किसान अब देश की पुरानी परंपरागत जैविक खेती की तरफ़ लौट रहे हैं. दरअसल, रसायनिक खेती की बढ़ती लागत को देखते हुए किसान जैविक खेती को तरजीह देने लगे हैं. सरकार भी जैविक खेती को प्रोत्साहित करने की क़वायद में जुटी है. भारत सहित कई अन्य देशों में किसान जैविक खेती को अपना रहे हैं. एक अनुमान के मुताबिक़ दुनिया भर में साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर कृषि भूमि पर क़रीब 14 लाख उत्पादक जैविक खेती कर रहे हैं. कृषि भूमि के क़रीब दो-तिहाई हिस्से में घास है, जबकि फ़सल वाला क्षेत्र 82 लाख हेक्टेयर है, जो कुल जैविक कृषि भूमि का एक चौथाई है. एशिया, लैटिन अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया जैविक खाद्यान्नों के महत्वपूर्ण उत्पादक और निर्यातक देश हैं.
भारत में जैविक खेती योग्य क्षेत्र पिछले एक दशक में तक़रीबन 17 गुना बढ़ गया है. यह क्षेत्र साल 2003-04 में 42 हज़ार हेक्टेयर था, जो साल 2013-14 में बढ़कर 7.23 लाख हेक्टेयर हो गया. केन्द्र सरकार ने साल 2001 में जैविक उत्पादन के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम (एनपीओपी) लागू किया. इस राष्ट्रीय कार्यक्रम में प्रमाणन एजेंसियों के लिए मान्यता कार्यक्रम, जैव उत्पादन के मानक, जैविक खेती को बढ़ावा देना इत्यादि शामिल हैं. कई राज्य जैसे उत्तराखंड, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, केरल, नागालैंड, मिज़ोरम और सिक्किम जैविक खेती को बढ़ावा देते रहे हैं. साल 2013-14 के दौरान जैविक प्रमाणन के तहत राज्यवार कृषि क्षेत्र से मिले आंकड़ों के मुताबिक़ देश में 723039 हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है. अंडमान व निकोबार द्वीपसमूह में 321.28 हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती की जा रही है. इसी तरह आंध्र प्रदेश में 12325.03 हेक्टेयर, अरुणाचल प्रदेश में 71.49, असम में 2828.26, बिहार में 180.60, छत्तीसगढ़ में 4113.25, दिल्ली में 0.83, गोवा में 12853.94, गुजरात में 46863.89, हरियाणा में 3835.78, हिमाचल प्रदेश में 4686.05, जम्मू-कश्मीर में 10035.38, झारखंड में 762.30, कर्नाटक में 30716.21, केरल में 15020.23, लक्षद्वीप में 895.91, मध्य प्रदेश में 232887.36, महाराष्ट्र में 85536.66, मेघालय में 373.13, नागालैंड में 5168.16, ओडिशा में 49813.51, पुडुचेरी में 2.84, पंजाब में 1534.39, राजस्थान में 66020.35, सिक्किम में 60843.51, तमिलनाडु में 3640.07, त्रिपुरा में 203.56, उत्तर प्रदेश में 4670.10, उत्तराखंड में 24739.46 और पश्चिम बंगाल में 2095.51 हेक्टेयर क्षेत्र में जैविक खेती हो रही है.
कृषि राज्यमंत्री मोहनभाई कुंदारिया का कहना है कि सरकार राष्ट्रीय सतत खेती मिशन (एनएमएसए) / परम्परागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई), राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई), एकीकृत बागवानी विकास मिशन (एमआईडीएच), राष्ट्रीय तिलहन एवं ऑयल पाम पर राष्ट्रीय मिशन (एनएमओओपी), आईसीएआर की जैविक खेती पर नेटवर्क परियोजना के तहत विभिन्न योजनाओं/कार्यक्रमों के ज़रिये जैविक खेती को बढ़ावा दे रही है. इसके अलावा सरकार जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से एक क्लस्टर आधारित कार्यक्रम क्रियान्वित कर रही है, जिसका नाम परंपरागत कृषि विकास योजना (पीकेवीवाई) है. किसानों के समूहों को परंपरागत कृषि विकास योजना के तहत जैविक खेती शुरू करने के लिए प्रेरित किया जाएगा. इस योजना के तहत जैविक खेती का काम शुरू करने के लिए 50 या उससे ज़्यादा ऐसे किसान एक क्लस्टर बनाएंगे, जिनके पास 50 एकड़ भूमि है. इस तरह तीन वर्षों के दौरान जैविक खेती के तहत 10 हज़ार क्लस्टर बनाए जाएंगे, जो पांच लाख एकड़ के क्षेत्र को कवर करेंगे. फ़सलों की पैदावार के लिए बीज ख़रीदने और उपज को बाज़ार में पहुंचाने के लिए हर किसान को तीन वर्षों में प्रति एकड़ 20 हज़ार रुपये दिए जाएंगे.
