फ़िरदौस ख़ान
देश में बारिश और ओलों के क़हर से लाखों हेक्टेयर में लहलाती फ़सलें तबाह हो गईं, जिससे किसानों को बहुत नुक़सान हुआ है. आमदनी तो ख़त्म हुई, साथ ही फ़सल की बुआई के लिए गये क़र्ज़ का ब्याज़ भी दिनोदिन बढ़ रहा है. किसानों के सामने अब यही सवाल है कि रबी फ़सल से हुए नुक़सान की भरपाई कैसे हो?
इस बारे में कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि धान की बुआई से पहले किसान जायद फ़सलों को उगा सकते हैं. वैसे भी जब तक धान की रोपाई होगी, तब तक खेत यूं ही ख़ाली पड़े रहेंगे. मूंग और मक्का बेहतर विकल्प हैं. मूंग फ़सल चक्र के लिए भी बेहतर फ़सल है. फ़सल चक्र अपनाने से उत्पादन के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है. धान आधारित क्षेत्रों के लिए धान-गेहूं-मूंग या धान-मूंग-धान, मालवा निमाड़ क्षेत्र के लिए मूंग-गेहूं-मूंग, कपास-मूंग-कपास फ़सल चक्र अपनाया जाता है. मूंग की फ़सल भारत की लोकप्रिय दलहनी फ़सल है और इसकी खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जाती है. यह फ़सल सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है. उनका कहना है कि गर्मी में ज़्यादा तापमान होने पर भी मूंग की फ़सल में इसे सहन करने की शक्ति होती है. कम अवधि की फ़सल होने की वजह से यह आसानी से बहु फ़सली प्रणाली में भी ली जा सकती है. उन्नत जातियों और उत्पादन की नई तकनीकी तथा सदस्य पद्धतियों को अपनाकर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है. गर्मी में मूंग की खेती से कई फ़ायदे होते हैं. इस मौसम में मूंग पर रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है और अन्य फ़सलों के मुक़ाबले सिंचाई की ज़रूरत भी कम होती है. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहनी फ़सल होने के कारण यह तक़रीबन 20 से 22 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर स्थिर करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है. मूंग की फ़सल खेत में काफ़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ छोड़ती है, जिससे किसानों को अतिरिक्त लाभ मिल जाता है. जायद और रबी के लिए मूंग की अलग-अलग क़िस्में होती हैं. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ जायद के लिए मूंग की दो अच्छी क़िस्में हैं. पहली पूसा-9531. इस क़िस्म का पौधा सीधा बढ़ने वाला छोटा क़द का होता है, दाना मध्यम, चमकीला हरा, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी है. दूसरी क़िस्म है पूसा-105. इस क़िस्म का दाना गहरा हरा, मध्यम आकार का, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी होने के साथ-साथ पावडरी मल्डयू और मायक्रोफोमीना ब्लाईट रोगों के प्रति सहनशील है. मूंग की बुआई करते वक़्त किसान ध्यान रखें कि कतारों के बीच 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर होनी चाहिए. मूंग की फ़सल की बुआई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की ज़रूरत होती है. मूंग की बिजाई के बाद 10 से 15 दिन के अंतराल पर तीन-चार बार सिंचाई करनी चाहिए. पहली नींदाई बुवाई के 20 से 25 दिन के भीतर और दूसरी 40 से 45 दिन में करना चाहिए. दो-तीन बार कोल्पा चलाकर खेत को नींदा रहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. बासालीन 800 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 250 से 300 लीटर पानी में बोनी पूर्व छिड़काव करना चाहिए. उनका यह भी कहना है कि मूंग की फलियां तोड़ने के बाद पौधे को खेत में ही जुतवा दें, जो जिससे ये हरी खाद का काम करेंगे और अगली फ़सल को फ़ायदा होगा.
मक्का ख़रीफ़, रबी और जायद तीनों में उगाई जाने वाली फ़सल है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ मक्का की फ़सल बरसात तक खेत में रहती है. मक्का की बुआई मध्य जून तक की जा सकती है. इसके लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी रहती है. जलजमाव वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है. आधुनिक प्रजातियों की खेती ऊसर को छोड़ हर तरह की मिट्टी हो जाती है. उनका कहना है कि किसान गेहूं की कटाई के बाद खेत में बचे डंठल जलाने की बजाय पांच किलोग्राम प्रति बीघा की दर से यूरिया का छिड़काव करके पानी लगा दें. बाद में दो-तीन जुताई या रोटावेटर से जुताई कर दें, ताकि खेत से खरपतवार ख़त्म हो जाए.
