रात एक किताब
थाम रखी थी मेरे हाथों ने,
नाइट बल्ब की मद्धम रोशनी में
जिसका हर्फ-हर्फ दहक रहा था
किसी दिये कि मानिंद,
मेरी दूसरी बाह ने थाम रखा था एक जिस्म,
जिसकी पेशानी टिकी थी
मेरे सीने के सहारे,
बुलंद आवाज़ में पढा जा रहा था
उस किताब में शामिल
कुछ उलझे हुए किस्सों को,
मेरी बांह और सीने के दरमियाँ
कोई तो था जो सुन रहा था
उन किस्सों को बड़ी शिद्दत से,
कोई था जिसकी धड़कन
महसूस की जा सकती थी,
जिसकी सांसों की हलचल
साफ सुनी जा सकती थी,
और जिसकी ज़ुल्फो की महक ऐसी थी
के जैसे उग आए हों अचानक से
हरसिंगार के हज़ारो फूल,
धीरे-धीरे आंखे
कब नींद की आग़ोश में समा गई
खबर ही न हुई,
सुबह को आंख खुली तो हाथ खाली थे,
न बाकी था कोई किस्सा
और न कोई सुनने वाला रह गया था
बाहों के दरमियाँ,
झुलस चुके थे हरसिंगार के फूल सभी,
धड़कनों की धक-धक
और सांसों की हलचल की जगह
पसरा हुआ था एक सन्नाटा कब्र सा,
बतौर निशानी सीने पर नक्श था
पेशानी का बस एक निशां,
और बिस्तर पर दीवार के सहारे
टिका हुआ था एक बिखरा हुआ सा जिस्म,
जिसकी सांसें और धड़कन
इत्तिफाक़न चल रही थीं अभी,
और जिसकी आंखों से मिटे नही थे अभी
बीती रात के अनकहे किस्से...
ज़ीशान ख़ान