ग़ौरतलब है कि जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए नाबार्ड योजना चला रही है. इसके तहत वाणिज्यिक जैव खाद उत्पादन इकाई की स्थापना के लिए 20 लाख रुपये तक की राशि 25 फ़ीसद सब्सिडी पर दी जाती है. इसके अलावा वर्मी कल्चर हैचरी यूनिट के लिए डेढ़ लाख रुपये और ख़राब हुए फल-सब्ज़ियों व कूड़े-कर्कट से खाद बनाने की इकाई के लिए 40 लाख रुपये तक का क़र्ज़ विभिन्न बैंकों के ज़रिये दिया जाता है. इस पर भी 25 फ़ीसद सब्सिडी है. सरकारी स्तर पर समय-समय पर प्रशिक्षण शिविर लगाकर किसानों को जैविक खेती के बारे में ज़रूरी जानकारी दी जाती है. पिछ्ले दिनों किसानों को जैविक खेती के गुर सिखाने के लिए हरियाणा के रोहतक में राज्य स्तरीय प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया गया. इसमें प्रदेशभर से तक़रीबन 100 किसान शामिल हुए. शिविर में जहां एक तरफ़ मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के देसी तरीक़ों के बारे में जानकारी दी गई, वहीं बीज पड़ताल, उपचार, कीट और खरपतवार नियंत्रण आदि मुद्दों पर चर्चा हुई. जैविक खेती कर रहे किसानों ने अन्य किसानों के साथ अपने अनुभव भी साझा किए. क़ुदरती खेती अभियान हरियाणा के सलाहकार राजेंद्र चौधरी ने बताया कि जैविक उत्पाद और रासायनिक उत्पाद की गुणवत्ता में अंतर होता है. सही तरीक़े से तैयार गोबर की खाद प्रचलित कुरडी की खाद से हल्की होती है. किसान के लिए इससे आसान और सस्ता उत्पादन बढ़ाने का कोई और तरीक़ा नहीं हो सकता है. बशर्ते किसान गोबर की खाद बनाने के अपने तरीक़े में सुधार करें.
जैविक खेती अपनाने वाले हरियाणा के हिसार ज़िले के राजेश, कृष्ण कुमार व अन्य किसानों का कहना है कि कीटनाशकों और रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से जहां कृषि भूमि के बंजर होने का ख़तरा पैदा हो गया है, वहीं कृषि उत्पाद भी ज़हरीले हो रहे हैं. अनाज ही नहीं, दलहन, फल और सब्ज़ियों में भी रसायनों के विषैले तत्व पाए गए हैं, जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकारक हैं. जैविक खेती के ज़रिये पैदा हुआ अनाज सेहत के लिए बेहद फ़ायदेमंद है. इसका बाज़ार भाव भी अन्य खाद्यान्न के मुक़ाबले ज़्यादा है. मसलन, जैविक खेती के माध्यम से उगाया गया गेहूं सामान्य गेहूं से 500 से 600 रुपये प्रति क्विंटल ज़्यादा क़ीमत पर बिकता है और इसकी मांग दिनोदिन बढ़ रही है.
किसानों का कहना है कि जब उन्होंने रासायनिक उर्वरकों की खेती छोड़कर जैविक खेती अपनाने का फ़ैसला किया, तो उनके साथियों ने इसे घाटे का सौदा क़रार दिया. उनका कहना था कि इससे जैविक खेती से उत्पादन पर असर पड़ेगा और उन्हें मज़दूरी तक नहीं मिल पाएगी. मगर उन्होंने हार नहीं मानी. नतीजतन, आज वे जैविक खेती कर पहले से कहीं ज़्यादा आमदनी हासिल कर रहे हैं. उनसे प्रभावित होकर अन्य किसान भी इसे अपनाकर एक नई क्रांति का अहम हिस्सा बनने को आतुर हैं. यह सस्ती और सुलभ होने की वजह से लोकप्रिय बन गई है. किसानों का कहना है कि उनकी लागत में बहुत कमी आई है, जिससे उनका मुनाफ़ा बढ़ गया है. जैविक खाद की वजह से खेत की मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार आया है. इसके अलावा कम अंतराल पर सिंचाई नहीं करनी पड़ती है.
