रेहान फ़ज़ल
7 सितंबर, 1960 जो जब इंदिरा गांधी त्रिवेंद्रम से दिल्ली के पालम हवाई अड्डे पर पहुंचीं, तो उनको पता चला कि फ़िरोज़ गांधी को एक और दिल का दौरा पड़ा है. वो हवाई अड्डे से सीधे वेलिंगटन अस्पताल पहुंची जहाँ फ़िरोज़ गांधी का इलाज चल रहा था.
वहाँ उनकी सहायक ऊषा भगत पहले से ही मौजूद थीं. ऊषा ने इंदिरा गांधी को बताया कि पूरी रात फ़िरोज़ कभी होश में आते थे तो कभी बेहोशी में चले जाते थे. जब उन्हें होश आता था तो वो यही पूछते थे, 'इंदु कहाँ है?'
एक सप्ताह पहले फ़िरोज़ के सीने में दर्द होना शुरू हुआ था. 7 सितंबर की शाम को उन्होंने अपने डॉक्टर और दोस्त, डॉक्टर एच एस खोसला को अपनी हालत बताने के लिए फ़ोन किया था. उन्होंने उन्हें तुरंत अस्पताल आने की सलाह दी थी.
फ़िरोज़ खुद अपनी कार चला कर अस्पताल पहुंचे थे और डॉक्टर खोसला अभी उन्हें देख ही रहे थे कि वो बेहोश हो गए थे. अंतिम समय इंदिरा फ़िरोज़ की बग़ल में मौजूद थीं.
8 सितंबर की सुबह उन्होंने कुछ देर के लिए अपनी आँख खोली थी. इंदिरा उनके बगल में बैठी हुई थीं. वो पूरी रात न तो सोईं थीं और न ही उन्होंने कुछ खाना खाया था. फ़िरोज़ ने इसरार किया कि वो थोड़ा नाश्ता तो कर लें, लेकिन इंदिरा गांधी ने मना कर दिया. फ़िरोज़ फिर बेहोश हो गए. सुबह 7 बज कर 45 मिनट पर उन्होंने आख़िरी सांस ली.
अगर वो चार दिन तक और जीवित रहे होते तो उन्होंने अपना 48 वाँ जन्मदिन मनाया होता. इंदिरा फ़िरोज़ के पार्थिव शरीर के साथ वेलिंगटन अस्पताल से तीन मूर्ति भवन पहुंचीं. इंदिरा की जीवनीकार कैथरीन फ़्रैंक अपनी किताब इंदिरा में लिखती हैं, 'इंदिरा ने ज़ोर दिया कि वो खुद फ़िरोज़ के शव को नहला कर अंतिम संस्कार के लिए तैयार करेंगीं. उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि इस दौरान वहाँ कोई मौजूद नहीं रहेगा.

नेहरू को गहरा सदमा
उन्होंने तीन मूर्ति भवन की निचली मंज़िल से सारे फ़र्नीचर हटवा दिए और कालीनों पर सफ़ेद चादरें बिछा दी गईं. इसके बाद फ़िरोज़ को श्रद्धांजलि देने के लिए लोगों की भीड़ वहाँ पहुंचनी शुरू हो गई.'
संजय और राजीव गांधी पालथी मार कर सफ़ेद चादर पर बैठे हुए थे. नयनतारा सहगल बताती हैं कि नेहरू अपने कमरे में अकेले बैठे हुए थे और बार बार यही कह रहे थे कि उन्हें इस बात की ज़रा भी उम्मीद नहीं थी कि फ़िरोज़ इतनी जल्दी चले जाएंगे.
मेरी सेटॉन जो उस समय नेहरू की मेहमान थीं और तीन मूर्ति भवन में रह रही थीं, नेहरू पर लिखी अपनी किताब में लिखती हैं, 'नेहरू का चेहरा पीला पड़ा हुआ था. वो और संजय एक साथ उस कमरे में आए थे जहाँ फ़िरोज़ का शव लोगों के अंतिम दर्शन के लिए रखा गया था.
उस समय वहाँ सभी धर्मग्रंथों का पाठ किया जा रहा था.' बर्टिल फ़ाक अपनी किताब फ़िरोज़ - द फॉरगॉटेन गांधी में लिखते हैं, वहाँ मौजूद भीड़ को देख कर नेहरू के मुंह से निकला था, मुझे पता नहीं था कि फ़िरोज़ लोगों के बीच इतने लोकप्रिय हैं!
ऊपरी तोर से इंदिरा नियंत्रण में दिखाई देने की कोशिश कर रही थीं, लेकिन अंदर से वो बुरी तरह से हिली हुई थी और उनकी आँखों से दुख टपका पड़ रहा था.
राजीव ने दी मुखाग्नि
अगले दिन यानि 9 सितंबर को तिरंगे में लिपटे फ़िरोज़ के पार्थिव शरीर के साथ इंदिरा, राजीव, संजय और फ़िरोज़ गांधी की बहन तहमीना एक ट्रक पर सवार हुईं. ट्रक धीमी रफ़्तार से निगमबोध घाट की तरफ़ बढ़ा. सड़क के दोनों ओर हज़ारों लोग फ़िरोज़ गाँधी को अंतिम विदाई देने के लिए मौजूद थे.
16 साल के राजीव गांधी ने फ़िरोज़ की चिता को आग लगाई. उनका अंतिम संस्कार हिंदू रीतिरिवाजों से किया गया.
जब फ़िरोज़ को पहली बार दिल का दौरा पड़ा था तभी उन्होंने अपने दोस्तों से कह दिया था कि वो हिंदू तरीकों से अपनी अंतयेष्टि करवाना पसंद करेंगे, क्योंकि उन्हें अंतिम संस्कार का पारसी तरीका पसंद नहीं था जिसमें शव को चीलों के लिए खाने के लिए छोड़ दिया जाता है.
लेकिन कैथरीन फ़्रैंक लिखती हैं कि इंदिरा ने ये सुनिश्चित किया था कि उनके पार्थिव शरीर को दाह संस्कार के लिए ले जाने से पहले कुछ पारसी रस्मों का भी पालन किया जाए.