जुताई के पहले खेत में ख़ासकर दीमक प्रभावित क्षेत्र में जंक सल्फ़ेट का इस्तेमाल ज़रूरी है. इसके साथ ही खेत में क्लोरपाइरीफास का पांच किलोग्राम प्रति बीघा बुरकाव या 600 मिली द्रव्य को एक सौ लीटर पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिए. अच्छी फ़सल के लिए उन्नतशील क़िस्म का बीज ज़रूरी है. शंकर क़िस्म के गंगा-11, सरताज, दकन 107 और एचक्यूपीएम-5 का उत्पादन 10-12 क्विंटल प्रति बीघा होता है. यह किस्म एक सौ दस दिनों में पकती है. हालांकि पूसा शंकर मक्का-5 80 से 85 दिनों में पकती है, लेकिन इसका उत्पादन कम है. संकुल क़िस्मों का उत्पादन भी कम होता है. देशी मक्का जौनपुरी 70-75 दिनों में पकती है.
बीज को बोने से पहले किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जीएन 2.5-3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारीत करना चाहिए. एजोस्पाइरिलम या पीएसबी कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करना चाहिए. एक पौधे से दूसरे की दूरी न्यूनतम बीस सेंटीमीटर होनी चाहिए. इससे कम होने पर बीच के पौधे उखाड़ देने चाहिए. बुआई के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का इस्तेमाल करना चाहिए.
गेहूं के बाद कपास की खेती भी किसानों के लिए अच्छा विकल्प है. इसकी अच्छी क़ीमत मिल जाती है, लेकिन यह लंबे समय तक पकने वाली फ़सल है. इसके अलावा किसान आधुनिक खेती और सही प्रबंधन अपनाकर भी अच्छी उपज हासिल कर सकते हैं. किसानों की अगली फ़सल भरपूर हो, इसकी कामना करते हैं.
देश में बारिश और ओलों के क़हर से लाखों हेक्टेयर में लहलाती फ़सलें तबाह हो गईं, जिससे किसानों को बहुत नुक़सान हुआ है. आमदनी तो ख़त्म हुई, साथ ही फ़सल की बुआई के लिए गये क़र्ज़ का ब्याज़ भी दिनोदिन बढ़ रहा है. किसानों के सामने अब यही सवाल है कि रबी फ़सल से हुए नुक़सान की भरपाई कैसे हो?
इस बारे में कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि धान की बुआई से पहले किसान जायद फ़सलों को उगा सकते हैं. वैसे भी जब तक धान की रोपाई होगी, तब तक खेत यूं ही ख़ाली पड़े रहेंगे. मूंग और मक्का बेहतर विकल्प हैं. मूंग फ़सल चक्र के लिए भी बेहतर फ़सल है. फ़सल चक्र अपनाने से उत्पादन के साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति बनी रहती है. धान आधारित क्षेत्रों के लिए धान-गेहूं-मूंग या धान-मूंग-धान, मालवा निमाड़ क्षेत्र के लिए मूंग-गेहूं-मूंग, कपास-मूंग-कपास फ़सल चक्र अपनाया जाता है. मूंग की फ़सल भारत की लोकप्रिय दलहनी फ़सल है और इसकी खेती विभिन्न प्रकार की जलवायु में की जाती है. यह फ़सल सभी प्रकार की भूमि में उगाई जा सकती है. उनका कहना है कि गर्मी में ज़्यादा तापमान होने पर भी मूंग की फ़सल में इसे सहन करने की शक्ति होती है. कम अवधि की फ़सल होने की वजह से यह आसानी से बहु फ़सली प्रणाली में भी ली जा सकती है. उन्नत जातियों और उत्पादन की नई तकनीकी तथा सदस्य पद्धतियों को अपनाकर इसकी पैदावार बढ़ाई जा सकती है. गर्मी में मूंग की खेती से कई फ़ायदे होते हैं. इस मौसम में मूंग पर रोग और कीटों का प्रकोप कम होता है और अन्य फ़सलों के मुक़ाबले सिंचाई की ज़रूरत भी कम होती है. कृषि विशेषज्ञों का कहना है कि दलहनी फ़सल होने के कारण यह तक़रीबन 20 से 22 किलोग्राम नाइट्रोजन प्रति हैक्टेयर स्थिर करके मिट्टी की उर्वरा शक्ति को बढ़ाती है. मूंग की फ़सल खेत में काफ़ी मात्रा में कार्बनिक पदार्थ छोड़ती है, जिससे किसानों को अतिरिक्त लाभ मिल जाता है. जायद और रबी के लिए मूंग की अलग-अलग क़िस्में होती हैं. