बी अम्मा

Posted Star News Agency Thursday, August 14, 2025


शाह फ़हद नसीम 
बी अम्मा हिन्दुस्तान की जंग ए आज़ादी के नामवर सपूत मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली की वालिदा ए मोहतरमा थीं.
बी अम्मा का नाम आबादी बेगम बेगम (पैदाइश 1850) था. वो मोहल्ला शाही चबूतरा पर अमरोहा एक मुअज़्ज़ज़ कलाल खानदान में पैदा हुईं. उनके वालिद मुज़फ़्फ़र अली ख़ां थे. मुज़फ़्फ़र अली खां के परदादा दरवेश अली ख़ां मुग़लों के आख़िरी एहद में पंज हज़ारी ज़ात के मनसबदार थे यानी अमरोहा में इस खानदान को इज़्ज़त और दौलत में इम्तियाज़ हासिल था. अमरोहा के मशहूर नक़्शबन्दी बुज़ुर्ग हज़रत हाफ़िज़ अब्बास अली खां भी इसी खानदान के चश्म ओ चिराग़ थे जिन के नाम पर तहसील के पास "मस्जिद हाफ़िज़ अब्बास अली खां" है. आप का मज़ार अमरोहा में बिजनौर रोड पर रौज़ा हाफ़िज़ अब्बास अली के नाम से मशहूर है.
बी अम्मा की शादी रामपुर में अब्दुल अली साहब से हुई जो रामपुर रियासत में मुलाज़िम थे. महज़ 27 साल की उम्र में बी अम्मा बेवा हो गईं. उनके दूसरे निकाह की भी कोशिश की गई लेकिन उन्होंने साफ़ इंकार कर दिया और ख़ुद को अपने बच्चों की तालीम ओ तरबियत के लिए वक़्फ़ कर दिया. बी अम्माँ ने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए अपने ज़ेवर तक बेच दिए थे.
ये बी अम्मा की ही तालीम ओ तरबियत का असर था कि उनके दो बेटे मौलाना मुहम्मद अली जौहर और मौलाना शौकत अली ने हिन्दुस्तान में खिलाफ़त मूवमेंट शुरू किया जिसने काँग्रेस के साथ मिलकर हिन्दुस्तान को आज़ादी दिलाने मे एक अहम किरदार अदा किया.
बी अम्मा हिन्दुस्तान में तहरीक ए खिलाफ़त की सरगर्म कारकुन थीं. 1917 के मुस्लिम लीग के जलसे में बी अम्मा ने ज़बर्दस्त तक़रीर फ़रमाई थी कि लोगों में आज़ादी का ज़ज्बा पैदा और शदीद होने लगा.
जिस ज़माने में उनके बेटे मुहम्मद अली और शौकत अली तहरीक ए खिलाफ़त के सिलसिले में जेल में थे उस वक़्त इस तहरीक ए खिलाफ़त की कमान बी अम्माँ ने सम्भाल ली और पूरे हिन्दुस्तान में अपनी तक़रीरों से लोगों के दिलों में आज़ादी के ज़ज्बात को उभारने में कामयाब हुईं. वो रेलगाड़ी से मुल्क में घूमतीं तकरीरे करतीं और लोगों में आज़ादी का ज़ज्बा बेदार करतीं . 1923 में जामिया मिल्लिया के सालाना जलसे में उन्होंने ज़बर्दस्त तक़रीर करते हुए कहा- "मैंने अपना बुर्का इसलिए उतारा है क्यूंकि इस मुल्क में अब किसी भी आबरू बाक़ी नहीं. 1857 में मैंने अपने झंडे को उतरते देखा है अब मेरी तमन्ना है कि अँग्रेजों के झंडे को उतरते हुए देखूँ." 
13 नवंबर 1924 में खिलाफ़त की ये शैदाई खातून अपने मालिक ए हक़ीकी़ से जा मिलीं और दिल्ली में रौज़ा ए शाह अबुल खैर फारुकी में दफ़्न हुईं.
साभार 


أنا أحب محم صَلَّى ٱللّٰهُ عَلَيْهِ وَآلِهِ وَسَلَّمَ

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I Love Muhammad Sallallahu Alaihi Wasallam

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