अंबरीश कुमार
लखनऊ (उत्तर प्रदेश).
मायावती की सोशल इंजीनियरिंग में बसपा के बागी क्षत्रप ही पलीता लगा रहे है। पिछला विधान सभा चुनाव मायावती बहुजन के साथ सर्वजन को खड़ा कर जीती थी। अबकी सर्वजन ने अलग रास्ता पकड़ लिया है। इसमे सर्वजन का समर्थन जुटाने वाले बसपा के ज्यादातर क्षत्रप बागी हो चुके है। यही वजह है कि बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती को इस चुनाव में अपनों से ज्यादा संघर्ष करना पड़ रहा है खासकर जो अबतक उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे और पिछली बार उनकी ऐतिहासिक जीत के हिस्सेदार थे। मायावती अबतक सौ से ज्यादा विधायकों का टिकट काटकर ज्यादातर को बाहर का रास्ता दिखा चुकी है और बहुत से खुद ही बाहर हो गए है या दल बदल लिया है। ऐसे मंत्रियों की संख्या दो दर्जन से ज्यादा है जिसमे कई मायावती सरकार के बहुत ही महत्वपूर्ण मंत्री और सरकार के रणनीतिकार भी रहे है।महत्वपूर्ण मंत्रियों में बाबू सिंह कुशवाहा, अनंत कुमार उर्फ़ अंतु मिश्र, दद्दन मिश्र, दद्दू प्रसाद, राजेश त्रिपाठी, अवध पाल सिंह यादव, राकेश धर त्रिपाठी, अवधेश कुमार कुमार, अब्दुल मन्नान, राजपाल त्यागी, सुभाष पांडेय, अनीस अहमद खान उर्फ़ फूल बाबू, बादशाह सिंह और फ़तेह बहादुर सिंह शामिल है। यह सूची लम्बी है जिसमे बड़ी संख्या में विधायक और सांसद भी है। प्रदेश स्तर के बाहुबली भी है तो इलाके के डान भी। इनमे अगड़े है ,पिछड़े है तो अति पिछड़े भी है जो मायावती की सोशल इंजीनियरिंग में पलीता लगा रहे है।
इन मंत्रियों में कई मंत्री, विधायक और सांसद अपनी ही नही बल्कि आसपास की अन्य सीटों को जातीय समीकरण और अपने आभा मंडल के चलते प्रभावित कर रहे है, जिसकी वजह से बहुत कम अंतर से पिछली बार बसपा ने जो लगभग सौ सीटें जीती थी वे इस बार हाथ से निकल सकती है यह एक बड़ा खतरा बसपा पर मंडरा रहा है। पूर्वांचल में मायावती सरकर में मंत्री रहे फ़तेह बहादुर सिंह कांग्रेस के दिग्गज नेता ,पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के पुत्र है। वीर बहादुर सिंह का पूर्वांचल की राजनीति में अलग स्थान रहा है और इसका फायदा भी फ़तेह बहादुर लेते रहे है । अब उनकी बगावत से बसपा के वोटों पर असर पड़ना तय है। जिन मंत्रियों के खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान के चलते इस बार माहौल माकूल नहीं था वे भी सरकार से बाहर होने के बाद कुछ राहत महसूस कर रहे है  क्योकि अब वे सत्ता का हिस्सा नहीं है। ऐसे में वे अपनों से फिर ताकत हासिल कर रहे है। मायावती पिछली बार जब पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई थी तो उस समय दलितों के साथ उन्हें अगड़ी और अन्य पिछड़ी जातियों का भी वोट मिला था जिसने सत्ता का समीकरण बानाया। इसमे अंतिम समय में मिलने वाला दो तीन फीसद वह वोट भी था जिसने मुलायम सिंह को हराने के लिए उन्हें वोट किया। यह वही वर्ग था जिसका सबसे पहले मायावती से मोहभंग हुआ और इसका असर पिछले २००९ के लोकसभा चुनाव में दिखा जब विधान सभा सीटों के हिसाब से मायावती लगभग सौ सीटे गंवा चुकी । मायावती की राजनीति को सबसे बड़ा झटका तभी लग चुका था जिसका फायदा कांग्रेस खासकर राहुल गांधी साफ सुथरे उम्मीदवारों को टिकट देकर उठाया था। कांग्रेस को दूसरा बड़ा फायदा समाजवाद पार्टी में शामिल हुए कल्याण सिंह के चलते हुआ क्योकि मुसलमान सपा से नाराज होकर कांग्रेस की तरफ आया। इसमे आजम खान ने भी बड़ी भूमिका निभाई थी। ऐसे में बसपा का आकलन पिछले विधान सभा सीटों की बजाय लोकसभा में बची हुई विधान सभा सीटों के लिहाज से किया जाना चाहिए। इन सीटों में भी दलितों के साथ अन्य जातियों का समीकरण बना था जो अब टूट रहा है। कही पर बागी नेताओं की जाति इस समीकरण को तोड़ रही है तो कही ऊनका निजी असर। पूर्वांचल में अगर फ़तेह बहादुर सिंह उदहारण है तो बुंदेलखंड में बाबू सिंह कुशवाहा से लेकर बादशाह सिंह। इसी तरह पश्चिम और मध्य उत्तर प्रदेश के कई नेता बसपा का जनाधार कमजोर कर चुके है। हरदोई के नरेश अग्रवाल ऐसे ही उदाहरण है। इस तरह सत्तर से ज्यादा सीटों पर बसपा को अपने बागियों से मुकाबला करना पड़ रहा है। ये बागी खुद जीतें या न जीते बसपा को हराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। मायावती को ज्यादा मशक्कत इन नेताओं की वजह से करनी पड़ रही है।

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