अशोक हांडू
भारत में विलुप्त होते जा रहे बाघों की संख्या में वृद्धि के बारे में सुनना ताज़ा हवा के झोंके की तरह था। 2006 की पिछली गणना 1411 के मुकाबले नवीनतम 1,706 की गिनती साफतौर से 295 अधिक है। यह वृद्धि तब और अधिक प्रभावकारी लगती है जब हम इस तथ्य पर ध्यान देते हैं कि बाघों की संख्या में लगातार गिरावट के बावजूद यह वृद्धि दर्ज की गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में बाघों की संख्या स्थिर हो रही है और कई इलाकों मे तो इसमें काफी बढ़ोतरी हुई है।
यह वृद्धि अतिरंजित लगती है अगर हम इस बात पर गौर करें कि नवीनतम गणना में शामिल कुछ इलाकों जैसे कि सुंदरबन और महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर के कुछ भागों को पिछली गणना में शुमार नहीं किया गया था। सुंदरबन में 70 से कम बाघ नहीं होंगे, निश्चित तौर पर यह बड़ी संख्या है, हालांकि कुछ विशेषज्ञ मानते है कि संख्या इससे कहीं अधिक है, 150 के आसपास। फिर भी वृद्धि के यह आंकडे हमे ख़ुश होने का कारण देते हैं, बाघों की वैश्विक संख्या की आधी से अधिक संख्या भारत में है, यह हमें ख़ुशी महसूस करने की अतिरिक्त वजह देता है।
            इस बार 382 बाघों के आकलन के साथ 36 प्रतिशत की सर्वाधिक वृद्धि कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल के इलाकों में दर्ज की गई है। महाराष्ट्र, असम और उत्तराखंड ने भी प्रभावी बढ़ोतरी दर्ज की है। लेकिन आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश ने इसमें गिरावट दर्शायी है जिसने बाघों की राजधानी के रुप में मध्य भारत की छवि को प्रभावित किया है। मध्य प्रदेश में बाघों की संख्या गिरकर 213 हो गई है और आंध्र में मात्र 65 पश्चिमी घाटों में 534 की संख्या आकलित की गई है जो कि पिछली गणना से 122 अधिक है। इसलिए हिमालय की तराई वाले गंगा के मैदानी भागों का प्रदर्शन प्रभावकारी है।
प्रमुख बाघ रिज़र्वों जैसे कि राजस्थान में रणथंबौर, उत्तराखंड में कार्बेट राष्ट्रीय पार्क, असम में काज़ीरंगा, केरल में पेरियार और महाराष्ट्र में मेलघाट ने बाघों की संख्या में ख़ासी वृद्धि दर्ज की है।
            बाघों के रहने के लिए कम होती जा रही जगह के बावजूद यह वृद्धि हुई है यह बात इस प्रदर्शन को और अधिक चमकदार बनाती है। महज़ तीन वर्ष पूर्व भारत में बाघों का वास 93,600 वर्ग कि.मी. था जो कि अब घटकर 72.800 वर्ग कि.मी. रह गया है। 1970 मे जब प्रोजेक्ट टाइगर कि शुरुआत हुई थी उस वक्त बाघों का मूल क्षेत्र एक लाख  वर्ग कि.मी. था जो कि अब सिकुडकर मात्र 31,207  वर्ग कि.मी. हो गया है। अगर जगह इसी तरह कम होती रही तो आने वाले दिनों में एक बिल्कुल अलग कहानी होगी।
            तथ्य यह है कि बाघों के आवास इंसानी और आर्थिक गतिविधियों के कारण काफी अधिक दबाव में हैं। यह स्पष्ट करता है कि वर्षों में बाघों की संख्या में काफी तीव्र गिरावट क्यों हुई। 2002 में, मात्र आठ वर्ष पूर्व भारत में 3700 बाघों का आकलन किया गया था। 1947 में जब भारत ने स्वतंत्रता प्राप्त की तब भारत में बाघों की संख्या 49,000 थी। अगर हम इससे भी पीछे जाए तो पिछली सदी की शुरुआत में यह संख्या एक लाख थी। आज सिर्फ 295 की वृद्धि हमें खुशी देती है।
फिर भी यह संतोष की बात है कि सरकार के प्रयास फलित होने लगे हैं। इसने जागरुकता के स्तर को बढ़ाया है। सभ्य समाज का दबाव भी प्रभावी सिद्ध हो रहा है। पिछले वर्ष जिन बाघ रिज़र्वो की संख्या 33 थी वो अब बढ़कर 39 हो गई है।
सिकुड़ते पर्यावास के अलावा शिकारियों और अंतर्राष्ट्रीय तस्कर नेटवर्क से भी ख़तरा है। बाघों की खाल और उसके अन्य भाग से चीन जैसे देशों में काफी पैसा मिलता है और इसलिए शिकारियों और तस्करों के लिए यह मुनाफे वाला व्यवसाय बनता है। बाघों के अंगो का चीन और कुछ अन्य एशियाई देशों में औषधीय रुपों में इस्तेमाल होता है। अवैध खनन भी चिंता का मुख्य विषय हैं क्योंकि इससे बाघों का पर्यावास सिकुड़ता है।
            विकासात्मक गतिविधियां जैसे कि सिंचाई, ऊर्जा और हाईवे परियोजना भी पारिस्थितिक तंत्र में बाधा डालती हैं जिससे बाघों को उचित पर्यावास नहीं मिल पाता। निश्चित तौर पर एक अरब से अधिक लोगों वाला देश मात्र सौर और पवन ऊर्जा पर जीवित नहीं रह सकता। हमें ऊर्जा के व्यावसायिक स्रोतों की ज़रुरत है लेकिन हमें वनों के संरक्षण की भी ज़रुरत है। इन दोनों के बीच सही संतुलन स्थापित करना ही हमारा विवेक है। इन सभी मुद्दों को सुलझाना ज़रुरी है स्पष्ट तौर पर इन्हें रात भर में नहीं किया जा सकता।
            इस बार बाघों की गणना के लिए अधिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को अपनाया गया है। बाघो के पंजों के निशान की गणना के बजाय बाघों की संख्या का पता लगाने के लिए छिपे हुए कैमरा का इस्तेमाल किया गया। सही आकलन पर पहुंचने के लिए डीएनए टेस्ट तक किया गया, जो कि संख्या की गणना को विश्वासनीय बनाता है। अब आगे की कार्यवाही करने की ज़रुरत है। इस प्राणी को विलुप्तीकरण के कगार से बचाने के लिए दुनियाभर में चलाई जा रही योजना ग्लोबल टाइगर रिकवरी प्रोग्राम (जीटीआरपी) इस मुद्दे से निपटने के लिए वैश्विक स्तर पर काफी आगे तक जाएगी।                                                                                 भारत में, पूर्वोत्तर के वनों में वर्तमान की तुलना में अधिक बाघों को संभालने की क्षमता है। इस पर भी ग़ौर करने की ज़रुरत है।
            फिलहाल हम चैन की सांस ले सकते हैं और इस प्रदर्शन का जश्न भी मना सकते है पर हमें यह ध्यान में रखना होगा कि देश में बाघों की सम्मान योग्य संख्या पर गर्व करने के लिए हमें काफी आगे जाना होगा। यह तो शुरूआत मात्र है।


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