संगम में प्रवाहित की गई अस्थियाँ
बर्टिल फ़ॉक अपनी किताब 'फ़िरोज़- फॉरगॉटेन गांधी' में लिखते हैं, 'जब फ़िरोज़ के शव के सामने पारसी रीति से 'गेह-सारनू' पढ़ा गया तो कमरे से इंदिरा और उनके दोनों बेटों के अलावा सब को हटा दिया गया. फ़िरोज़ के शव के मुंह पर एक कपड़े का टुकड़ा रख कर 'अहनावेति' का पूरा पहला अध्याय पढ़ा गया.'
दो दिन बाद फ़िरोज़ गांधी के अस्थि कलश को एक ट्रेन से इलाहाबाद ले जाया गया था, जहाँ उसका एक भाग संगम में प्रवाहित कर दिया गया और बचे हुए भाग को इलाहाबाद की पारसी क़ब्रगाह में दफ़ना दिया गया.
फ़िरोज़ गांधी के दोस्त आनंद मोहन के अनुसार उनकी अस्थियों के कुछ हिस्से को सूरत में फ़िरोज़ गांधी की पुश्तैनी कब्रगाह में भी दफ़नाया गया. संगम में उनकी अस्थियों को प्रवाहित किए जाते समय जवाहरलाल नेहरू भी वहाँ मौजूद थे.
पी डी टंडन अपनी किताब, 'नेहरू यू डोन्ट नो' में लिखते हैं, 'उस समय नेहरू शून्य में तक रहे थे. कुछ देर के लिए वो झुके और उन्होंने अपने माथे को अपनी हथेली से ढ़क लिया. हमें लगा कि शायद उनकी आँखें भर आई हैं, लेकिन जब उन्होंने अपने माथे से अपनी हथेली हटाई तो उनकी आँखें सूखी थीं.'
जिस दिन उनकी अस्थियों के संगम में प्रवाहित किया गया, सीएवी कॉलेज, में जहाँ फ़िरोज़ गांधी ने पढ़ाई की थी, शोक सभा के बाद एक दिन की छुट्टी कर दी गई.

'आई डिडन्ट लाइक फ़िरोज़ बट आई लव्ड हिम'
फ़िरोज़ के अंतिम संस्कार में इंदिरा ने सफ़ेद साड़ी पहनी थी, जैसा कि आमतौर से हिंदू विधवाएं पहनती हैं. भारत में सफ़ेद रंग को शोक का रंग माना जाता है. लेकिन फ़िरोज़ के देहावसान के कई सालों बाद तक इंदिरा सफ़ेद रंग के कपड़े पहनती रहीं. इसलिए नहीं कि ऐसा विधवा महिलाएं करती हैं, बल्कि इसलिए कि उनके शब्दों में, 'जब फ़िरोज़ ऊपर गए, तो मेरी ज़िंदगी में सारे रंग भी मेरा साथ छोड़ गए.'
बाद में इंदिरा गांधी ने डॉम मोरेस को दिए गए इंटरव्यू में कहा, 'जिस मौत ने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वो मेरे पति फ़िरोज़ की मौत थी. मैंने अपनी आँखों से अपने दादा, माता और पिता को मरते देखा, लेकिन फ़िरोज़ की मौत इतनी अचानक हुई कि उसने मुझे बुरी तरह से हिला दिया.'
बाद में इंदिरा ने एक और जगह लिखा, 'मैं शायद फ़िरोज़ को पसंद नहीं करती थी, लेकिन मैं उन्हें प्यार करती थी.' फ़िरोज़ के प्रति इंदिरा गांधी की भावनाओं की ये बिल्कुल सही अभिव्यक्ति थी.
साभार बीबीसी 

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