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ जायद के लिए मूंग की दो अच्छी क़िस्में हैं. पहली पूसा-9531. इस क़िस्म का पौधा सीधा बढ़ने वाला छोटा क़द का होता है, दाना मध्यम, चमकीला हरा, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी है. दूसरी क़िस्म है पूसा-105. इस क़िस्म का दाना गहरा हरा, मध्यम आकार का, पीला मोजेक वायरस प्रतरोधी होने के साथ-साथ पावडरी मल्डयू और मायक्रोफोमीना ब्लाईट रोगों के प्रति सहनशील है. मूंग की बुआई करते वक़्त किसान ध्यान रखें कि कतारों के बीच 30 सेंटीमीटर और पौधे से पौधे की दूरी 10 से 15 सेंटीमीटर होनी चाहिए. मूंग की फ़सल की बुआई के लिए 25 से 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की ज़रूरत होती है. मूंग की बिजाई के बाद 10 से 15 दिन के अंतराल पर तीन-चार बार सिंचाई करनी चाहिए. पहली नींदाई बुवाई के 20 से 25 दिन के भीतर और दूसरी 40 से 45 दिन में करना चाहिए. दो-तीन बार कोल्पा चलाकर खेत को नींदा रहित रखा जा सकता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए नींदा नाशक दवाओं जैसे बासालीन या पेंडामेथलीन का इस्तेमाल भी किया जा सकता है. बासालीन 800 मिलीलीटर प्रति एकड़ के हिसाब से 250 से 300 लीटर पानी में बोनी पूर्व छिड़काव करना चाहिए. उनका यह भी कहना है कि मूंग की फलियां तोड़ने के बाद पौधे को खेत में ही जुतवा दें, जो जिससे ये हरी खाद का काम करेंगे और अगली फ़सल को फ़ायदा होगा.
मक्का ख़रीफ़, रबी और जायद तीनों में उगाई जाने वाली फ़सल है. कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक़ मक्का की फ़सल बरसात तक खेत में रहती है. मक्का की बुआई मध्य जून तक की जा सकती है. इसके लिए बलुई दोमट मिट्टी सबसे अच्छी रहती है. जलजमाव वाले क्षेत्रों में भी इसकी खेती की जा सकती है. आधुनिक प्रजातियों की खेती ऊसर को छोड़ हर तरह की मिट्टी हो जाती है. उनका कहना है कि किसान गेहूं की कटाई के बाद खेत में बचे डंठल जलाने की बजाय पांच किलोग्राम प्रति बीघा की दर से यूरिया का छिड़काव करके पानी लगा दें. बाद में दो-तीन जुताई या रोटावेटर से जुताई कर दें, ताकि खेत से खरपतवार ख़त्म हो जाए.
जुताई के पहले खेत में ख़ासकर दीमक प्रभावित क्षेत्र में जंक सल्फ़ेट का इस्तेमाल ज़रूरी है. इसके साथ ही खेत में क्लोरपाइरीफास का पांच किलोग्राम प्रति बीघा बुरकाव या 600 मिली द्रव्य को एक सौ लीटर पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिए. अच्छी फ़सल के लिए उन्नतशील क़िस्म का बीज ज़रूरी है. शंकर क़िस्म के गंगा-11, सरताज, दकन 107 और एचक्यूपीएम-5 का उत्पादन 10-12 क्विंटल प्रति बीघा होता है. यह किस्म एक सौ दस दिनों में पकती है. हालांकि पूसा शंकर मक्का-5 80 से 85 दिनों में पकती है, लेकिन इसका उत्पादन कम है. संकुल क़िस्मों का उत्पादन भी कम होता है. देशी मक्का जौनपुरी 70-75 दिनों में पकती है.
बीज को बोने से पहले किसी फंफूदनाशक दवा जैसे थायरम या एग्रोसेन जीएन 2.5-3 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारीत करना चाहिए. एजोस्पाइरिलम या पीएसबी कल्चर 5-10 ग्राम प्रति किलो बीज का उपचार करना चाहिए. एक पौधे से दूसरे की दूरी न्यूनतम बीस सेंटीमीटर होनी चाहिए. इससे कम होने पर बीच के पौधे उखाड़ देने चाहिए. बुआई के 15-20 दिन बाद डोरा चलाकर निंदाई-गुड़ाई करनी चाहिए या रासायनिक निंदानाशक मे एट्राजीन नामक निंदानाशक का इस्तेमाल करना चाहिए.
गेहूं के बाद कपास की खेती भी किसानों के लिए अच्छा विकल्प है. इसकी अच्छी क़ीमत मिल जाती है, लेकिन यह लंबे समय तक पकने वाली फ़सल है. इसके अलावा किसान आधुनिक खेती और सही प्रबंधन अपनाकर भी अच्छी उपज हासिल कर सकते हैं. किसानों की अगली फ़सल भरपूर हो, इसकी कामना करते हैं.