डाॅ. कृष्णगोपाल मिश्र
लोकतंत्र में प्रयुक्त ‘लोक‘ शब्द अपने अपार विस्तार में समस्त संकीर्णताओं से मुक्त है । ‘लोक’ जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र-वर्ग आदि समूह की संयुक्त समावेशी इकाई है, जिसमें सहअस्तित्व का उदार भाव सक्रिय रहकर ‘लोक‘ को आधार देता है। ‘लोक‘ में सबके प्रति सबकी सहानुभूति का होना आवश्यक है। इसी से ‘लोक‘ एक इकाई के रूप में संगठित होकर अपनी जीवन-शक्ति अर्जित करता है। ‘जिओ और जीने दो‘ का उदार विचार लोक-संग्रह का मार्गदर्शी सिद्धांत है और इस सिद्धांत पर आधारित ‘लोक‘ में न्याय , समानता और शांति की प्रतिष्ठा के लिए ‘लोक‘ ने स्वशासित ‘तंत्र‘ के रूप में लोकतंत्र को समस्त शासन तंत्रों में श्रेष्ठ मान्य किया है।

स्वतंत्रता-प्राप्ति के साथ भारत ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्वीकार किया। हमारे संविधान के प्रारंभ में प्रस्तुत पंक्ति ‘हम भारत के लोग......‘ हमारी समावेशी प्रकृति की साक्षी है। इस ‘हम‘ में ‘सर्व’ का भाव है- किसी वर्ग, वर्ण, संप्रदाय, समूह, आदि का नहीं। यह ‘हम‘ शब्द ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः‘ की ओर इंगित करता है । इस ‘हम‘ में समस्त भारतवासियों के कल्याण और उत्थान की उदार भावना समाहित है। ‘सबका साथ, सबका विकास‘ इसका संकल्प है और इसी संकल्प की संपूर्ति में हमारी स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता की सार्थकता है।  समसामयिक संदर्भ में इस सत्य को ईमानदारी से स्वीकार करने की आवश्यकता है- ‘लोक‘ (जनसामान्य) को भी और ‘तंत्र‘ (नेतृत्व़-प्रशासन) को भी।

यह विचारणीय है कि सैद्धांतिक स्तर पर देश की एकता और अखंडता के प्रति प्रतिबद्धता का संकल्प निरंतर दोहराने और सामाजिक-न्याय, समानता एवं समरसता के लोक लुभावन नारे उछालने वाले हमारे ‘तंत्र’ ने व्यावहारिक धरातल पर सत्ता पर अबाध अधिकार पाने की दुराशा में वोट बैंक बनाने के लिए ‘लोक‘ को अनेक समूहों में बांटने की जो कूट रचनाएं रचीं उनके कारण आज हमारा लोकतंत्र भयावह समस्याओं से ग्रस्त है । भड़काऊ भाषण, समस्त ‘लोक‘ के स्थान पर ‘समूह विशेष’ के हितसाधन का प्रयत्न, उग्र-हिंसक आंदोलन और आंकड़ों के गणित में उलझी कथित राजनीति ने जनजीवन को असंतोष, अशांति असुरक्षा और भय से भर दिया है। ‘लोक‘ की निरंकुशता और ‘तंत्र‘ की तानाशाही स्वतंत्रता का पथ कंटकाकीर्ण कर रही है। एक ओर ‘लोक‘ तथाकथित आंदोलनों के बहाने हिंसा पर उतारू है, वाहन फूंके जा रहे हैं, निर्दोषों की हत्या हो रही है, सडकों पर दूध बहाया जा रहा है, सब्जियां फेंकी जा रही हैं, सार्वजनिक जीवन अशांत किया जा रहा है-- अर्थात वह सब हो रहा है जो लोकतंत्र में ‘लोक‘ (जनता) को नहीं करना चाहिए। दूसरी ओर ‘तंत्र’ कहीं उग्र आन्दोलनकारियों पर लाठियां-गोलियां बरसाता नजर आता है तो कभी उनकी उचित-अनुचित मांगों को स्वीकार करता, मुआवजा बाँटता और घुटने टेकता दिखाई देता है। दोनों ही स्थितियाँ लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं ।

हमारी वर्तमान उपर्युक्त स्थिति के लिए तंत्र की सत्ता लोलुपता, सत्ता पाने के लिए समूह अथवा वर्ग विशेष के तुष्टीकरण की प्रवृत्ति तथा जाति-धर्म आधारित वोट बैंक की दूषित राजनीति उत्तरदायी है।
लोकतंत्र में सत्ता जनता की सेवा का माध्यम है, विलासितापूर्ण सामंती दुरभिलाषाओं की पूर्ति का नहीं। सेवा के पथ पर संघर्ष नहीं होता किंतु अधिकाधिक सुख-सुविधा संचय की चाहत, जनता की गाढ़ी कमाई के बल पर व्यक्तिगत विलासिताएँ जुटाने की इच्छा राजनीतिक दलांे के मध्य गलाकाट स्पर्धा पैदा करती है। दुर्भाग्य से हमारा लोकतंत्र इसी दिशा में अग्रसर है। सत्ता के रथ को विलासिता के पंकिल-पथ से विरत कर सेवा और त्याग के पथ पर अग्रसर करना आज प्राथमिकता बन गई है।