जैविक खेती कर रहे हरियाणा के गुड़गांव ज़िले के फ़र्रूख़नगर के निवासी राव मानसिंह कहते हैं कि परंपरागत जैविक खेती सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्तम है. जब उन्होंने इसे अपनाया, तो उन्हें काफ़ी परेशानी का सामना करना पड़ा. मसलन जैविक खाद और वर्मीवाश कैसे तैयार की जाए और इनका इस्तेमाल किस प्रकार किया जाए. मगर कृषि विभाग के अधिकारियों ने उनकी हरसंभव मदद की, जिसकी वजह से आज वे खेती के लिए रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों पर निर्भर न होकर स्वयं जैविक खाद और कीटनाशक तैयार कर रहे हैं. वे कहते हैं कि बढ़ती आबादी और घटती कृषि भूमि के कारण किसान खेती की पैदावार बढ़ाने के लिए आज अनेक प्रकार के रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल कर रहे हैं. फ़सल को कीट पतंगों से नुक़सान न पहुंचे, इसके लिए भी कीटनाशक छिड़के जाते हैं. इसके अलावा फ़सलों को हानि पहुंचाने वाले बैक्टीरिया और फफूंद को नष्ट करने के लिए बैक्टीरिया नाशक और फफूंद नाशक रसायनों का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है. इसी तरह खरपतवार से फ़सल को बचाने के लिए खरपतवार नाशक रसायनों का छिड़काव किया जाता है. इसमें कोई शक नहीं कि इनके इस्तेमाल से पैदावार बढ़ती है, लेकिन यह भी कड़वी सच्चाई है कि फ़ौरी तौर पर लाभ देने वाले इन रसायनों के दूरगामी नतीजे कृषि के लिए बेहद घातक सिद्ध होते हैं. इन महंगे रसायनों से जहां कृषि लागत बढ़ी है, वहीं इनके लगातार इस्तेमाल से मिट्टी की उपजाऊ शक्ति ख़त्म होती जाती है और एक दिन सोना उगलने वाली उपजाऊ धरती बंजर भूमि में बदल जाती है. इतना ही नहीं इन रसायनों से फ़सलों के मित्र कीट भी मर जाते हैं. अत्यधिक विषैले रसायनों का काफ़ी अंश फ़सल में भी मौजूद रहता है, जो मानव शरीर के लिए बेहद नुक़सानदेह है. इन रसायनों का खेतों में छिड़काव करने में ज़रा भी असावधानी बरती गई, तो किसान अकाल मौत का ग्रास बन जाता है. अख़बारों में ऐसी कितनी ही ख़बरें प्रकाशित होती रहती हैं कि फ़सल पर कीटनाशक का छिड़काव करते समय अमुक व्यक्ति बेहोश हो गया या उसकी मौत हो गई. इस लिहाज़ से भी जैविक खेती पूरी तरह सुरक्षित है.
चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि रसायनों के अंधाधुंध इस्तेमाल से मिट्टी में आवश्यक तत्वों की कमी हो जाती है. मिट्टी के ज़हरीला होने से सर्वाधिक असर केंचुओं की तादाद पर पड़ता है. इससे भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है और फ़सलों की उत्पादकता भी प्रभावित होती है. साथ ही मिट्टी में कीटनाशकों के अवशेषों की मौजूदगी का असर जैविक प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है. उन्होंने बताया कि यूरिया खाद को पौधे सीधे तौर पर अवशोषित कर सकते हैं. इसके लिए यूरिया को नाइट्रेट में बदलने का कार्य विशेष प्रकार के बैक्टीरिया द्वारा किया जाता है. अगर भूमि ज़हरीली हो गई, तो बैक्टीरिया की तादाद पर प्रभावित होगी. जैविक खेती से भूमि की उपजाऊ शक्ति बरकरार रहती है.
केंद्र सरकार हर साल क़रीब 40 हज़ार करोड़ रुपये उर्वरकों की सब्सिडी पर ख़र्च करती है. अगर सरकार जैविक खेती के प्रोत्साहन की योजनाओं को बढ़ावा दे, तो जहां उर्वरकों की सब्सिडी पर ख़र्च होने वाली राशि में कमी आएगी, वहीं अंधाधुंध रसायनों के इस्तेमाल से भूमि की उर्वरा शक्ति को होने वाले नुक़सान को भी कम किया जा सकेगा. बेशक, जैविक खेती मौजूदा दौर की ज़रूरत है.