे इस संदर्भ में भय और एकाकी असंतोष
को उभारते हैं, शरीर की नई व्याख्या पेश करते हैं। वह
व्याख्या 'देखने' और 'मुस्कराने' दोनों ही रूपों में संप्रेषित होती है।
साथ ही, उसकी स्पर्शक्षम संवेदना आत्मनिरीक्षण को भी पेश करती
है। यह उसकी रणनीति का मूल तत्व है। वह जवानी पर बल देता है। इसका प्रधान कारण यह
है कि युवाओं में परिवर्तन की संभावनाएं ज्यादा होती हैं, उनके अंदर मेनीपुलेशन की स्थितियां ज्यादा होती हैं। अत: माल के
सौंदर्यशास्त्र के प्रभावी मॉडल भी उन्हीं को बनाया जाता है। वे ही परिवर्तन के
उपकरण बनते हैं, साथ ही, आम
प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति के भी उपकरण वे ही होते
हैं।
विज्ञापन के बारे में यह माना जाता है कि वह अपने अनुभव और गणित को
लक्ष्यीभूत ग्रुप में रूपांतरित कर देता है क्योंकि यह मानवीय लक्ष्य को भी माल की
तरह देखता है। उसी को समस्या का अनुभव करता है और सुलझाने की कोशिश करता है।माल के
सौंदर्यीकरण की यह खूबी है कि वह आनंद देनेवाले अनुभव को खत्म करदेता है। अथवा जो
अनुभव दिखाए जाते हैं उन्हें खत्म कर देता है। वह माल से अपने को पृथक कर लेता है।
वह उसके उपयोग-मूल्य को स्वीकार ही नहीं करता।
माल के सौंदर्यशास्त्र की यह विशेषता है कि वह अपनी परपीड़क भाषा जनता से
लेता है और वस्तु की भाषा और कामेच्छाओं के साथ वापस जनता को संप्रेषित कर देता है।
कामेच्छाओं और कामुक इमेज का संप्रेषण करते समय वह जनता से सेवा का वायदा करता है।
जनता की सेवा के नाम पर कभी खत्म न होनेवाली इच्छाओं के प्रत्यक्ष रूप में
संप्रेषित करता है। इससे वह ग्राहक की काल्पनिक संतुष्टि बढ़ाता है। अंतर्विरोधों
के छद्म समाधान देता है। इस तरह माल का सौंदर्यशास्त्र अंतर्विरोधों का पुनरुत्पादन
करता रहता है,
उसे विस्तार देता है। इसका समाज पर दूरगामी प्रभाव होता
है।
मौजूदा दौर में माल का सौंदर्यशास्त्र तीन तत्वों का प्रयोग करता है।
1.
पैकेजिंग, 2. प्रेम, 3. शारीरिक प्रदर्शन, इन तीनों के लक्ष्यीभूत ग्राहक हैं औरतें और युवक।
युवापन पर बल देने का परिणाम यह भी हुआ कि जो युवा नहीं हैं वे युवा जैसे दिखाई
दें, वे इसका प्रयास करते
हैं।
युवा दिखाई देने के लिए प्रसाधन सामग्री के प्रयोग पर बल दिया जाता है।
इससे 'प्रसाधन व्यवहार' में भी परिवर्तन आया है।
'प्रसाधन व्यवहार' के नए रूप के निर्माण
में 'स्वस्थ' और 'स्वच्छ' की धारणा का जमकर प्रयोग किया गया है। इससे
'स्वास्थ्य' और 'स्वच्छता' की धारणा भी बदली है। साथ ही,
'छद्म स्वास्थ्य' की प्रवृत्ति को बल मिला
है।
(लेखक कलकत्ता विश्वविद्यालय के हिन्दी
विभाग में प्रोफेसर हैं)