आज सार्वजनिक राजनीतिक जीवन में वाक्संयम अत्यावश्यक हो गया है क्योंकि बड़े पदों पर बैठे लोगों द्वारा कही गई बातें जनसाधारण के क्रिया-पथ का विनिश्चय करती हैं । हमारे नेतृत्व में वाकसंयम का अभाव हमारे समाज पर दुष्प्रभाव डाल रहा है।  कदाचित भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता प्राप्ति के तत्काल पश्चात से ही यह दोष से व्याप्त हो गया था। इसीलिए प्रख्यात कवि पंडित श्यामनारायण पांडेय ने सन 1956 में प्रकाशित ‘शिवाजी‘ महाकाव्य में चेतावनी दी थी-
उन्मत्त भाषण खोर नेता
देश को बहका न दें ।
अनुरक्त अनुशासित प्रजा की
जिन्दगी दहका न दें ।।

लगभग साठ वर्ष पूर्व महाकवि ने हमें जो चेतावनी दी थी उसके प्रति असावधानी दर्शाने का दुष्परिणाम आज हमारे सामने है। वर्तमान सामाजिक राजनीतिक स्थितियाँ इस तथ्य की साक्षी हैं।

दुर्भाग्य से आज ‘लोक’ विभिन्न राजनीतिक दलों में बँटा हुआ है। प्रत्येक साधारण नागरिक प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से विचार के स्तर पर किसी ना किसी दल के निकट है और उसी के नेता की बात पर पूरी तरह विश्वास करता है-- चाहे वह बात सही हो अथवा नहीं। यह स्थिति चिंताजनक है। अपनी पसंद के नेता पर विश्वास करना सहज स्वाभाविक है किंतु उसके गलत निर्णयों का भी आंख मूंदकर समर्थन करना लोकतंत्र के हित में नहीं है। इसे किसी भी स्थिति में उचित नहीं कहा जा सकता।

सामान्यतः ‘लोक‘ अपने ‘तंत्र’ द्वारा निर्देशित पथ पर आगे बढ़ता है किंतु वर्तमान प्रतिकूल परिस्थितियों में ‘लोक‘ को आगे बढ़कर ‘तंत्र’ का मार्गदर्शन करने की आवश्यकता है। वोटों के चुनावी गणित में उलझी तुष्टीकरण की आत्मघाती राजनीति करने वालों के कारण ‘तंत्र’ अपने ‘लोक‘ को सही दिशा नहीं दे पा रहा है। अतः ‘लोक‘ को ‘अप्प दीपो भव‘ के सिद्धांत पर अपने कल्याण का पथ स्वयं निर्मित करना होगा। दलीय दल-दल में धंसे समूहों के हित की राजनीति करने वालों को सही दिशा दिखानी होगी और यह तब संभव होगा जब ‘लोक‘ समूह विशेष के हित-साधन की संकीर्ण मानसिकता से उबरकर, निजी स्वार्थों की बलि देकर संपूर्ण समाज के लिए समर्पित सेवाभाव से कार्य करने वाले समाजसेवियों को तंत्र में प्रतिष्ठित करे , अपराधिक पृष्ठभूमि वाले बाहुबलियों को तंत्र में प्रवेश न करने दे। ‘लोक‘ की ऐसी सक्रियता से ही ‘तंत्र’ में सुधार संभव होगा और हमारा लोकतंत्र अपनी विकास-यात्रा सतत जारी रख सकेगा।   

लोकतंत्र को भीड-तंत्र में बदलना खतरनाक खेल है। रैलियों, सभाओं, यात्राओं के रूप में ‘तंत्र‘ खुलेआम यह खेल खेलता रहा है। शक्ति-प्रदर्शन की इस होड़ में शक्ति, समय और धन का दुरुपयोग तो होता ही ह,ै साथ ही जनजीवन भी यातायात आदि व्यवस्थाओं के बाधित होने से असुविधा अनुभव करता है। यही भीड़ उग्र और हिंसक होकर राष्ट्रीय-संपत्ति को भी क्षति पहुंचाती है। अप्रिय घटनाएं घटती हैं। आज जब शासन को जनता तक और जनता को शासन तक अपनी बात पहुंचाने के लिए दूरदर्शन, समाचार-पत्र, ईमेल, सोशल-मीडिया जैसे अनेक प्रभावशाली संसाधन उपलब्ध हैं तब ऐसे भीड़ भरे प्रदर्शनों-सभाओं का क्या औचित्य है ? लोकहित में राष्ट्रीय-संपत्ति की सुरक्षा के लिए ‘लोक‘ और ‘तंत्र‘ दोनों को भीड़ जुटाने से बचने की आवश्यकता है।

लोकतंत्र में प्रत्येक नागरिक की भूमिका एक जागरूक प्रहरी की होती है। ‘लोक‘ की जागरूकता से ‘तंत्र‘ गलत निर्णय नहीं ले सकता, वह अपनी मनमानी नहीं कर सकता और जागरूक ‘तंत्र‘ लोक-कल्याण में बाधक आपराधिक तत्वों को नहीं पनपने देता। इस प्रकार लोकतंत्र की सफलता ‘लोक‘ और ‘तंत्र‘ दोनों की जागरूकता पर निर्भर करती है। विडम्बना यह है कि आज हम अपने सामूहिक स्वार्थों के प्रति जागरूकता प्रकट करते हैं, लोकहित के प्रति नहीं। यदि हम विभाजित मानसिकता को त्यागकर राष्ट्रीय-चेतना के एक सूत्र में बंध कर सारे समाज के हित-साधनों के लिए जागरूक हों, आपसी वैमनस्य भूलें, विगत घटनाओं की कटुता त्यागकर पारस्परिक सहयोग का संकल्प लें तो हमारा लोकतंत्र अधिक सशक्त और सार्थक बनेगा। यह स्मरणीय है कि हमारे लोकतंत्र की जीवनशक्ति विभिन्न समूहों के मध्य समन्वय में है ,संघर्ष में नहीं।
(लेखक शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय होशंगाबाद मध्य प्रदेश में हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं)


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