हिंदी सिनेमा के शुरुआती दौर में बहुत से ऐसे गुमनाम कलाकार हुए, जिन्होंने उस दौर में बेहद शानदार काम किया। और वक़्त के साथ कहीं ग़ुम हो गए। मशहूर कलाकारों को तो हम फिर भी याद कर लेते हैं। पर जिनका योगदान बहुत ज्यादा नहीं रहा। उनके बारे में हम अनजान ही रह जाते हैं। ऐसे ही एक गायक थे, "मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी"। 1947 से 1950 के दौरान फ़ारूक़ी साहब ने कई फिल्मों में गीत गाये, व दो फिल्मों में अभिनय भी किया। आज उनकी यौमे-पैदाइश पर ख़िराज-ऐ-अक़ीदत.
फ़ारूक़ी साहब की पैदाइश 17 अगस्त 1915 को राजस्थान के झुंझुनू शहर के मोहल्ला पीरज़ादगांव में एक मज़हबी परिवार में हुई थी। इनकी बुनियादी शिक्षा इनके वालिद हाज़ी मुनीरुद्दीन के द्वारा घर पर ही हुई। इन्हें बचपन से ही गाने का बेहद शौक था। संगीत की दुनिया उन्हें बेहद लुभाती थी। अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान उन्होंने राजस्थान के तमाम स्टेज समारोहों में गाना शुरू किया। पर उनके वालिद साहब उनके गाने के सख़्त खिलाफ थे। वे चाहते थे कि उनका बेटा पढ़ाई पूरी करके एक शिक्षक बनें। पर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था। और एक दिन 1945 में वे अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करने के लिए मशहूर संगीतकार खेमचंद प्रकाश के नाम एक सिफारिशी ख़त लेकर गायक के रूप में किस्मत आजमाने बम्बई आ गए। बम्बई में उनके जानने वाले एकमात्र शख़्स थे, आज़ाद फ़ारूक़ी, जो पुराने खार इलाके में रहते थे। तो वे कुछ समय के लिए उन्हीं के साथ रहने लगे।
आख़िरकार एक साल संघर्ष के उपरांत खेमचंद प्रकाश जी ने उन्हें अपने घर मिलने के लिए बुलाया। जब वे वहां पहुंचे, तो वहां पर मशहूर गायक व अभिनेता के एल सहगल जी भी मौजूद थे। सहगल साहब ने उन्हें कुछ गाने के लिए कहा, तो फ़ारूक़ी साहब ने उन्हीं की गाई, मशहूर लोरी, 'सो जा राजकुमारी सो जा ...' गा के सुनाई। सहगल साहब बेहद प्रभावित हुए, और बोले, बहुत बढ़िया, तुम्हारी आवाज़ में कुछ नयापन है। बस फिर क्या था, सहगल साहब की इतनी सी तारीफ बहुत थी, और उनका 'रंजीत मूवीटोन' के साथ मासिक वेतन पर अनुबंध हो गया।
कुछ समय बाद सह-गायक के रूप में उन्हें पहली फिल्म मिली। पर उन्हें असली सफलता 1947 में मिली। ये उनके संगीत सफर का सुनहरा दौर रहा। इस साल उनकी 'छीन ले आज़ादी', 'दुनिया एक सराय', 'लाखों में एक' और 'पहली पहचान' फिल्में रिलीज हुईं। इनमें इनके गाये सभी गानों को ख़ूब सराहा गया। ख़ासकर फिल्म 'छीन ले आज़ादी' का गाना, 'कमजोरों की नहीं है दुनिया ...', स्वतंत्रता सेनानियों के बीच बेहद मशहूर हुआ था। और हमने जल्द ही स्वतंत्र राष्ट्र का लक्ष्य भी हासिल कर लिया था। इसके बाद एक और गीत, जिसने, फ़ारूक़ी साहब को बुद्धिजीवियों व मज़दूर वर्ग का चहेता बना दिया। वो था, फिल्म 'दुनिया एक सराय' का गीत, 'एक मुसाफ़िर आये बाबा एक मुसाफ़िर जाए ...'। फ़िर 1948 की फिल्म 'जय हनुमान' के भजन और 'मिट्टी के खिलौने' के भजन 'इस ख़ाक के पुतले को ...' भी लोगों ने ख़ूब सराहा। इनकी अगली दो फिल्में 'भूल भुलैया' 1949 और 'अलख निरंजन' भी बेहद सफल रहीं।
फ़ारूक़ी साहब उन गायकों में से एक थे, जिन्होंने बिना किसी औपचारिक संगीत प्रशिक्षण के सफलता पाई थी। अभी वे सफलता की सीढ़ियां चढ़ ही रहे थे कि 1950 के आख़री महीने में उन्हें अपने वालिद के काफी बीमार होने का पैगाम मिला। लगातार मिल रही सफलता के बावजूद उन्हें वापस जाना पड़ा। और फिर वो दुबारा वापस बम्बई नहीं लौटे। उपरोक्त फिल्मों के अलावा 'बिछड़े बलम', 'परदेसी मेहमान' 1948 और 1947 की दो फिल्मों 'नील कमल' और पिया घर आजा' में उन्होंने अभिनय भी किया था। अपनी बाकी की ज़िंदगी उन्होंने समाज सेवा में व्यतीत की। और 8 फरवरी 1990 को 75 वर्ष की आयु में इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गए।
उनके निधन के उपरांत उनके किसी मित्र ने उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप लिखा था ...
ख़बर क्या थी मोहम्मद आप हमें तन्हा छोड़ जाएंगे,
दिल-ए-रहबर को ग़मगीन और पुरनम बनाएंगे...
अब न सुबहा आएगी इस शाम के बाद,
बस हम तो सिर्फ़ आप के गीत गुनगुनायेंगे...
जब भी हिंदी सिनेमा के गुमनाम प्रतिभाओं को याद किया जाएगा, तो उस फ़ेहरिस्त में 'मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी साहब' का नाम अवश्य दर्ज होगा.
